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पुलवामा हमले में शहीद संजय कुमार सिन्हा के गांव में

पिछले वर्ष पुलवामा हमले में शहीद जवानों में एक पटना जिले के संजय कुमार सिन्हा भी थे। उनके परिजनों के मुताबिक सरकार की ओर से मुआवजे की राशि दे दी गई है और एक बेटी को बिहार सरकार ने नौकरी भी दी है, लेकिन जख्म अब भी हरे हैं। बता रहे हैं नवल किशोर कुमार

आत्मसाक्षी 

पिछले वर्ष 14 फरवरी को जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में हुए आतंकी हमले में सीआरपीएफ के 42 जवान वीरगति को प्राप्त हो गए थे। इस घटना ने पूरे देश को झकझोर दिया था। बाद में जब लोकसभा के चुनाव हुए तब इसका असर भी दिखा। भाजपा को इस घटना और इस घटना के बाद बालाकोट में हुए हवाई हमले का लाभ इस कदर मिला कि वह अकेले ही 350 सीटों के आंकड़े को पार कर गई।

हालांकि पुलवामा में हुए आतंकी हमले के बाद यह जानकारी सामने आयी कि मरने वाले जवानों में दो जवानों को छोड़ शेष सभी दलित, पिछड़े और आदिवासी समुदाय के थे। इस संबंध में फारवर्ड प्रेस ने “पुलवामा आतंकी हमला : शहादत में गैर-ब्राह्मणों के लिए सौ फीसदी आरक्षण!” शीर्षक से खबर भी प्रकाशित की।

पुलवामा आतंकी हमले के एक बरस पूरे होने के मौके देश भर में रैलियां निकाले जाने की सूचना मिली। दिल्ली में इसकी गूंज अधिक थी। एक वजह दिल्ली में होने वाला विधानसभा चुनाव भी रहा। भाजपा की ओर से पुलवामा आतंकी हमले के एक वर्ष पूरे होने पर ताबड़तोड़ कार्यक्रम इस मकसद के साथ आयोजित किए गए। लेकिन सवाल अनेक थे। इनमें से एक तो यह कि शहीद जवानों के आश्रितों को दिए जाने वाले मुआवजा संबंधी घोषणाओं का क्या हुआ? कितने जवानों के परिजनों को लाभ मिला या नहीं मिला? इसके अलावा यह भी कि शहीद जवानों के परिजन उपरोक्त घटना के संबंध में अब क्या सोचते हैं।

पुलवामा हमले में शहीद संजय कुमार सिन्हा की आवक्ष प्रतिमा के साथ उनकी पत्नी बेबी देवी

इन प्रश्नों को केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के राष्ट्रीय मुख्यालय में सूचना जनसंपर्क अधिकारी डॉ. गिरिश चंद्र दास से दो बार व्यक्तिगत मुलाकात तथा ईमेल के माध्यम से माँगा गया। परंतु उन्होंने अनदेखा कर दिया।

जो सूचनाएं मांगी गई थीं, उनमें शामिल थे –

  1. पुलवामा आतंकी हमले में मारे गए जवानों के आश्रितों को कितना मुआवजा और कब दी गई।
  2. जवानों के आश्रितों को सरकारी नौकरी दिए जाने संबंधी घोषणाओं के आलोक में  कितनों को नौकरी मिली।

ये दो सवाल ऐसे थे, जिनका जवाब सीआरपीएफ के कथित उच्च अधिकारियों को देने में कोई चुनौती नहीं थी। परंतु, सीआरपीएफ के राष्ट्रीय मुख्यालय ने कोई सूचना नहीं दी। इस कारण किसी शहीद जवान के घर जाकर उनकी जीवंत सच्चाई को शब्द देना जरूरी था।

कोरोना से संक्रमण की आशंकाओं के बीच मैं शहीद जवान संजय कुमार सिन्हा के घर गया। चूंकि मैं स्वयं पटना का रहने वाला हूं और संजय कुमार सिन्हा का गांव मठियापुर  (मसौढ़ी) करीब 28 किलाेमीटर दूर है, लिहाजा मोटरसाइकिल से यह सफर मेरे लिए आसान था। पटना से मसौढ़ी जाने को मुख्य रूप से दो रास्ते हैं। एक रास्ता जीरो माइल से होकर गुजरता है तो दूसरा रास्ता पुनपुन के तीरे-तीरे। यानी पुनपुन नदी पर बनाए गए जीवन रक्षक बांध के सहारे। यह पूरा इलाका राजधानी पटना का हिस्सा है लेकिन सुविधओं की उपलब्धता के मामले में अंतर सैंकड़ों कोस लंबा है। पतली सड़क और वह भी अधिकांश जगहों पर उबड़खाबड़। कुछेक इलाके मसलन मेरे गांव ब्रहम्पुर से लेकर पुनपुन नदी के बांध किनारे बसे टंड़वा गांव तक की सड़क नवनिर्मित है। हालांकि यह सड़क भी कई जगहों पर टूटी हुई है। मसलन, टंड़वा से लेकर पुनपुन बाजार तक सड़क नीतीश कुमार के सुशासन पर सवाल उठाती है।

शहीद संजय कुमार सिन्हा के कमरे में रखे गए विभिन्न शहीद स्मृति पत्र व प्रतीक चिन्ह

पुनपुन बाजार से मसौढ़ी की दूरी करीब 15 किलाेमीटर है। एक समय इस पूरे इलाके में उग्र वामपंथियों का दबदबा था। पुनपुन बाजार को पार करने के बाद मिलने वाला नदवां रेलवे स्टेशन है जिसे संभवत: 2001 में नक्सलवादियों ने बम से उड़ा दिया था। अब वहां खंडहर की जगह छोटा ही सही, एक सुंदर स्टेशन है। 

मसौढ़ी अनुमंडल परिसर को पार करने के बाद बायीं ओर एक रेल पुल के नीचे से होकर एक कच्ची सड़क मठियापुर जाती है। यही शहीद संजय कुमार सिन्हा का गांव है। बिहार में अजब-गजब विकास का आलम यह कि गांव तक पहुंचने की सड़क भले ही कच्ची मिली, लेकिन गांव के अंदर की गलियां बिलकुल पक्की। गांव में पहुंचते ही एक वृद्ध से शहीद के घर का रास्ता पूछा। जवाब देने से पहले कई सवाल हाजिर थे। आप कहां से आए हैं और क्या करने आए हैं? फिर यह बताने पर कि पत्रकार हूं और खबर के सिलसिले में आया हूं, वृद्ध की आंखें नम हो गयीं। कहने लगे कि – बाबू, हमलोगों के बेटों को रोजी-रोजगार मिले तो कोई शहीद क्यों होए। फिर कहने लगे कि इसी गांव के दूसरे टोले में हैं संजय बाबू का घर। उनके घर के आगे उनकी एक प्रतिमा परिजनों ने लगा रखी है।

मैंने गांव के सामाजिक ताने-बाने को समझने के उद्देश्य से पूछा कि इस गांव में किस-किस जाति के लोग रहते हैं। जवाब मिला कि दूसरा टोला (शहीद संजय कुमार सिन्हा का टोला) जसवार (कुर्मी जाति की एक उपजाति) के लोगों का है। जबकि यह पहला टोला यादव व दलितों का है। आप स्वयं किस जाति के हैं बाबा? यह पूछने पर जानकारी मिली – पासी (दलित)। वृद्ध ने यह भी बताया कि शहीद के पिता महेंद्र कुमार सिन्हा अभी घर पर ही होंगे। उनसे बात कर लिजीएगा। बेचारे बुढापे में बेटे की अर्थी ढोने के बाद टूट चुके हैं।

मैं आगे बढ़ा। थोड़ी ही दूरी पर दूसरा टोला नजर आया। गांवों में इस तरह की विभाजक रेखाएं अब भी मौजूद हैं। इसकी सामाजिक वजहें हैं और आर्थिक भी। बिहार में कुर्मी जाति को खेतिहर जाति के रूप में माना जाता है। खासकर मध्य बिहार के इलाकों में उनकी आर्थिक व सामाजिक हैसियत सवर्णों से कम नहीं है। 

एक मंजिला मकान के आगे एक सैनिक की प्रतिमा मिली। वह संजय कुमार सिन्हा की प्रतिमा थी, जो 14 फरवरी 2019 को पुलवामा में आतंकी हमले में मारे गए थे। दरवाजा खटखटाया तो एक नौजवान बाहर आया। पूछा तो उसने अपना नाम सोनू व शहीद संजय कुमार सिन्हा का पुत्र बताया। 

सोनू ने घर के पहले कमरे के बारे में बताया कि यह कमरा उसके पिताजी का हुआ करता था। छुट्टियों में आते तो इसी कमरे में रहते थे। यही घर के बाहर गांव के लोग जमा होते थे। 

अपने शहीद पिता की प्रतिमा के साथ सोनू

कमरे में शहीद संजय कुमार सिन्हा की एक बड़ी तस्वीर के अलावा कई शहीद स्मृति पत्र व शहीद स्मृति चिन्ह  थे। इनमें से एक सीआरपीएफ द्वारा जारी प्रमाणपत्र भी था, जिसकी एक प्रति उनके परिजनों ने घर के बाहर दरवाजे पर लगा रखा था।

शहीद संजय कुमार सिन्हा के घर के दरवाजे पर परिजनों द्वारा लगाया गया शहीद स्मृति पत्र

बातचीत में सोनू ने बताया कि उसके पिता एक बहादुर इंसान थे। घर में आर्थिक तंगी के कारण सीआरपीएफ की नौकरी ज्वायन की थी। उसने यह भी बताया कि वह और उसकी दोनों बहनों को उसके पिता खूब पढ़ाना चाहते थे। इसलिए शुरू से ही पढ़ाई पर जोर दिया। सोनू के मुताबिक, वह वर्द्धमान महावीर मेडिकल कॉलेज (सफरदजंग अस्पताल), दिल्ली, में एमबीबीएस का छात्र है। उसकी छोटी बहन को राज्य सरकार ने पिता के शहीद होने के उपरांत मसौढ़ी अनुमंडल कोर्ट में लिपिक की नौकरी मुआवजे के रूप में दी है। यह पूछे जाने पर कि सीआरपीएफ की ओर से अनुकंपा के आधार पर नौकरी किसी को मिली, सोनू ने बताया कि अभी तक इस मामले में कोई बात आगे नहीं बढ़ी है। इस बीच उनकी मां और शहीद संजय कुमार सिन्हा की विधवा पत्नी बेबी देवी आयीं। सोनू ने उनसे मेरा परिचय कराया और आने का मकसद बताया। मेरे एक सवाल के जवाब में उनकी आंखें नम हो गयीं। 

मुआवजे के रूप में शहीद संजय कुमार सिन्हा के परिजनाें को करीब एक करोड़ रुपए मिले हैं। स्वयं सोनू ने यह बताया कि इसमें करीब 35 लाख रुपए राज्य सरकार ने दिए हैं और शेष भारत सरकार ने। लेकिन साथ ही सोनू ने यह भी कहा कि काश ये रुपए न मिले होते, उसके पिता जीवित रहते। कम से कम वह अपनी आंखों से मुझे डाक्टर के रूप में देख तो लेते जो कि उनका सपना था।

मैं लौट रहा था। मसौढ़ी बाजार में एक परिचित से मुलाकात हो गई। बातों ही बातों में उन्होंने बताया कि बड़कन (सवर्ण) के पास किस बात की कमी है जो वे सैनिक बनें। सैनिक बनना तो छोटे लोगों की किस्मत में लिखा है। या तो वे मजदूर बनेंगे या फिर सिपाही। 

(संपादन : गोल्डी/अनिल)

लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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