साक्षात्कार
बबन रावत को राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग का उपाध्यक्ष मनोनीत किया गया है। इसके पहले वे बिहार महादलित आयोग के सदस्य भी रह चुके हैं। दलितों के हक-हुकूक को लेकर छात्र जीवन से संघर्ष करने वाले बबन रावत से राज वाल्मीकि ने दूरभाष पर खास बातचीत की। प्रस्तुत है संपादित अंश :
कृपया अपने बारे में बताएं और यह कि दलित समाज आगे बढ़े, इसके लिए संघर्ष की यात्रा कब शुरू हुई।
मेरा जन्म बिहार के सिवान जिले के महाराजगंज के भिक्बांध गाँव में दलित परिवार में हुआ। मेरा शुरू से उद्देश्य रहा कि जो जातियां शैक्षणिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से किसी वजह से पिछड़ गई हैं, उन्हें मुख्यधारा से कैसे जोड़ा जाए। उनके संवैधानिक अधिकार क्या हैं। उनके पिछड़ेपन का कारण क्या है तथा उनके पिछड़ेपन को कैसे दूर किया जा सकता है। इन विषयों को केंद्र में रखते हुए मैंने काम शुरू किया।
यह तभी शुरू हो गया था जब मैं छात्र था। आज से तीस-पैतीस साल पहले एक छात्र संगठन से जुड़ा। मैं यह मानता हूं कि देश जब आज़ाद हुआ और बाबासाहेब के नेतृत्व में भारत का संविधान गठित हुआ, वहां तक तो सब कुछ ठीक था। परंतु बाबासाहेब के महापरिनिर्वाण के बाद स्थितियां विषम होती गईं। आंदोलन कमजोर पड़ा। यह इसके बावजूद कि दलित राजनीतिक रूप से मजबूत हुए और कई राज्यों में दलितों के नेतृत्व में सरकारें बनीं। आज भी आप देखें तो दलित समाज शुरू से उपेक्षित रहा है। जो समाज सिर पर मैला ढोने का काम करता था, कुछ जगहों पर हालात बदले हैं लेकिन जहां बदले हैं, वहां उनके हाथों में झाड़ू है। सड़कों, गलियों, नगरों, महानगरों की सफाई करने का काम यह समाज करता है। मैं सिर्फ एक उदाहरण के तौर पर बता रहा हूं। वैसे बहुत सारे समाज उपेक्षित रहे। आप देखें कि नट समाज भी बहुत उपेक्षित रहा है। मुसहर समाज भी उपेक्षित है।
महादलित अभियान के बारे में बताएं।
वर्ष 1995 में महादलित विकास मंच नामक एक संगठन मैंने बिहार में बनाया। तब बिहार और झारखंड एक था। मैंने महादलितों को एक नारा दिया कि –“शिक्षा को हथियार बनाओ, झाड़ू छोड़ो, कलम उठाओ।” यह नारा काफी लाेकप्रिय रहा है। नारे में बहुत ताकत होती है। दस पन्नों में लिखी बात को यह एक वाक्य में कह देता है और ज्यादा प्रभावी होता है। दलित समाज की जो जातियां हाशिए पर थीं, उनका नाम मैंने महादलित रखा अर्थात जो दलितों में दलित हैं। और उन्हें केंद्र में रखते हुए काम करना शुरू किया। उस आंदोलन की परिणति हुई कि बिहार के महादलित समुदायों में चेतना आई तथा बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी ने महादलितों के लिए देश का पहला महादलित आयोग का गठन सितंबर, 2007 में किया। उससे पहले इन बिन्दुओं पर उनकी हमसे चर्चा हुई थी। उन्होंने कहा था कि यह समता मूलक समाज बनाने की लड़ाई है और इस दिशा में हम काम करेंगे।
सच कहूं तो मुझे दूर-दूर तक इस बात का अहसास नहीं था कि हमारी लड़ाई सरकार की नजर में आ जाएगी। मुझे इस बात का अहसास भी नहीं था कि एक दिन मैं आयोग का सदस्य बनूंगा।
महादलित आयोग का सदस्य बनने के बाद आपने महादलितों के लिए क्या किया?
उस दौरान महादालितों के बारे में रिपोर्ट तैयार करने के लिए बिहार का दौरा किया। महादलितों की बस्ती में जाकर लोगों से बात की। महादलितों की पीड़ा-परेशानी समस्याएं, उनकी क्या जिंदगी है और वे कैसे जीते हैं, क्या खाते हैं तथा उनका घर कैसा है, उनका बिछावन कैसा है। मैंने उनके घरों में घुस-घुस कर देखा। मैं तो उसी समाज से आता हूं। वह रिपोर्ट हम लोगों ने तैयार करके राज्य सरकार को दिया।
उस रिपोर्ट का क्या प्रभाव पड़ा?
उस रिपोर्ट पर बिहार में बहुत काम हुआ है। करीब 30 हजार टोला सेवक, 10 हजार विकास मित्रों की बहाली महादलित आयोग की अनुशंसा पर हुई। लगभग पौने दो लाख महादलितों को 3 डिसमिल से 5 डिसमिल तक जमीन आवंटित हुई। उसमे उनके इंदिरा आवास बने। सफाई कर्मचारियों के पुनर्वास के लिए केंद्र सरकार राज्यों को पैसा देती है। गंदे पेशे से विमुक्ति के लिए। हमारे यहां बिहार में 40 करोड़ रुपए दिए गए थे। तब इस राशि का उपयोग समाज कल्याण विभाग के अनुसूचित जाति सहकारिता विकास निगम के तत्वावधान में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के निर्देश पर सफाई कर्मचारियों के लिए बड़ा कार्यक्रम कराया गया। यह आयोजन पटना के सबसे बड़े सभागार श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल में हुआ था।
बिहार में सफाई कर्मचारी आन्दोलन द्वारा 7, 737 मैला ढोने वालों का डेटा राज्य समाज कल्याण विभाग में दिया गया था। पर उनका पुनर्वास नहीं हो पाया। क्या कारण रहा? इतना ही नहीं , बिहार में 1993 से अब तक 49 लोगों की सीवर/सेप्टिक टैंक की सफाई करने के दौरान मौत हुई। सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार उनके आश्रितों को 10-10 लाख का मुआवजा मिलना चाहिए था। पर किसी को नहीं मिला। क्यों?
देखिए, ज्यादातर सरकारी अधिकारियों की मानसिकता भी जातिवादी होती है। उच्च पदों पर अधिकतर वे ही होते हैं। ऐसे में इन मामलों पर जितना ध्यान दिया जाना चाहिए नहीं दिया जाता। ऐसे में समाज के लोगों को ही जागरूक होने की जरूरत है। बाबासाहेब ने भी यही कहा है कि अधिकार मांगने से नहीं मिलते, छीनने पड़ते हैं।
मैला ढोने वालों को लेकर 1993 में और 2013 में दो क़ानून बन चुके हैं। पर उनका कार्यान्वयन ठीक से नहीं हो पा रहा है। क्या लगता है आपको?
आपकी बात सही है। परंतु जैसा कि मैंने पहले ही कहा कि जातिवादी मानसिकता समाज और राजनीति दोनों में काम करती है। परंतु अब देखिए कि मैंने पदभार संभालते ही काम शुरू कर दिया है। अभी जब आपसे बात हो रही है तो उत्तर प्रदेश में जमीनी दौरा करने जा रहा हूं। स्थिति का जायजा लेने के बाद यथोचित कदम उठाऊंगा।
सुप्रीम कोर्ट के 27 मार्च, 2014 के आदेश का पालन नहीं हो पा रहा है जिसमे कहा गया है कि मैनुअल स्केवेंजरों का सर्वे कर उनका पुनर्वास कर दिया जाए। यदि वे बेघर हों तो उन्हें आवास प्रदान किया जाए । आप इसके पीछे क्या कारण देखते हैं?
देखिए पहले की तो मैं नहीं कह सकता। परंतु अब मैं दौरे पर निकला हूं। सफाई कर्मचारियों का पुनर्वास हो या आवास सभी के लिए समुचित उपाय करूंगा।
एक तरफ देश में स्वच्छ भारत अभियान चल रहा है। दूसरी और देश में अभी भी मैला ढोने जैसी अमानवीय प्रथा भी जारी है। इसकी क्या वजह मानते हैं?
निश्चित तौर पर यह शर्मनाक है। सिर पर मैला ढोने जैसी अमानवीय प्रथा के लिए हम सिर्फ सरकार को ही दोष नहीं दे सकते। हमें स्वयं भी जागरूक होना होगा। हमें इस तरह की मानसिकता मैला ढोने वालों में विकसित करनी होगी कि यह गंदा काम है और इस काम ही वजह से ही समाज हमें सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता है। हमें खुद अपने समाज को जागरूक बनाना होगा। स्वच्छ भारत अभियान अपनी जगह सही है परंतु सरकार और समाज में इतनी संवेदनशीलता नहीं है कि मैला प्रथा गैरकानूनी होने के बावजूद इसका संपूर्ण उन्मूलन हो जाए। इसके लिए हमें ही इस गंदे काम से स्वयं मुक्त होने की पहल करनी होगी। वैसे राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग का उपाध्यक्ष होने के नाते मैं प्रयास करूंगा कि न केवल मैला प्रथा का उन्मूलन हो बल्कि हमारा सफाई कर्मचारी समुदाय इज्जतदार पेशा अपनाकर इज्जत का जीवन व्यतीत करे।
अब आपकी कार्ययोजना क्या है?
जी बिल्कुल। मैंने पहले ही कहा कि मैंने अपना काम शुरू कर दिया है। सबसे पहले तो मैं जमीनी दौरा कर स्थिति का जायजा ले रहा हूं। फिर एक रिपोर्ट तैयार करूंगा। मुझे लगता है कि सफाई कर्मचारियों के पुनर्वास के लिए कैंप लगाना जरूरी है। कानून का क्रियान्वयन जरूरी है। मैं तो महादलितों के उत्थान के लिए समर्पित हूं। पहले भी काम किया है। आज भी कर रहा हूं और भविष्य में भी करता रहूंगा।
(संपादन : नवल)
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