बिहार की आत्मा में राजनीति बसती है। राजनीति के बिना आप बिहार की कल्पना नहीं कर सकते हैं। खेत-खलिहान से लेकर मंच और मंचान तक सिर्फ राजनीति। भारत के पौराणिक ग्रंथों रामायण और महाभारत दोनों के कई प्रसंग बिहार से जुड़े हैं। मगध साम्राज्य का केंद्र भी बिहार ही था। महात्मा गांधी के प्रयोग को पहली सफलता और ऊर्जा बिहार से मिली। 1857 के विद्रोह का केंद्र भी बिहार ही था।
बिहार सत्ता की राजनीति की भी प्रयोग भूमि रहा है। डॉ राममनोहर लोहिया से लेकर जय प्रकाश नारायण तक बिहार की मिट्टी में अपने विचारों की धारा को सिंचते रहे। इसके साथ ही केंद्र और राज्यों की सत्ता को ध्वस्त करते रहे। इसी श्रृंखला में कर्पूरी ठाकुर और लालू प्रसाद यादव भी आते रहे हैं। इन दोनों ने स्थापित सत्ता को धराशायी कर अपने लिए सत्ता का मार्ग प्रशस्त किया। सत्ता के सामाजिक और राजनीतिक चरित्र को बदल दिया। दोनों नेताओं के लिए बदलाव की धारणा भले अलग-अलग हो, लेकिन दोनों का लक्ष्य सत्ता का लाभ सदियों से उपेक्षित व वंचित समाज तक पहुंचाना था। सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के निदेशक प्रोफेसर संजय कुमार ने दोनों की कार्यशैली और अवधारणाओं का विश्लेषण बहुत से बारिक ढंग से किया है। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘बिहार की चुनावी राजनीति’ में लिखा है कि – ‘लालू प्रसाद यादव और कर्पूरी ठाकुर की सामाजिक न्याय की अवधारणा में एक बुनियादी अंतर यह था कि कर्पूरी ठाकुर ने अगड़ी जातियों के साथ समकक्षता चाही थी, जबकि लालू प्रसाद यादव ने उनके ऊपर सामाजिक-राजनीतिक दृष्टिकोण से पूर्ण प्रभुत्व अथवा वर्चस्व चाहते थे।’

संजय कुमार ने सीएसडीएस के निदेशक के रूप में बिहार के चुनाव को काफी नजदीक से देखा है। चुनाव में जाति की भूमिका, जातियों का राजनीतिक चरित्र और मतदान की प्रवृत्ति का भी गहन अध्ययन किया है। उनकी पुस्तक ‘बिहार की चुनावी राजनीति: जाति-वर्ग का समीकरण (1990-2015) बिहार के तीन दशकों की राजनीति पर व्यापक अध्ययन है। इन तीन दशकों में लालू यादव बिहार की राजनीतिक के केंद्र बिंदु रहे हैं। वे सत्ता रहें हो या सत्ता से बाहर, बिहार की राजनीति उनके आसपास ही रही है। पूरा तीन दशक लालू समर्थन और लालू विरोध की राजनीति पर टिकी रही है।
संजय कुमार की पुस्तक ‘बिहार की चुनावी राजनीति’ इस मायने में महत्वपूर्ण है कि इस पुस्तक में लगभग तीन दशक की घटनाओं का बिंदुवार और सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है। इसके साथ ही लेखक ने आंकड़ों और तथ्यों के माध्यम से घटनाओं का विश्लेषण करने का प्रयास भी किया है। पुस्तक में 1990 और 2015 के बीच हुए सभी विधान सभा और लोकसभा चुनावों का विस्तृत अध्ययन किया है। इन चुनावों को लेकर सीएसडीएस ने लगातार सर्वे किया और उसके परिणामों को पुस्तक में सम्मिलित किया गया है। पुस्तक में पार्टियों के साथ गठबंधनों के प्रदर्शन पर फोकस किया गया है और इसके साथ गठबंधन में पार्टी विशेष की उपलब्धियों का अध्ययन भी किया गया है। इसके माध्यम से यह समझाने का प्रयास किया गया है कि गठबंधन में किस पार्टी का सामाजिक या राजनीतिक आधार कितना मजबूत है। पुस्तक में प्रशासनिक, भौगोलिक और राजनीतिक बनावट के आधार पर भी फोकस किया गया है। इसमें यह बताया गया है कि तिरहूत, मगध या सीमांचल में किसी खास पार्टी या गठबंधन को क्यों नफा या नुकसान उठाना पड़ा। उन इलाकों की जातीय बनावट का मतदान में कितना असर पड़ा।
पुस्तक के विषय विभाजन को देखें तो इसे 8 खंडों में बांटा गया है और कुछ खंड की शुरुआत से पहले एक ऐसी तस्वीर का इस्तेमाल किया गया है, तो खंड विशेष का प्रतिनिधित्व करता है। हर खंड में ग्राफिक्स के माध्यम से तथ्यों को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। पहले अध्याय का शीर्षक है- बिहार की सामाजिक व आर्थिक पृष्ठभूमि। इसमें जातियों की बनावट व बसावट के साथ उसके राजनीतिक चरित्र को लेकर विशेष सामग्री दी गयी है। इसके साथ जमींदारी उन्मूलन और औद्योगिकरण से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर चर्चा हुई है। रोजगार के स्रोत से लेकर नरसंहारों तक का विवरण है। इस खंड में लेखक ने बिहार की जातीय यथार्थ को साफ शब्दों में लिखा है कि – ‘राजनीतिक दल अपनी सामाजिक व सियासी जमीन बनाने के लिए जाति का उपयोग करते हैं। यह उनका मूलभूत आधार है, जिस पर वे अपने राजनीतिक मंसूबों की इमारत खड़ी करते हैं।’

दूसरे अध्याय का शीर्षक है बिहार की चुनावी राजनीति का इतिहास। इस अध्याय में 1947 से 1990 तक के उथल-पुथल को सामाजिक और राजनीतिक बदलाव के संदर्भ में देखा गया है। इस अध्याय में आजादी के बाद पिछड़ी जातियों की राजनीतिक आकांक्षाओं के उभार को रेखांकित किया गया है। कांग्रेस और सोशलिस्ट पार्टियों के बीच सत्ता संघर्ष और वोटों के ध्रुवीकरण का विस्तृत विवरण है। इसी दौर में डॉ. राममनोहर लोहिया की वैचारिक स्वीकार्यता से राजनीति की नयी जमीन तैयार हो रही थी। आपातकाल और छात्र आंदोलन के गर्भ से एक नया नेतृत्व वर्ग उभर रहा था, जो व्यापक रूप में कांग्रेस विरोधी और सामाजिक रूप से गैरसवर्ण सरोकारों से ओतप्रोत था। इस वर्ग का नेतृत्व लंबे समय तक कर्पूरी ठाकुर करते रहे और उनके देहांत के बाद लालू यादव ने उसे आगे बढ़ाया। इस अध्याय में इस दौरान चुनाव परिणामों का भी विश्लेषण किया गया है और उसकी प्रवृतियों को रेखांकित किया गया है।
तीसरे अध्याय का शीर्षक है- ‘ओबीसी राजनीति का उभार’। इस इस अध्याय में 1990-95 के बीच राजनीति में पिछड़ी जातियों की आकांक्षाओं के उभार और इन जातियों के बीच सत्ता संघर्ष की शुरुआत का विवरण है। इसी दौर में लालू यादव के खिलाफ नीतीश कुमार कुर्मी औ कोइरी जाति को लेकर नया समीकरण खड़ा करते हैं और जनता दल से अलग समता पार्टी बनाते हैं। इसके बावजूद 1995 में लालू यादव के नेतृत्व में जनता दल को पूर्ण बहुमत मिलता है। इसी दौरान लोकसभा में जनता दल संसदीय दल का विभाजन भी होता है। इस राजनीतिक विभाजन और बिखराव के सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव का अध्ययन भी इस अध्याय में है। इसी कालखंड में मंडल आयोग की अनुशंसा लागू की गयी, जिसके परिणाम स्वरूप व्यापक स्तर पर सामाजिक उथल-पुथल भी हुआ। इस कालखंड की प्रवृतियों की चर्चा करते हुए लेखक ने लिखा है कि – ‘यादवीकरण की कथित प्रवृत्ति लालू प्रसाद यादव के मुख्यमंत्रित्व काल की ही देन थी। जिसमें राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र के प्रत्येक और सभी भागों में ‘यादवीकरण’ को बढ़ावा देने का कार्य किया गया था या किया जा रहा था। …. तो नीतीश कुमार और उनके स्वजातीय कुर्मियों और साथ में कोइरियों की जाति उपेक्षित महसूस कर रही थी।’
चौथे अध्याय का शीर्षक है- गठबंधन राजनीति के नये युग की शुरुआत। इस खंड में 1996 से 1999 तक के कालखंड का अध्ययन किया गया है। इस दौरान 1996, 1998 और 1999 में तीन लोकसभा चुनाव हुए। जनता दल में विभाजन भी इसी कालखंड में हुआ। इसी समय राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा की अगुआई में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन अस्तित्व में आया, जिसमें बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली समता पार्टी और शरद यादव के नेतृत्व वाले जदयू शामिल थे। रामविलास पासवान की लोजपा भी इसका हिस्सा बनी। बिहार में यह लालू यादव के खिलाफ मजबूत गठबंधन की शुरुआत थी। इसके विपरीत लालू यादव ने कांग्रेस के साथ तालमेल की शुरुआत की। इस अध्याय में विभिन्न पार्टियों के उत्थान और पतन को आंकड़ों और ग्राफिक्स के माध्यम से दिखाया गया है। इस दौर में भाजपा निरंतर मजबूत होती गयी, जबकि इसकी तुलना में कांग्रेस कमजोर होती गयी। इस संदर्भ में लेखक ने लिखा है कि ‘बिहार में इस गठबंधन की राजनीति के नये अध्याय खुलने के साथ ही राज्य के मानचित्र पर लालू एक तरफ खड़े दिखते हैं, तो इसके विरोध में भाजपा और जदयू दूसरी तरफ खम ठोकते नजर आते हैं। जबकि कांग्रेस थोड़ी उलझन में प्रतीत होती है।’

पांचवें अध्याय का शीर्षक है- राजद का पुनरुत्थान और अवसान। इसमें 2000 से 2005 के कालखंड का विश्लेषण किया गया है। इस कालखंड में 2000, फरवरी व नवंबर 2005 में तीन विधान सभ चुनाव हुए और 2004 में लोकसभा का चुनाव हुआ था। इसी कालखंड में बिहार से अलग होकर झारखंड नामक नया राज्य बना था। 2000 के विधान सभा चुनाव में लालू यादव की पार्टी राजद तीसरी बार कांग्रेस के सहयोग से सत्ता में वापस आयी थी, जबकि 2004 के लोकसभा चुनाव में राजद को जबरदस्त सफलता मिली और केंद्र सरकार में राजद की भूमिका निर्णायक हो गयी। लेकिन एक साल के अंदर ही फरवरी 2005 और नवंबर 2005 में राजद की ताकत कमजोर हुई। सत्ता लालू यादव के हाथ से निकलकर नीतीश कुमार के हाथों में पहुंच गयी। पुस्तक में इन चारों चुनाव का तथ्यगत विश्लेषण किया गया है और वोट विहैब में आये बदलावों के सामाजिक और राजनीतिक कारणों की व्याख्या की गयी है।
छठे अध्याय का शीर्षक है- लालू का अवसान और नीतीश का उभार। इस अध्याय में 2005 के दो विधान सभा चुनावों का विस्तृत रूप से अध्ययन किया गया है। इन दो चुनावों में मतदान भी पिछले चुनावों की तुलना में काफी कम हुआ था। इस अध्याय में लेखक ने फरवरी और नवंबर के चुनाव के बीच के राजनीतिक घटनाक्रम को अध्ययन का विषय बनाया है। इसमें राज्यपाल द्वारा विधानसभा भंग किये जाने को भी एक बड़ा कारक माना गया है।
सातवें अध्याय का शीर्षक है- राजनीतिक शिखर पर नीतीश-भाजपा गठजोड़। इस अध्याय में 2010 के विधान सभा चुनाव में नीतीश कुमार और भाजपा गठजोड़ की अभूतपूर्व जीत को फोकस किया गया है। इस अध्याय में राजनीतिक बदलाव के साथ सुशासन पर भी फोकस किया गया है। इसमें बताया गया है कि नीतीश कुमार ने शिक्षा, स्वास्थ्य और सड़क के क्षेत्र में विकास के नये मापदंड स्थापित किये और इसका फल 2010 के विधान सभा चुनाव में मिला। लेखक ने विकास के मानदंडों का तुलनात्मक अध्ययन भी किया। इसके साथ ही अपने गहन अध्ययन में लेखक के चुनाव परिणाम को कई दृष्टिकोणों से देखने का प्रयास किया है।

आठवां व अंतिम अध्याय का शीर्षक है- विकास बनाम पहचान की राजनीति। इस अध्याय में 2014 के लोकसभा और 2015 के विधान सभा चुनाव का विश्लेषण किया है। 2013 में नीतीश कुमार द्वारा भाजपा को छोड़ने और 2015 में लालू यादव को गले लगाने की सामाजिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि का समझाने का प्रयास किया गया है। इस अध्याय में जुलाई 2017 में नीतीश द्वारा लालू यादव को छोड़कर पुन: भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाने को भी फोकस किया गया है।
384 पन्नों की इस पुस्तक में बिहार की राजनीति को समझने की पूरी सामग्री मौजूद है। इसके साथ ही 1990 और उसके बाद पिछड़ी जातियों के आपसी सत्ता संघर्ष को करीब से समझा जा सकता है। जाति संकेंद्रित राजनीति में जातीय वोटों की ताकत को समझने में भी यह पुस्त्क सहायक है। आजादी की लड़ाई के दौरान त्रिवेणी संघ की तीन जातियां यादव, कोइरी और कुर्मी करीब 5 दशक तक पिछड़ावाद की राजनीति साथ-साथ करती रही थीं। लेकिन 1990 के बाद सत्ता में हिस्सेदारी को लेकर बंट गयी। एक खेमे के नेता लालू यादव हो गये और दूसरे खेमे के नेता नीतीश कुमार। नीतीश कुमार ने लालू यादव के सत्ता के कथित यादवीकरण के खिलाफ अन्य पिछड़ी जातियों को गोलबंद किया और सवर्णों के साथ मिलकर लालू यादव के समानांतर नयी ताकत खड़ी कर दी।
यह पुस्तक इस मायने भी उपयोगी है कि बिहार की सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था के बदलाव को आंकड़ों और ग्राफिक्स के माध्यम से बताने का भी प्रयास किया गया है, जो काफी ग्राह्य है। कुल मिलाकर यह पुस्तक पठनीय के साथ संग्रहणीय भी है।
समीक्षित पुस्तक : बिहार की चुनावी राजनीति : जाति-वर्ग का समीकरण (1990-2015)
लेखक : संजय कुमार
प्रकाशक : फारवर्ड प्रेस/ सेज भाषा
प्रकाशन वर्ष : 2018
मूल्य : 350 रुपए (पेपर बैक), 850 रुपए (हार्ड कवर)
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(संपादन : नवल)