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कोरोना आपदा और तथाकथित अवसर के दरमियान बुनकर

पहले नोटबंदी, बाद में जीएसटी और अब कोरोना के कारण बुनकरों का जीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ है। उनके सामने राेजी-रोटी का संकट है। क्या यह संभव नहीं है कि सरकार इनके सवालों पर गंभीरतापूर्वक और सहानुभूतिपूर्वक विचार करे? सवाल उठा रहे हैं जुबैर आलम

पिछले कुछ बरसों में सरकार के फैसलों की वजह से कमोबेश हर तबक़ा परेशानी में पड़ा है। सबसे अधिक मार मजदूरों पर पड़ी है। अभी नोटबंदी और जीएसटी की मार से मज़दूर तबक़ा उबर नहीं पाया था कि कोरोना वायरस ने अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से बिगाड़ दिया। लघु एवं मध्यम उद्योगों से जुड़े लोगों की व्यथा सुनने वाला कोई नहीं है। पहले भी यह उद्योग सिर्फ कारीगरों और मालिकों के हौसले पर चलते रहे हैं। राजकीय सहायता तो दूर उन्हें ठीक से जिला स्तर पर भी सुविधाएं नहीं मिल पाती हैं। ऐसे नकारात्मक माहौल में भी बुनकरों ने तमाम दिक़्क़तों के बावजूद अपने हुनर को जैसे-तैसे संजो कर रखा है। एक सच यह भी है कि बुनकरों की हालत बहुत खराब है। 

सामाजिक रूप से बुनकरों में सबसे अधिक पसमांदा समाज के लोग हैं, जिस समाज से कभी कबीर रहे। राजनीतिक रूप से भी इनकी आवाज सियासी गलियारे में सुनाई नहीं देती है। यह इसके बावजूद है कि देश में भाजपा हिंदुत्व की राजनीति करती है और विपक्षी खुद को अल्पसंख्यकों का पैरोकार साबित करने में लगे रहते हैं। 

रोज़गार का दूसरा बड़ा सेक्टर

23 दिसम्बर, 2010 को तत्कालीन केन्द्रीय कपड़ा मंत्री दयानिधि मारन ने अपने एक बयान में कहा था कि एग्रीकल्चर सेक्टर के बाद कपड़े की बुनाई ऐसा दूसरा बड़ा सेक्टर है जो सबसे ज़्यादा देश में रोज़गार प्रदान करता है। 1995-96 में सरकार ने हैंडलूम से जुड़े लोगों का सर्वे कराया था। इस सर्वे मे 24 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से आंकड़े एकत्र किये गये थे। इस सर्वे का दो उद्देश्य था। पहला तो यह कि प्राप्त होने वाले आंकड़ों के आधार पर आगे की योजना बनाई जाये दूसरा अब तक लागू की गयी योजनाओं का मूल्यांकन किया जाये। 

पारंपरिक बुनाई में महिलाओं की भूमिका भी महत्वपूर्ण

हैंडलूम सेंसस ऑफ इंडिया 2009-10 एवं वस्त्र मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार हैंडलूम हाउस होल्डर की संख्या निरंतर घटती जा रही है। अखिल भारतीय स्तर पर 1987-88 से लेकर 1995-96 के बीच वृद्धि दर ऋणात्मक यानि -18.05% रही। उत्तर प्रदेश में इसी दौरान -49.09% की गिरावट दर्ज की गयी और 1995-96 से लेकर 2009-10 के बीच वृद्धि दर -20.95% रही। नवीन आंकड़ो खास कर नोटबंदी और जीएसटी के बाद के आंकड़े उपलब्ध होने पर स्थितियों के और खराब होने का अनुमान है। कोरोना में देशव्यापी लाकडाउन की वजह से पड़ने वाले नकारात्मक असर को भी शामिल कर लिया जाये तो स्थिति और बदतर हो जायेगी।

उत्तर प्रदेश के बुनकर

उत्तर प्रदेश के कई जिले बुनकर बाहुल्य हैं। उत्तर प्रदेश के वाराणसी, मऊ, आजमगढ़, आंबेडकर नगर, बस्ती और गोरखपुर आदि जनपदों में बुनाई बड़े पैमाने पर होती है। यह सेक्टर सरकारों की नज़र से दूर रहा है। बुनकर अपने दम पर इसी हुनर के भरोसे जैसे तैसे रोटी, कपड़ा और मकान की व्यवस्था करते रहे हैं। उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण ने रिवायती हुनरमंदों की रोज़ी-रोटी पर गहरी चोट की थी। फिर भी यह उधोग किसी ना किसी तरह अनगिनत परिवारों के लिये रोज़ी-रोटी का साधन है।

नोटबंदी के बाद बुनकर बर्बादी के कगार पर पहुंच गया। इस सेक्टर के अधिकतर लोगों का काम नक़दी आधारित था। यह लोग आमतौर पर बैंकिंग व्यवस्था से दूर थे। बैंकिंग व्यवस्था से दूरी की वजह से वक़्त पर नए नोट मिले नहीं और पुराने बेकार थे। नतीजतन सारा काम ठप हो गया। जीएसटी ने भी इसी तरह का असर डाला। स्थानीय स्तर पर काम करने वाले बुनकर जीएसटी को सही ढंग से समझ नहीं सके। यह मुमकिन है कि बड़े मिल मालिकों ने अपनी बिगड़ी स्थिति जल्दी संभाल ली हो, लेकिन सामान्य बुनकर इसमें असफल रहे। चूंकि बुनकर असंगठित क्षेत्र में हैं, इसलिए उनके नुकसान का सही अंदाज़ा लगाना भी मुश्किल है। 

यह भी पढ़ें : उत्तर प्रदेश : बदलता समाजवाद और विकल्पहीन होते मुसलमान

अगर बुनकरी से जुड़े लोगों का बैकग्राउंड देखा जाये तो यह उत्तर प्रदेश में पिछड़े लोगों की रोज़ी-रोटी का साधन है। पसमांदा तबक़ा इसमें ज़्यादा लगा हुआ है एवं अन्य लोग भी इससे जुड़े हैं। इन्हें जुलाहा, अंसारी और मोमिन अंसार आदि के नाम से सरकारी दस्तावेज़ में हैं। किसानों की तरह इनके पास कोई असरदार संगठन नहीं है। पहले हर बुनकर बाहुल्य इलाक़ों मे बुनकरों के स्थापित रहनुमा थे लेकिन अब नदारद हैं। ऐसा क्यों और कैसे हुआ? यह अलग बहस का मुद्दा है।

आपदा और अवसर के दरमियान बुनकर

बुनकरों का भविष्य अभी की स्थिति में मायूसी भरा है। सरकारी संरक्षण के बिना इस तबक़े के हुनर को बचाना मुश्किल है। यूं तो अलग-अलग विचारधारा के दलों ने सरकार की बागडोर बारी-बारी संभाली है। कमोबेश सबने यह आश्वासन दिया है कि वह बुनकरों की समस्याओं को हल करेंगे। उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की मार झेल रहे इस तबके के पुश्तैनी कार्य को संरक्षण मिलेगा। लेकिन सच यह है कि इस सिलसिले में सही तरह से अब तक प्रयास नहीं हुआ है। सरकारों ने इस संबंध में कोशिश भी की है तो उनका दायरा बड़े मिल मालिकों तक ही महदूद रहा।

आज भी यह तबक़ा बदहाल है। छोटे स्तर पर काम करने वाले बुनकर पूछ रहे हैं कि क्या आधुनिकीकरण के द्वारा उनके रिवायती हुनर को बढ़ावा दिया जायेगा? क्या मशीनों को आधुनिक बनाने के क्रम में उनकी छोटी यूनिट को भी सरकारी अनुदान मिलेगा? बुनकरों के बच्चों को आस पास के केन्द्रीय स्कूलों एवं नवोदय स्कूलों में आरक्षण दिया जायेगा? बुनकर तबक़े की औरतों का सवाल भी बहुत अहम है। औरतें यहां अपने पूरे वजूद के साथ मौजूद हैं। बुनकर तबक़े की औरतें बुनाई में बराबर की हिस्सेदार हैं। यह औरतें अमूमन सेहतमंद नहीं हैं। इन औरतों को एनीमिया और दूसरे रोग आमतौर पर हैं। इसलिये स्वास्थ्य विभाग की योजनाओं में बुनकर तबक़े की औरतें कैसे शामिल होंगी, इसे भी देखना होगा।

यह संदर्भ बुनकरों को हौसला देते हैं। यह हौसला सरकार से वाबस्ता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोरोना से प्रभावित उद्योगों को 20 लाख करोड़ रुपए के पैकेज में मदद का ऐलान किया है ताकि नुक़सान की भरपाई हो सके एवं कारोबार पटरी पर आए। क्या यह अच्छा नहीं अच्छा होता कि प्रधानमंत्री इसमें से कुछ हिस्सा छोटे यूनिटों के मालिक बुनकरों के लिये भी तय कर देते। “आपदा को अवसर” में बदलने का नारा दे रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बुनकरों को भी उम्मीद है। इस सिलसिले में नेक नियति से की गयी कोशिश मोदी जी और बुनकरों के रिश्तों को एक नया मोड़ दे सकती है।

(संपादन : नवल)

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लेखक के बारे में

जुबैर आलम

जुबैर आलम जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में शोधार्थी हैं तथा स्वतंत्र रूप से विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर लेखन कार्य करते रहे हैं

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