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छोटे हों या बड़े, किसान श्रमजीवी ही होते हैं प्रधानमंत्री जी!

भंवर मेघवंशी अपने अनुभवों के आधार पर बता रहे हैं कि तीनों कृषि कानून, जिनका विरोध किसान दिल्ली की सीमाओं पर कर रहे हैं, वे बड़े किसानों से अधिक छोटी जोत व भूमिहीन किसानों के लिए खतरनाक हैं

वित्तीय वर्ष 2021-22 के बजट सत्र के पहले दिन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के अभिभाषण पर धन्यवाद् उद्बोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसान आंदोलन पर तंज कसा। उन्होंने बुद्धिजीवी और श्रमजीवी शब्दों से तुक मिलाते हुये आन्दोलनकारियों की खिल्ली उड़ाते हुये उन्हें आंदोलनजीवी और परजीवी तक कहा। वे इतने पर भी नहीं रूके। उन्होंने देश को आंदोलनों के प्रति सचेत रहने के लिये कहा। इसी भाषण में उन्होंने यह भी बताया कि देश में 12 करोड़ छोटे किसान है, जो न मंडी तक पहुंचते है और ना ही उनको न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से कोई मतलब है। उनके कहने का आशय यह था कि वर्तमान में चल रहा आंदोलन बड़े किसानों का है। छोटे किसानों का इससे कोई लेना-देना नहीं है।

मोदी के इस बयान को किसानों में फूट डालने की एक कोशिश के रूप में देखा जा रहा है। वैसे भी भाजपा और उसकी आईटी सेल ने सदैव ही किसान आंदोलन को आढ़तियों और जमींदारों का आंदोलन बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।

अब सवाल यह है क्या वाकई प्रधानमंत्री मोदी को छोटे किसानों की फ़िक्र है? क्या उनके द्वारा बनाए गए तीनों कृषि क़ानून लघु व सीमांत किसानों को बड़े किसानों के पंजे से मुक्त करने का प्रयास है? क्या पिछले 90 दिन से दिल्ली के विभिन्न सीमाओं पर चल रहे किसान आंदोलन में छोटे और दलित-बहुजन किसानों की सहभागिता नहीं है?

ऐसा कहना तो सरासर ज्यादती ही होगी कि किसान आंदोलन में लघु व सीमांत किसानों की भागीदारी नहीं है। किसी भी आंदोलनस्थल पर जाकर इस सच्चाई का पता लगाया जा सकता है कि किसान आंदोलन को आज समाज के हर वर्ग का समर्थन मिल रहा है। क्या हमें यह बात नहीं याद रखनी चाहिए कि किसान आंदोलन का समर्थन कर रही भूमिहीन दलित ट्रेड यूनियनिस्ट नौदीप कौर को हरियाणा पुलिस ने लगभग एक महीने से जेल में बंद कर रखा है।

राष्ट्रपति के अभिभाषण के धन्यवाद प्रस्ताव पर संसद को संबोधित करते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

मैंने खुद आंदोलन की जगहों पर दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक कार्यकर्ताओं को किसानों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष करते देखा है। जहां तक किसानों का सवाल है तो उनमें भी बड़े, छोटे और भूमिहीन किसान सभी शामिल हैं।

जो व्यापारी वर्ग है, बाज़ार की ताकतें हैं, कार्पोरेट्स के दोस्त हैं, जिनको लुटेरा वर्ग कहा गया था, ऐसे लोग सदैव ही कमेरे वर्ग की मेहनत की मखौल उड़ाते आये हैं और उनका शोषण करके मुफ्तखोरी पर जिंदा रहे हैं। वैसे भी भारत के ब्राहमणवादी चिंतन में श्रम को महत्व देने और सम्मानित करने की परंपरा नहीं रही है। यहां पर जो लोग बाज़ार में दुकानों पर आरामदायक गद्दियों पर बैठकर अथवा धर्मस्थलों में आस्था के नाम पर लूट मचाते हैं, उनको आदर योग्य माना गया है और शिल्पकारों कर्मकारों को कर्महीन कहकर अपमानित किया जाता रहा है। इस संस्कृति के वारिस अगर आज श्रमजीवी किसानों को परजीवी कहकर अपमानित कर रहे हैं तो इसमें कुछ भी नया नहीं है। वे यही करते रहे हैं और आगे भी करेंगे।

मैं दक्षिणी राजस्थान के एक गांव में रहता हूं।मेरे पूर्वज भी किसान थे। मेरे पिता किसान हैं और मेरा पुत्र भी किसान है। मैं भले ही अब सक्रिय रूप से खेती-किसानी में इतना समय नहीं दे पाता हूं, लेकिन मेरा सीधा संबंध खेती से रहा है और आज भी बरक़रार है। हम अपने को सीमांत किसान कह सकते हैं। प्रधानमंत्री की परिभाषा में छोटे किसान! मेरे इलाके में लगभग सारे किसान लघु या सीमांत कृषक ही हैं। शायद ही कोई बड़ा या अमीर किसान होगा। यहां पर किसानों की उपज का पूरा मूल्य नहीं मिल पाता है, क्योंकि कृषि उपज के लिये स्थापित मंडियां ठीक से काम नहीं करती हैं और बाज़ार के लोग किसानों के घर-घर जाकर खरीद कर लेते हैं। अगर सरकार मंडी व्यवस्था को सर्व सुलभ और सुव्यवस्थित कर दे तो हम भी अपनी फसल का उचित मूल्य प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन सरकारों ने हमें बाज़ार के हवाले कर रखा है, जिसके चलते हमें पूरा मूल्य नहीं मिल पाता है। सरकार न्यूनतम मजदूरी की तरह न्यूनतम समर्थन मूल्य क्यों लागू नहीं करती है? क्यों सरकार किसान को बाज़ार के ख़ूनी पंजों के हवाले किसान को करने पर तुली हुई है?

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मेरा यह भी अनुभव है कि अधिकांश किसान जिनके पास छोटी जोत है, वे अपनी आय बढ़ाने के लिये अतिरिक्त खेती बटाईदारी के रूप में ले लेते हैं और उससे अपनी आमदनी बढ़ाते हैं। ऐसे किसान भी हैं जो भूमिहीन हैं, लेकिन सिजारे (सहभागिता) की खेती करते हैं और उससे अपने लिये अनाज उपजाते हैं। वे इन खेतों से चारा लेते हैं जिससे उनके पशु पलते हैं, जिनसे उनको दूध मिलता है। यह भी आय बढ़ाने में सहायक होता है। इस तरह हम देखते हैं कि छोटे-बड़े किसान हों अथवा बटाईदार या कि कृषि मजदूर सब एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं और परस्पर उनकी निर्भरता है। अत: जब बडी जोत के किसान प्रभावित होते हैं तो उनपर आश्रित किसानों पर भी उसका असर पड़ता है।

प्रधानमंत्री द्वारा छोटे किसानों की रहनुमाई का प्रदर्शन और बड़े किसानों को खलनायक के रूप में प्रस्तुत करना कृषि समाज की उनकी कमजोर समझ का तो परिचायक तो है ही, किसान आंदोलन को कमजोर करने की एक विफल कोशिश भी है। किसानों को आंदोलनजीवी और परजीवी कहने वाले मोदी को सोशल मीडिया पर अनेक लोग भाषणजीवी और जुमलाजीवी तक कह रहे हैं। ऐसा कहने के पीछे बहुत सारे कारणों में से एक कारण उनका 8 फरवरी, 2016 में उत्तर प्रदेश के बरेली की किसान सभा में दिया गया वक्तव्य भी है, जिसमें उन्होंने कहा था कि उनका सपना है कि 2022 में किसानों की आमदनी दुगनी हो जाय। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् के एक दस्तावेज के अनुसार, प्रधानमंत्री के सपने को साकार करने के लिये तीस राज्यों व केंद्र शासित क्षेत्रों के 651 कृषि विज्ञान केंद्रों ने 1461 गांव गोद लिए।‘डाउन टू अर्थ’ पत्रिका की एक रिपोर्ट के मुताबिक इन गोद लिये मॉडल गांवों को ‘डबलिंग फार्मर्स इन्कम विलेज’ नाम दिया गया।

सारे देश के किसानों की आय दोगुना करने का सपना इन मॉडल गांवों में ही संभव होता नहीं लग रहा है। अब महज़ एक साल बचा है। दोगुना आय का सपना तो दूर की कौड़ी ही साबित होने जा रही है ,क्या इसे भी महज एक जुमला ही मान लिया जाय? 

दरअसल, मामला विश्वास का है। प्रधानमंत्री की बातों पर इसीलिए किसान भरोसा नहीं कर रहे हैं। मोदी कह रहे हैं कि एमएसपी थी, है, और रहेगी। लेकिन किसान कह रहे हैं कि आपकी जुबान का क्या भरोसा कब फिसल जाये? इससे अच्छा है कि आप एमएसपी का कानून ही बना दें।

इसी तरह लघु व सीमांत किसान भी प्रधानमंत्री की हमदर्दी से खुद को नहीं जोड़ पा रहे हैं। वे भी समझ रहे हैं कि जब बड़े जोत वाले किसान कार्पोरेट्स का मुकाबला करने में सक्षम नहीं है तो उनकी क्या बिसात है बाज़ार में प्रतिस्पर्धा करने की? वैसे भी आज खेती कोई लाभकारी काम तो रह नहीं गया है। अत्यधिक महंगे बीज, कीटनाशक और उर्वरक फसल पकने से पहले ही किसान की कमर तोड़ देते हैं। इसके बाद सिंचाई की सुचारू व्यवस्था का न होना, कभी अतिवृष्टि तो कभी अनावृष्टि। नकद अनुदान में भ्रष्टाचार, एमएसपी की गारंटी का न होना, भंडारण स्थलों का अभाव और कृषि ऋणों की सहज उपलब्धता का न होना। प्राकृतिक आपदाएं और अपनी मेहनत का मोल तक न मिलना किसानों को खेती से विमुख कर रहा है। हालात इतने बदतर है कि बीते दो दशकों में लगभग 3 लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। प्रतिवर्ष 15 हजार से अधिक किसानों की आत्महत्याएं राष्ट्रीय शर्म का विषय है। मोदी जी बता पायेंगे कि ये हर साल आत्मघात करने वाले हजारों किसान छोटे हैं या बड़े, या फिर लघु या सीमांत? किसान को किसान के रूप में न देख कर टुकड़ों-टुकड़ों में बांट कर सरकार उनकी मूल समस्या से ध्यान भटकाने पर आमादा है।

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यह तो साफ है कि नये कृषि क़ानून सबसे ज़्यादा लघु व सीमांत किसानों को प्रभावित करेंगेजब बड़े किसानों को कारपोरेट ठेकेदार मिलेंगे तो इन्हें छोटे बटाईदारों की ज़रूरत रहेगी? आने वाला समय खाद्य सुरक्षा के संकट को बढ़ाने वाला होगा। किसानों के आय के अन्य स्रोतों पर पाबंदियों का भी होगा। अभी किसान कृषि के साथ-साथ पशुपालन के ज़रिए भी कमाता है। भेड़-बकरी पालन से नकदी फसलों की भांति फायदा होता है तो गाय-भेंस के दूध से भी उसकी अर्थव्यवस्था सुचारू होती है। पर अब हालात यह है कि सरकार एक से अधिक दुधारू पशु पालने को भी व्यवसायिक डेयरी की श्रेणी में रखेगी और उसके लिये लिया जाने वाला विद्युत कनेक्शन औद्योगिक होगा, जैसा कि उत्तर प्रदेश सरकार ने कर दिया है।

हम जैसे लघु अथवा सीमांत किसानों के लिये सब्जी, अनाज, दूध का उत्पादन परिवार की आजीविका के लिये सहयोगी होता है। लेकिन यह सरकार इन सबको छीनने पर उतारू है। सरकार यह दिखाने की बेशर्म कोशिश में लगी हुई है कि किसान को दिया जा रहा विभिन्न योजनाओं का लाभ देश पर भार है। कृषि क्षेत्र को दिये जा रहे ऋण व अनुदान को सरकार खैरात समझती है। ऐसा विमर्श खड़ा किया जा रहा है जैसे कि किसान सबसे अनुत्पादक समुदाय है। वे आयकरदाताओं के धन पर ऐश कर रहे हैं। क्या किसान कर नहीं चुकाता है? जबकि एक मोटे अनुमान के मुताबिक देश के सकल घरेलू उत्पाद में प्रत्यक्ष आयकर का योगदान महज 5 फीसदी है, जबकि कृषि का सीधा योगदान 16 प्रतिशत और खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों का 14 फ़ीसदी तथा मवेशीपालन व मछली उत्पादन का बीस फीसदी से अधिक। इस तरह हम देखें तो जीडीपी में कृषि व उससे जुड़े क्षेत्रों का योगदान 50 प्रतिशत है। इसमें कृषि उपकरणों यथा ट्रेक्टर निर्माता कंपनियों और कृषि कार्यों में डीजल, पेट्रोल की खपत एवं खेतों की तारबंदी में प्रयुक्त होने वाले सीमेंट पोल्स और कंटीले तारों और लोह अयस्क की बड़ी मात्रा में हो रही खपत सहित अन्य चीज़ों को भी जोड़ दिया जाय तो देश के सकल घरेलू उत्पाद में 70 प्रतिशत योगदान खेती किसानी से जुड़े क्षेत्रों से आता है। फिर भी किसान इनके लिये परजीवी है और जो वास्तव में परजीवी हैं, स्वयं को श्रमजीवी बताने की कोशिश में हैं।

एक किसान होने के नाते इन बरसों में कृषि क्षेत्र में आये बदलावों और चुनौतियों को मैं समझ पाता हूं। दूर बैठे लोगों को कृषि लाभकारी लग सकती है लेकिन आज बीज और खाद पर होने वाले खर्च बहुत बढ़ चुके हैं। इस साल प्याज का बीज पांच हजार रूपए किलोग्राम मिला है। जब हम फसल तैयार करके बेचने जाएंगे, तब उसकी कीमत पांच रूपए किलोग्राम भी नहीं रहेगी। कीटनाशक महंगे तो हैं ही, स्वास्थ्य के लिये बेहद दुष्प्रभावी भी हैं, किन्तु उनका उपयोग नहीं करने पर फसलों को कीड़े चट कर जाते हैं। मैंने दो एकड़ में जैविक नींबू लगाया। चार साल में पहली फसल मिली। उसका बाज़ार भाव रसायनयुक्त नींंबुओं से भी कम मिला। यही स्थिति आलू की है और कपास की भी कमोबेश यही हालत है। लागत निकालना भी मुश्किल हो जाता है, क्योंकि फसल के न्यूनतम समर्थन मूल्य की कोई गारंटी अभी तक सरकार नहीं दे पाई है। 

बहरहाल, बिना किसी आंदोलन या मांग के सरकार ने तीनों कृषि कानून सिर्फ और सिर्फ भारत के कृषि क्षेत्र को कारपोरेट के हाथों में सौंपने के उद्देश्य से बिना विचार-विमर्श के आनन-फानन में पारित करके किसानों पर जबरन लादने का निश्चय कर रखा है। सरकार का यह रवैया बेहद अलोकतांत्रिक है और कृषि व कृषक दोनों के विरोध में हैं। लेकिन सत्ता किसी भी आवाज़ को सुनने को तैयार नहीं है। वह आंदोलन का उपहास उड़ा रही है और प्रतिरोध के हर स्वर को निर्ममता से कुचल रही है।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

भंवर मेघवंशी

भंवर मेघवंशी लेखक, पत्रकार और सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता हैं। उन्होंने आरएसएस के स्वयंसेवक के रूप में अपना सार्वजनिक जीवन शुरू किया था। आगे चलकर, उनकी आत्मकथा ‘मैं एक कारसेवक था’ सुर्ख़ियों में रही है। इस पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद हाल में ‘आई कुड नॉट बी हिन्दू’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। संप्रति मेघवंशी ‘शून्यकाल डॉट कॉम’ के संपादक हैं।

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