बिहार चुनाव विश्लेषण
जाति, भारतीय सामाजिक व्यवस्था की एक सच्चाई है। भले ही पार्टियां दावा करें कि वे जाति की राजनीति नहीं करतीं लेकिन सच्चाई यह है कि सभी के लिए जाति महत्वपूर्ण है। जाति के बाद सबसे महत्वपूर्ण है धर्म। हालिया बिहार विधानसभा चुनाव में यह एक बार फिर यह साबित हुआ और इसमें बाजी मारी भाजपा ने। धार्मिक तुष्टिकरण के साथ साथ जातिगत समीकरणों ने उसे दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बना दिया है और अब वह नीतीश कुमार के साथ मिलकर एक बार फिर सत्ता में है। खास बात यह कि यह राजनीति केवल बिहार में ही नहीं बल्कि मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश और गुजरात में हुए उपचुनावों में भी भाजपा की सफलता का सबब बनी।
बिहार चुनाव परिणाम समझने के लिए वहां के विभिन्न दलों के सामाजिक आधार को समझना आवश्यक है। मसलन, नीतीश कुमार के आधार वोट में सबसे बड़ी हिस्सेदारी उनकी अपनी जाति कुर्मी की है जो बिहार में पिछड़ा वर्ग में शामिल है। उनके आधार वोटरों में महतो जाति के लोग भी हैं। इनके अलावा अति पिछड़ा वर्ग की जातियों के वोटों में भी नीतीश कुमार की हिस्सेदारी है। जबकि इस बार के विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी जनता दल यूनाईटेड (जदयू) को पीछे छोड़ने वाली भाजपा का वोट बैंक राजपूत, ब्राह्मण, भूमिहार, कायस्थ और वैश्य जातियां हैं। वहीं राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के आधार समूहों में मुख्य तौर पर हैं यादव और मुसलमान। अब मुसलमानों के वोट बैंक में ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम ने भी अपनी पकड़ मजबूत की है। इस पार्टी के पांच विधायक निर्वाचित हुए हैं। इस जीत के साथ ही ओवैसी अब महाराष्ट्र और तेलंगाना के बाद बिहार में पैठ बनाने में कामयाब हुए हैं। जबकि कांग्रेस का स्वयं का आधार वोट है ही नहीं। उसे केवल गठबंधन का लाभ मिलता है। अब न तो मुसलमान उसके साथ हैं और ना ही वह सवर्णों की पार्टी है। कांग्रेस की यह हालत इसीलिए हुई है क्योंकि वह एक साथ हिंदू और धर्मनिरपेक्ष दोनों बने रहना चाहती है।

बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर के बाद कांशीराम ने भारत की राजनीति में बदलाव लाने के लिए आंदोलन चलाया। उन्होंने बामसेफ के संसाधनों से दलितों और पिछड़ों को बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के बैनर तले एक साथ लाकर उन्हें राजनीतिक रूप से सशक्त किया। लिहाजा उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, बिहार, दिल्ली, महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश में उन्हें सफलता प्राप्त हुई। लेकिन उनके बाद बसपा की राजनीति सिमटती चली गई। बसपा की सोशल इंजीनियरिंग सत्ता प्राप्ति के लिए किया गया ढोंग था जिसका सीधा फायदा भाजपा ने उठाया। बसपा के पिछड़े और अन्य पिछड़ों वर्गों के वोट बैंक में उसने सेंध लगा दी। भाजपा ने हर जाति का प्रकोष्ठ बनाकर उसे अपने साथ जोड़ लिया जो उसके कोर वोटबैंक से मिलकर उसके लिए विजय का अंकगणित पूरा करते हैं।
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दूसरी ओर ओबीसी राजनीति संक्रमण का शिकार हो रही है। बिना किसी ठोस विचार के नई पार्टियों का निर्माण किया जा रहा है। इससे ओबीसी की राजनीति अंदर से खोखली हो रही है। इसका लाभ भी द्विज वर्गों को मिल रहा है जो भाजपा के साथ एकजुट हैं और देश में डॉ. आंबेडकर का संविधान हटाकर मनु का संविधान लागू करना चाहते हैं।
धार्मिक तुष्टिकरण कर हिंदुओं को भय एवं भ्रम में रखना संघ और भाजपा की रणनीति रही है। हिंदू–मुस्लिम, लव जिहाद, पाकिस्तान, गोरक्षा आदि भाजपा के स्थाई मुद्दे बन गए हैं। चुनाव में भाजपा को इनसे फायदा होता है। बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे मुद्दे धर्म और जाति के सामने हार जाते है। उदाहरण के तौर पर बिहार विधानसभा चुनाव को देखा जा सकता है।
अनुसूचित जाति | अनुसूचित जनजाति | अति पिछड़ा | यादव | मुस्लिम | सवर्ण |
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40 | 50 | 50 | 10 | 5 | 60 |
स्रोत : पालिटिकलबाबा डॉट कॉम
बिहार की ओबीसी जातियों में मुख्यतः: कुर्मी, कोइरी और यादव हैं। इनके अलावा, इनमें अति पिछड़ा वर्ग की जातियां भी शामिल हैं। ये सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक विकास के निचले पायदान पर हैं। सारणी-1 के अनुसार ये जातियां भाजपा गठबंधन (एनडीए) की बड़ी वोट बैंक बनकर उभरी हैं। इस बार के चुनाव में भाजपा गठबंधन को एससी के 40 फीसदी तथा एसटी के 50 फीसदी वोट मिले। वही ओबीसी/ईबीसी जातियों के 50 प्रतिशत वोट एनडीए को हासिल हुए। भाजपा की जीत में इनकी भूमिका सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। यह इसके बावजूद कि यह सवर्ण व वैश्य समुदाय की पार्टी रही है। सवर्णों के 60 फीसदी वोट एनडीए को मिले।
जाति/वर्ग | महागठबंधन | एनडीए | एलजेपी | तीसरा मोर्चा | अन्य |
---|---|---|---|---|---|
ब्राह्मण | 15 | 52 | 7 | 1 | 25 |
भूमिहार | 19 | 51 | 3 | <1 | 26 |
राजपूत | 9 | 55 | 11 | 4 | 20 |
इतर ऊंची जातियां | 16 | 59 | <1 | <1 | 24 |
यादव | 83 | 5 | 2 | 3 | 6 |
कुर्मी | 11 | 81 | 3 | <1 | 5 |
कोइरी | 16 | 51 | 6 | 8 | 18 |
अन्य ओबीसी / ईबिसी | 18 | 58 | 4 | 3 | 18 |
रविदास | 34 | 27 | 9 | 13 | 18 |
दुसाध/पासवान | 22 | 17 | 32 | 3 | 27 |
मुसहर | 24 | 65 | 1 | 1 | 8 |
अन्य दलित | 24 | 30 | 4 | 7 | 34 |
मुस्लिम | 76 | 5 | 2 | 11 | 6 |
स्रोत : लोकनीति/सीएसडीएस सर्वे एंव इंडियन एक्सप्रेस, 12 नवम्बर, 2020
दूसरे चार्ट से महागठबंधन, एनडीए एवं तीसरे मोर्चे (बसपा + उपेंद्र कुशवाहा + ओवैसी) को मिले जातीय वोट का प्रबंधन समझा जा सकता है। यादव और मुस्लिम समूह ने अपने वोट महागठबंधन के झोली में डाले। वही ऊंची जातियों, कुर्मी, कोइरी एवं आर्थिक रूप से पिछड़ों ने एनडीए को वोट दिए। रविदास जाति को छोड़ अधिकतर दलितों (मुसहर 65 फीसदी, दुसाध/पासवान 17 फीसदी व अन्य दलितों 30 फीसदी) ने एनडीए को वोट किया। जबकि तीसरे गठबंधन (बसपा+ उपेंद्र कुशवाह + ओवैसी) को केवल रविदास (13 फीसदी), मुस्लिम (11 फीसदी) एंव कोईरी (84 फीसदी) वोट मिले। अन्य दलित जातियों ने इस गठबंधन को ठुकरा दिया। वहीं सीमांचल में मुस्लिम मतदाताओं ने महागठबंधन की बजाय ओवैसी को तरजीह दी।
इस प्रकार, भाजपा हर जाति व समुदाय में अपना सपोर्ट बेस बनाने में सफल हुई है। यह उन सामाजिक न्यायवादी व जनवादी दलों के लिए विचारणीय है जो केवल चुनावी जीत के लिए गठबंधन बनाते हैं। कुल मिलाकर नुकसान तो बहुसंख्यक बहुजनों का ही होता है और इस सत्य से कोई इन्कार नहीं कर सकता।
(संपादन : नवल/अनिल/अमरीश)