महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण का मामला एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया है। सुप्रीम कोर्ट ने बीते 9 सितंबर 2020 को इस मामले को बड़ी खंडपीठ को सौंपने का निर्णय लिया था तथा फैसला आने तक महाराष्ट्र में मराठाओं को सरकारी नौकरियों व उच्च शिक्षण संस्थानों में मिलने वाले आरक्षण पर रोक लगा दी थी। महाराष्ट्र के अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के बुद्धिजीवी व सामाजिक कार्यकर्ता यह मांग कर रहे हैं कि मराठा आरक्षण को ओबीसी कोटे से अलग रखा जाय।
दरअसल, सुप्रीम कोर्ट में महाराष्ट्र सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण (एमएसईबीसी) अधिनियम, 2018 को इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि मराठाओं को 16 प्रतिशत आरक्षण देने से इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार (1993) मामले में निर्दिष्ट आरक्षण की अधिकतम सीमा का उल्लंघन होता है। सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति एल. नागेश्वर राव, हेमंत गुप्ता और एस. रवीद्र भट की खंडपीठ ने इस मामले में सुनवाई के दौरान कहा कि अब इस मामले की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट की बड़ी खंडपीठ करेगी। मुख्य न्यायाधीश एस. ए. बोबडे इस खंडपीठ के अध्यक्ष होंगे।
पहले जातिगत जनगणना, फिर उपवर्गीकरण और तब आरक्षण पर हो विचार
इस सन्दर्भ में 23 सितंबर, 2020 को पूर्व राज्यसभा सांसद व ओबीसी नेता हरिभाऊ राठौड़ ने दूरभाष पर फारवर्ड प्रेस को बताया कि मराठाओं को ओबीसी में शामिल नहीं किया जाना चाहिए। यह गलत है। महाराष्ट्र में मराठा न तो सामाजिक रूप से पिछड़े हैं और न ही धन-संपत्ति के मामले में। राजनीति में भी उनकी पकड़ है। उन्होंने कहा है कि इसके बावजूद भी यदि सरकार मराठाओं को आरक्षण देना ही चाहती है तो वह सबसे पहले तमिलनाडु सरकार की तर्ज पर पिछड़े वर्गों की जनगणना कराए और तदोपरान्त मंडल कमीशन की अनुशंसा के अनुसार आरक्षण दे।

गौरतलब है कि महाराष्ट्र में ओबीसी को 32 फीसदी आरक्षण हासिल है। राठौड़ के मुताबिक एक बार जातिगत जनगणना हो जाय तो यह साफ हो जाएगा कि वर्तमान में महाराष्ट्र में ओबीसी, जिनमें घुमंतू व खानाबदोश जातियां भी शामिल हैं, की कितनी आबादी है। फिर यदि सरकार कुनबी व मराठाओं को इनमें शामिल करना चाहती है तो वह उन्हें उनकी आबादी के हिसाब से आरक्षण दे सकती है। उन्होंने यह भी कहा कि ओबीसी का उपवर्गीकरण भी किया जाना ज़रूरी है ताकि आरक्षण का लाभ उन्हें अधिक मिले जो अपेक्षाकृत अधिक पिछड़े हैं।
मराठाओं को फड़णवीस ने भटकाया
उन्होंने पूर्ववर्ती देवेंद्र फड़णवीस सरकार और केंद्र सरकार पर मामले को अटकाने का आरोप भी लगाया। उन्होंने कहा कि इस मामले में मोदी सरकार ने भूल की है और तत्कालीन फडणवीस सरकार ने महाभूल की है। उन्होंने कहा कि 2018 में केंद्र ने संविधान संशोधन कर सामाजिक व शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के आरक्षण के लिए 342 (अ) अनुच्छेद बनाया, जिसके तहत राज्य सरकार से अधिकार छीन लिए गए। यह अधिनियम 11 अगस्त, 2018 को लागू हुआ। इसके बाद 30 नवंबर, 2018 को तत्कालीन फडणवीस सरकार ने मराठाओं को 16 फीसदी आरक्षण देने का कानून बनाया। यह केंद्र सरकार की भूल और तत्कालीन फडणवीस सरकार की महाभूल थी।

राठौड़ के मुताबिक, “जब 2017 में 123वां संविधान संशोधन विधेयक राज्यसभा में पेश किया गया था तब जनता से सुझाव और आपत्तियां आमंत्रित की गईं थीं। उसी समय मैंने संशोधन का सुझाव दिया था क्योंकि विधेयक में राज्य सरकारों को अधिकार से वंचित किया जा रहा था. परंतु, मेरे सुझाव पर राज्यसभा की तदर्थ समिति ने गंभीरता से विचार नहीं किया”। उन्होंने यह भी कहा कि अधिनियम के संबंध में वस्तुस्थिति से अवगत कराने के लिए उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखा है।
बहरहाल, राष्ट्रीय ओबीसी महासंघ के अध्यक्ष डॉ. बबनराव तायवडे भी मानते हैं कि मराठा समुदाय को ओबीसी में शामिल नहीं किया जाना चाहिए। यदि सरकार मराठाओं को आरक्षण देना ही चाहती है तो उन्हें पृथक रूप से आरक्षण दे। ओबीसी के युवाओं की हकमारी न करे। उन्होंने बताया कि इस संबंध में एक ज्ञापन भारत सरकार को महासंघ की तरफ से भेजा गया है।
बहरहाल, मराठा आरक्षण पर फंसी कानूनी लड़ाई अब दिलचस्प दौर में पहुंच गयी है। अब इस मामले में सभी को सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ द्वारा होने वाली सुनवाई का इंतजार है। यह सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर ही निर्भर करेगा कि राज्यों को अपनी तरफ से ओबीसी की श्रेणी में किसी जाति को शामिल करने का अधिकार मिलेगा या नहीं।
(संपादन : अनिल/अमरीश)
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