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बिहार में कोरोना, प्रवासी मजदूर औेर दलितों व ओबीसी के सवाल

प्रणय बता रहे हैं बिहार के प्रवासी मजदूरों के बारे में जो कोरोना के दहशत के बीच अपने घरों को लौट रहे हैं। उनके मुताबिक इन मजदूरों में अधिकांश दलित और ओबीसी हैं। उनके लौटने की एक वजह यह भी कि सामंत कहीं उनकी जमीनें न हड़प लें

अभी जब कोरोना के खौफ से प्रवासी मजदूर बिहार में वापस घरों की ओर लौटने लगे तो दिखने लगा कि पलायन और विकास का असली चेहरा कैसा है। पलायन करने वाले  ज्यादातर लोग दलित और पिछड़ी जातियों के हैं। चमकी बुखार (जापानी इंसेफलाइटिस) से मरनेवाले भी ज्यादातर इसी जाति समूह से आते हैं। आप कह सकते हैं कि इनकी संख्या ज्यादा है इसलिए ऐसा है। लेकिन यह भी तो कहना चाहिए कि इनकी संख्या ज्यादा है  तो इनका विकास भी ज्यादा होना चाहिए। इनकी भागीदारी भी अधिक होनी चाहिए। इनकी संख्या ज्यादा है, पर ये सताए हुए लोग हैं। 

समाज का ढांचा ऐसा है कि वह कई बार हनक से चलता है, संख्या बल से नहीं। बिहार में कम संख्या वाली दबंग जातियों का ही राज है। चारपहिया गाड़ियों के पीछे ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार, क्षत्रिय के अलावा पिछड़ी जातियों में अगड़े कुर्मी, यादव व कुशवाहा लिखा आपको खूब मिलेगा, परंतु धानुक, तेली, सूढ़ी, हलवाई, कानू, कहार लिखा नहीं मिलेगा। धोबी, नाई, मुसहर तो और भी नहीं।  

बात कोरोना और उससे उपजे पलायन की करें तो इससे पहले भी बिहार में महामारियां होती रही हैं। बिहार का हेल्थ सिस्टम इतना दुरुस्त नहीं है कि विदेशों की तरह यहां कोरोना फैले तो कुछ खास किया जा सके। जहां आजादी के सात दशक बाद भी में स्कूलों में ठीक से शिक्षक बहाल नहीं किए जा सके हैं, वहां डाक्टर और नर्स आदि कैसे बहाल हो सकते हैं। जो बहाल हुए हैं, वे आबादी से लिहाज से नाकाफी हैं। पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल (पीएमसीएच), नालंदा मेडिकल कॉलेज अस्पताल (एनएमसीएच) और दरभंगा मेडिकल कॉलेज अस्पताल (डीएमसीएच) जैसे बड़े मेडिकल कॉलेज अस्पतालों की स्थिति सामान्य दिनों में भी बदतर रहती है। कई बार हाईकोर्ट ने इन सरकारी अस्पतालों पर तल्ख टिप्पणी की है।

जान और जमीन दोनों बचाने लौट रहे हैं प्रवासी मजदूर

अतीत में बिहार में महामारी की स्थिति कैसी रही है, इसे प्रसन्न कुमार चौधरी और श्रीकांत की किताब “बिहार में सामाजिक परिवर्तन के कुछ आयाम” (2001, वाणी प्रकाशन) में देखा जा सकता है। इसमें वर्णित है- “1911 से 1920 के बीच प्लेग से करीब चार लाख लोग मारे गए। इसके पहले 1909-10 में लगभग सभी जिले मलेरिया की चपेट में थे। मुजफ्फरपुर में हैजा फैला हुआ था। पटना, शाहाबाद, सारण, हाजीपुर और मुंगेर में प्लेग ने महामारी कर रूप धारण कर लिया था। सारण में 20,467 और मुंगेर में 4,299 लोगों की जानें गई थीं। सबसे भायानक कहर तो 1918 ई. में इन्फ्लुएंजा ने ढाया- 6  महीने से भी कम समय में 6 लाख लोग इसकी भेंट चढ़ गए। प्रति हजार आबादी में त्रिवार्षिक औसत मृत्यु दर जहां 1912-14 में 29.5 थी और 1915-17 में 33.4, वहीं 1918-20 में वह 42.5 तक जा पहुंची। प्राकृतिक मौतों तथा अन्य बीमारियों से हुई मौतों को छोड़ दें तो सिर्फ प्लेग और इन्फ्लुएंजा से मरनेवालों की संख्या 1911 से 1920 के बीच थी दस लाख, यानी बिहार- उड़ीसा की कुल आबादी का करीब ढाई प्रतिशत।”

वर्तमान बिहार की सच्चाई यह है कि 30 फीसदी डाक्टर और मेडिकल कर्मियों से सरकारी अस्पताल चलाए जा रहे हैं। हालत यह है कि लगभग सभी मेडिकल कॉलेजों की जमीन पर दबंगों का अवैध कब्जा है। न्यायमूर्ति डॉ. अनिल कुमार उपाध्याय ने जनवरी 2020 में हुई एक सुनवाई के दरमयान कहा कि-राज्य में गरीब जनता के इलाज की सुध किसी को नहीं है।

असर में बिहार कोई एक बीमारी से ग्रसित हो तो कोई बात हो। हालत यह है कि इसके पोर-पोर में जख्म है। इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि सरकार आज तक सूबे में सरकारी डाक्टरों की प्राइवेट प्रैक्टिस पर रोक नहीं लगा सकी। इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि बड़े शहरों में कारपोरेट स्टाइल के अस्पताल बन गए हैं और इनमें गरीबों का इलाज मुमकिन नहीं है। आए दिन इन अस्पतालों के बारे में खबरें प्रकाश में आती रहती हैं। अभी करीब डेढ़ साल पहले ही पटना के पारस अस्पताल में बिहार सरकार के कद्दावर मंत्री श्याम रजक की पीठ इलाज के दौरान जला दी गयी। हालांकि जब उनके साथ यह घटना घटित हुई तब वे मंत्री नहीं थे। रही ग्रामीण इलाकों की बात तो वहां कहने को प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र हैं लेकिन चिकित्सक वहां जाने की जहमत नहीं उठाते। वे अपने निजी स्वास्थ्य केंद्रों में पूरी मुस्तैदी से तैनात रहते हैं। जाहिर तौर पर जब तक प्राइवेट प्रैक्टिस पर रोक नहीं लगेगी तब तक सरकारी स्वास्थ्य सिस्टम नहीं सुधरेगा।

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गौरतलब है कि बिहार में पलायन जाति से स्पष्ट तौर पर जुड़ा है। यहां उच्च जाति के हिंदू जमींदार और धनी रैयत निचले तबक के लोगों के पढ़ने-लिखन का विरोध करते थे। उन्हें इनका पढ़ना-लिखना फूटे आंख नहीं सुहाता था। शिक्षा या पढ़ने-लिखने वाले रोजगार जसे शिक्षक, प्रोफेसर, डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, पत्रकार आदि बनना अगड़ी जति के लिए ही संभव था। अभी भी इन पदों पर ज्यादा संख्या में वह सब काबिज हैं। पिछड़ी जातियों में यादव, कुर्मी और कुशवाहा ही आगे बढ़े तथा मुसलमानों में अशराफ मुसलमान। वर्षों बरस तक बिहार में यही होता रहा कि पिछड़ी और अनुसूचित जाति-जनजाति के लोग काम की तलाश में बंगाल, मुम्बई, पंजाब जाते रहे। मजदूर और गरीब रैयत सूदखोरों के चंगुल में फंस अपना सब कुछ लुटाते रहे। उनकी जमीनें जाती रहीं। लगान व्यवस्था को ऐसा कर दिया गया कि मजदूरों को साल में आधा समय बैठे रहना पड़ा। ऐसे में वे मजदूर परदेस निकल जाते और उनकी औरतें दूसरे घरों में दाई का काम करतीं। 

मुझे 2013 की एक घटना का स्मरण हो आया है। मैं तब एक टीवी चैनल में पत्रकार था, एक महिला अपना दुखड़ा लेकर पहुंची। उसने बताय कि उसका पति परदेस में काम करता है और वह स्वयं ईंट-भट्ठे पर काम करती है। एक दिन मालिक और उसक बेटे ने बारी-बारी से उसके साथ दुष्कर्म किया। जब वह थाने पहुंची तो उसके स्पर्म लगे पेटीकोट को ही बदल दिया गया। दरिंदगी का ऐसे कई दर्द परदेस जाने वाले मजदूरों का परिवार झेलता रहा है। इसलिए जो समाज वैज्ञानिक या अर्थशास्त्री पलायन को सकारात्मक तरीके से देखते और समझाते हैं वे सवर्णवादी नजरिए से ऐसा करते हैं। बिहार तो वह राज्य है जहां जनेऊ पहनने और उसे नहीं पहनने देने को लेकर संघर्ष हुआ। वर्ष 1899 ई. में मनेर के हाथीटोला से लेकर 1925 में लखोचक तक का आंदोलन दमदार था, लेकिन समाज में सवर्ण के आगे लड़ने-भिड़ने वाले यादव और कुर्मी ही थे। 1930 के दशक में जब त्रिवेणी संघ का उदय हुआ तब यही तीनों जातियाें के लोग आगे आए। बाकी पिछड़ी जातियां बड़ी संख्या में पलायन को ही मजबूर थीं।

बिहार में महामारियों और अकाल की आड़ में जमीन हड़पने का खेल खूब हुआ है और डर है कि फिर से एक बार यह सब शुरू न हो जाए। इसी डर से मजदूर परदेस से लौटने लगे हैं। स्वास्थ्य का डर तो है ही। बिहार में पलायन का हाल यह है कि गांव में ऐसे ही मरद कम या नहीं के बराबर दिखते हैं और ये परदेस में मर गए तो न औरत बचेगी और न जमीन। इन गरीबों को पता है कि गांव के भूमाफियाओं की नजर कैसी है। ऐसा अतीत में भी हुआ है। प्रसन्न कुमार चौधरी और श्रीकांत की किताब “बिहार में सामाजिक परिवर्तन के कुछ आयाम”  में 1770 के अकाल का जिक्र है- “अकाल के दौरान भागलपुर- कहलगांव-राजमहल क्षेत्र से बड़ी संख्या में लोग भागकर पहाड़ों पर चले गए जहां मकई, बोरा आदि खाकर किसी तरह उन्होंने अपनी जान बचाई और एक साल तक वे पहाड़ियों के बीच रहे और स्थिति जब कुछ सुधरी तो नीचे अपने गांवों में लौटे। जाति प्रथा इतनी कठोर और बर्बर थी कि गांववालों ने उन्हें स्वीकार नहीं किया। ….असल में गांव-समाज के वर्चस्वशाली लोग पहले तो कठोर सामाजिक नियमों का हवाला देकर लोगों को जाति- बहिष्कृत करवा देते, फिर इन बहिष्कृत लोगों की जमीन-जायदाद हड़प जाते।” 

कोरोना संक्रमण के काल में कहीं इन पिछड़ी जाति, अनुसूचित जाति के लोगों की जमीन जायदाद पर पहले की तरह हमला न कर दें, इसका खतरा बरकरार है। आनेवाले समय में कोरोना नामक विपदा के टल जाने के बाद भी इन गरीबों का दुख दूर नहीं होने वाला। लॉकडाउन के कारण उन्हें रोजगार नहीं मिल रहा है। नरेगा सरकारों की प्राथमिकता में नहीं है कि गरीबों को गांव में कुछ आय प्राप्त हो सके। 

बहरहाल, राज्य सरकार को चाहिए कि वह कोरोना के बाद ये मजदूर पैसे की वजह से नए सूदखोरों की चंगुल में न फंसें। नहीं तो अंग्रेजी सरकार और आजाद भारत की सरकार में कोई अंतर नहीं रह जाएगा। वैसे भी बिहार की समजवादी सरकार पर जवाबदेही ज्यादा है। 

(संपादन : नवल)

लेखक के बारे में

प्रणय

लेखक बिहार के वरिष्ठ पत्रकार हैं

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