पुस्तक समीक्षा
भारतीय समाज के सच को जानने-समझने के लिए उनकी पीड़ा को समझना आवश्यक है जो समाज के अंतिम पायदान पर हैं। या कहिए कि हाशिए पर हैं। वाल्मीकि समाज, जिसे कई संबोधनों से पुकारा जाता है, की पीड़ा और वेदना की साहित्य जगत के विमर्श में कम ही उपस्थिति रही है। इस समय जब पूरी दुनिया का समाज बदल रहा है और भारत में भी लोग अपने पारंपरिक पेशों को छोड़ कर विकास की मुख्यधारा में शामिल हो रहे हैं तब भी वाल्मीकि समाज के लोग अपने पारंपरिक पेशे को चुनने के लिए मजबूर हैं। यह पारंपरिक पेशा है हाथ से मैला साफ करना और गंदे नाले-नालियों और सड़कों की सफाई करना। ऐसे में यह आवश्यक हो जाता है कि इस समाज की पीड़ा लोगों के संज्ञान में लाया जाए ताकि उनके मसलों पर विचार-विमर्श हो। युवा रचनाकार और कवि नरेंद्र वाल्मीकि द्वारा संपादित पुस्तक “कब तक मारे जाओगे” इसी मकसद की प्राप्ति हेतु की गई एक पहल है। उन्होंने वाल्मीकि समाज के कवियों द्वारा लिखी जा रही समकालीन कविताओं को चुनकर एक संकलन के रूप में प्रकाशित किया है।
इस संकलन में कुल 62 कवियों की 129 कविताएं शामिल हैं। किताब के संदर्भ में दलित साहित्यकार जयप्रकाश कर्दम ने कहा है “सत्ता एवं संपदा पर काबिज प्रभु वर्ग द्वारा धर्म के नाम पर किसी समुदाय को जन्मना अस्पृश्य घोषित कर उसे मल-मूत्र ढोने और सफाई कार्य करने के लिए बाध्य करना किसी भी सभ्य समाज के मस्तक पर एक बड़ा कलंक हैं।” उनकी यह टिप्पणी किताब के मकसद को स्पष्ट कर देती है। वाल्मीकि समाज के लोग अब बदलाव चाहते हैं। वे नारकीय जीवन से मुक्ति चाहते हैं।
इसी भावना की मुखर अभिव्यक्ति संकलन के संपादक नरेंद्र वाल्मीकि द्वारा लिखे गए संपादकीय में होती है। वे लिखते हैं “सफाई कर्मियों के मात्र पैर धो देने से इस वर्ग का भला नहीं हो सकता है साहब! इस समाज के सर्वांगीण विकास पर भी ध्यान देना होगा।” जब वे ऐसा कहते हैं तो निश्चित तौर पर वे हिन्दुस्तान की हुकूमत को बताना चाहते हैं कि अब आडंबरों से काम नहीं चलेगा। यह वाल्मीकि समाज अब अपने अधिकारों को लेकर जागरूक हो रहा है।
संकलन में शामिल कविताएं इस समाज के अलग-अलग मुद्दों को सामने लाती हैं। मसलन, डॉ. महेंद्र बेनीवाल अपनी कविता ‘कब तक मारे जाओगे’ के जरिए समाज से डॉ. आंबेडकर के बताए मार्ग पर चलने का आह्वान करते हैं –
ठीक है तुम्हारा जन्म तुम्हारे बस में नहीं.
पर यहाँ जन्म लेने की सजा/ कब तक पाओगे
कब तक झाड़ू ही लगाओगे /सीवरों में दम घुटने से
तुम कब तक मारे जाओगे.
सच तो यही है कि सत्ता और प्रशासन तंत्र कोई भी हो उन्हें देश के इस सबसे उपेक्षित तबके की आवश्यकता केवल अपने मतों की संख्या में वृद्धि करने के लिए होती है। चुनाव के बाद उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया जाता हैं। सम्मानजनक पेशों के अभाव में ये समुदाय अपने पर जबरन थोपी गई जातीय पहचान के साथ जीने को मजबूर हैं। यहां तक कि कोरोना जैसी महामारी के दौर में सफाई कर्मचारियों को भले ही कोरोना योद्धाओं में शामिल किया गया हो, लेकिन वास्तविकता यह थी कि उन्हें मौत के मुंह में धकेला जा रहा था। किताब की खासियत इसमें शामिल चित्र हैं। एक तस्वीर पृष्ठ संख्या आठ पर है। इसमें एक सफाई कर्मचारी पिता अपने बच्चे को स्कूल की और ले जा रहा है और उसके पैरों में पड़ी पुश्तैनी पेशे की बेड़ी को कलम के प्रहार से टूटते दिखाया गया है। इस चित्र के चित्रकार हैं युवा कवि शिवा वाल्मीकि।

एक और बात तो इस किताब को अलग करती है, वह यह कि इस संग्रह की कविताएं केवल सदियों से अभिशप्त जीवन का आर्तनाद या विलाप भर नहीं हैं, बल्कि वे आधुनिक सोच लिए हुए एक स्वच्छ समतामूलक समाज की कल्पना को साकार करने की इच्छाशक्ति को प्रतिबिंबित करतीं हैं। एक और खासियत इसका अपना शिल्प है। हालांकि भरपेट खाकर अघाए उन लोगों को इस संग्रह से निराशा हो सकती है जो शिल्प सौंदर्य के आदी हैं। दरअसल, देश के भिन्न-भिन्न राज्यों से वाल्मीकि समुदाय के कवियों का साझा संकलन होने के कारण भाषा, शैली और शिल्प मौलिक स्वरूप में है। इसमें देशज और तद्भव शब्द महत्वपूर्ण हैं।
संग्रह में वाल्मीकि समाज की महिला रचनाकारों की रचनाएं शामिल हैं। वहीं अनेक पुरूष कवियों ने भी उनके सवालों को रखा है। उदाहरण के लिए डी. के. भास्कर की कविता ‘एक रोटी के एवज में’ इसे ऐसे बयां किया गया है –
दाई बनकर जनाती है बच्चे
नाभि-नाल काटती है, नहलाती है
मुँह में उंगली डाल, साफ़ करती है गला
बाद में वही बड़ा होकर, साफ़ करवाता है गाला
उसे गाली देकर …
इससे भी आगे की घृणा और कुंठित मनोवृति की आसान शिकार होती हैं, इन सेठ ,साहूकारों के घरों में काम करने वाली महिलाएं जिनके दर्द को अन्य नामों से पुकार कर इनसे घृणा करने वाले को इनका बलात्कार करते हुए किसी प्रकार की छूत महसूस नहीं होती। दलित स्त्रियों की इस पीड़ा को इसी संग्रह में प्रकाशित दलित कवि हसन रजा की ‘साहूकार’ नामक कविता से समझा जा सकता है –
उसके घर की सफाई तो मैं
कर देती हूँ
पर उसकी उन नज़रों का मैल
साफ़ नहीं कर पाती
जो पोंछा लगते वक्त मेरे सीने पर
और झाड़ू लगते वक्त
मेरे पिछवाड़े पर टिकी रहती हैं
ये सब झेलते हुए भी
दुनिया वाले हम पर ही
कहर ढाते हैं
हमें कचरे वाली
और उन्हें साहूकार बुलाते हैं
इस प्रकार कविता संग्रह ‘कब तक मारे जाओगे’ की कविताओं को पढ़ते हुए हम कह सकते हैं कि अलग-अलग कवियों की कविताएं होते हुए भी इन कविताओं के आतंरिक विषय में काफी समानता है। किसी को यह एक विषय का दोहराव भी लग सकता है, किन्तु इन कविताओं का एक दूसरा महत्वपूर्ण एवं सकारात्मक पक्ष भी है और वह है कि ये कविताएं नहीं, बल्कि सफाई कर्म से जुड़े समुदाय की पीड़ागाथा है।
समीक्षित पुस्तक : कब तक मारे जाओगे (काव्य संग्रह)
संपादक : नरेंद्र वाल्मीकि
प्रकाशक : सिद्धार्थ बुक्स, दिल्ली
मूल्य : 120 रुपए
(संपादन : नवल/अमरीश)