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जाति ने छुड़ाया खेल तो बहुजन नौजवान संजीत बर्मन ने बना ली अलग राह

करीब 34 साल के संजीत बर्मन ताइक्वांडो के खिलाड़ी थे। जूनियर वर्ग में उन्होंने राष्ट्रीय प्रतियोगिता में छत्तीसगढ़ का प्रतिनिधित्व किया। लेकिन ऊंची जाति के एक कोच ने उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर खेलने ही नहीं दिया। परंतु संजीत ने हार नहीं मानी। उन्होंने जाति के विनाश का संकल्प लिया। पढ़ें, उनका यह खास साक्षात्कार

[कभी खेल के क्षेत्र में उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वाले संजीत बर्मन, छत्तीसगढ़  के बिलासपुर में दलित-बहुजनों से संबंधित  आयोजनों के केंद्र में रहते हैं। वे आयोजन स्थलों पर दलित-बहुजनों से जुड़ी किताबें भी बेचते हैं। लेकिन इसके पहले उन्होंने शिक्षक की सरकारी नौकरी  से त्यागपत्र दे दिया। संजीत बर्मन से नवल किशोर कुमार की खास बातचीत  के संपादित अंश]

संजीत जी, कृपया  हमें अपने बारे में बताएं।

मेरा जन्म 1 जनवरी, 1986 को छत्तीसगढ़ (तब मध्यप्रदेश का हिस्सा) के मुंगेली के एक सतनामी परिवार में हुआ था। उस समय यह बिलासपुर जिला में था, लेकिन अब यह एक अलग जिला है। मेरे गांव का नाम छिरहुट्टी है जो लोरमी तहसील में आता है। मेरी मां का नाम उषा बर्मन और पिता का नाम टीकाराम बर्मन है। मैं अपने माता-पिता की  सबसे छोटी संतान हूं। मुझसे बड़े एक भाई और दो बहनें हैं।

आपकी पढ़ाई-लिखाई कहां हुई?

पांचवीं तक की मेरी पढ़ाई तो मेरे मामा के गांव (ननिहाल) बिजराकापा के स्कूल में हुई। दरअसल, मेरे गांव में भी सरकारी स्कूल था लेकिन वहां के शिक्षक शराब पीकर बदमाशी करते थे। मेरे माता-पिता शिक्षा के प्रति जागरूक थे, इसलिए उन्होंने मुझे मामा के गांव भेज दिया ताकि मैं वहां रहकर पढ़ सकूं। फिर मैं अपने बड़े भाई इंद्रजीत बर्मन के साथ बिलासपुर चला आया। वहां हम किराए के घर में रहते थे। वहीं से मैंने छठी से लेकर स्नातक तक की पढ़ाई की।

यादों में ताइक्वांडो : एक अखबार में संजीत बर्मन की उपलब्धियों के संबंध में खबर

खेल के प्रति रूझान कैसे हुआ?

मैं अपने बड़े भाई के साथ किराए के जिस घर में रहता था, वहां  का रास्ता एक पुलिस कैंप से होकर गुजरता  था। वहां एक स्टेडियम है। मैं रोज लोगों को खेलते देखता था  जिससे खेल में मेरी रूचि  जागी। एक दिन इंडोर स्टेडियम में बच्चे ताइक्वांडो का अभ्यास कर रहे थे। मैंने भी खेलना चाहा।  जानकारी ली तो  पता चला कि दो सौ रुपए का शुल्क देकर मैं खेल सकता हूं। लेकिन यह आसान नहीं था। पिताजी को कहता तो  वे शायद मुझे खेलने ही नहीं देते। उनका पूरा जोर शिक्षा पर था। परंतु, मुझे तो ताइक्वांडो खेलना था। इसलिए दो सौ रुपए  की जुगाड़ करके मैंने दाखिला ले लिया।

खेल के क्षेत्र में आपने राज्य स्तरीय प्रतियोगिताओं के अलावा राष्ट्रीय स्तर पर भी प्रतियोगिताओं में भाग लिया?

हां, मैंने जूनियर वर्ग में 1999 में पहली बार मध्यप्रदेश का प्रतिनिधित्व राष्ट्रीय स्तर पर किया। इसके पहले राज्य स्तर की प्रतियोगिताओं में मैं जीतता रहा था। फिर 2003 से राष्ट्रीय प्रतियोगिता में भाग लेना शुरू किया। 

संजीत बर्मन एक प्रदर्शन के दौरान

लेकिन  आप  खेल के क्षेत्र में आगे नहीं जा सके। इसकी वजह क्या रही?

 एक घटना ने मुझसे मेरा खेल तो छीन लिया लेकिन मेरे  जीवन के मायने बदल  दिए। हुआ  यों कि मैं सीनियर वर्ग में खेलना चाहता था। बहुत सारे खिलाड़ी ऐसे भी होते हैं जो फर्जी जन्म प्रमाणपत्र के आधार पर सीनियर होने के बावजूद जूनियर वर्ग में बने रहते हैं। लेकिन मैं उनसे अलग था। मैं सीनियर वर्ग में खेलना चाहता था। एक  राज्य स्तरीय प्रतियोगिता होनी थी। मैंने अपने कोच से कहा  कि मुझे सीनियर वर्ग में खेलना है। तब सबने मुझे चेताया कि सीनियर वर्ग में खेलने पर हार हो सकती है।  मैंने कहा कि आज नहीं तो कल सीनियर वर्ग में खेलना ही है। उन्होंने मेरी बात मान ली और मैं पहली बार सीनियर वर्ग में खेला। उस प्रतियोगिता में भी मैं हारा नहीं। यहां तक कि अनेक सीनियर खिलाड़ियों को मैंने हरा दिया।

फिर राष्ट्रीय स्तर पर खेलने के टीम का चयन होना था। मैं सबसे अधिक योग्य उम्मीदवार था। परंतु, मेरे कोच (जो कि ऊंची जाति के थे) ने मेरी जगह अपने भाई को आगे बढ़ा दिया। वे मुझसे गलत ढंग से व्यवहार करते थे। मैं उनसे कहता रहा लेकिन उन्होंने मेरी एक न सुनी। फिर मैंने खेल छोड़ने का फैसला किया। तब मैं जाति भेद को नहीं समझता था। यह तो बाद में अहसास हुआ कि मेरे साथ जातिगत भेदभाव किया गया था। 

फिर क्या हुआ?

मैंने अपनी पढ़ाई फिर से शुरू की और प्रतियोगी  परीक्षाओं की तैयारी करने लगा।  जिन दिनों मैं संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) की परीक्षा की तैयारी कर रहा था तभी प्राथमिक शिक्षक पद  की रिक्तियों की जानकारी एक परिचित ने दी। उनका कहना था कि इस परीक्षा को  देकर तो देखो, अनुभव प्राप्त होगा। तो केवल अनुभव प्राप्त करने के लिए मैंने परीक्षा में हिस्सा लिया। मेरी इच्छा आईपीएस बनने की थी। लेकिन जब परीक्षा का परिणाम आया तब मुझे सफल घोषित कर दिया गया। बाद में शिक्षक के पद पर मेरा चयन भी हो गया।

सामाजिक कार्यों में आपकी रूचि कैसे हुई?

इसके पीछे भी एक घटना है।  बाइक खरीदने की मेरी बड़ी इच्छा थी। चूंकि मैं सरकारी सेवा में था तो मुझे आसानी से लोन मिल गया और मैंने नागपुर से एक बाइक खरीदी। एक बार मेरी बाइक चोरी हो गई। मैंने थाने में  इसकी सूचना दी। फिर लोगों ने बताया कि मेरी बाइक का इंश्योरेंस था, इसलिए इंश्योरेंस कंपनी मुझे मुआवजा देगी और मैं फिर बाइक खरीद सकूंगा। लेकिन इसमें पुलिस के लोगों ने मुझे बहुत परेशान किया। इंश्योरेंस वाले कहते थे कि पुलिस की फाइनल रिपोर्ट के बाद ही मुझे मुआवजा मिल सकेगा। लेकिन पुलिसवाले कुछ  कर नहीं रहे थे। इस चक्कर में मेरी पढ़ाई पूरी तरह से बाधित हो गई।  थाने  के एक अधिकारी ने मेरा आर्थिक दोहन भी किया। वे मुझे किसी होटल में बुलाते और स्वयं अपने परिजनों के साथ खाना खाते तथा बिल का भुगतान मुझसे करवाते। मैं उनके इस आचरण से परेशान हो चुका था। फिर  मैंने स्थानीय पुलिस अधीक्षक से भी कहा  लेकिन उन्होंने भी संज्ञान नहीं लिया। तब मैंने सोचा कि यदि आईपीएस बनकर  यही करना है तो आईपीएस बनना ही क्यों। यह सोचकर मैंने यूपीएससी की तैयारी करना छोड़ दिया।

सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में काम करने की प्रेरणा कैसे और कब मिली?

जैसा कि मैंने पहले बताया, पढ़ाई से मेरा मन उचट चुका था। मेरी शादी 2009 में हो गई।  जब मेरा बच्चा स्कूल जाने लायक हुआ तब मैंने उसका दाखिला अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में कराया क्योंकि वहां अंग्रेजी पढ़ाई जाती है। लेकिन एक शिक्षक होने के नाते मैं ऐसा नहीं करना चाहता था। मैं चाहता था कि मेरा बच्चा भी सरकारी स्कूल में पढ़े। लेकिन सरकारी स्कूलों की बदहाली से मैं स्वयं परेशान था और वहां अंग्रेजी भी नहीं पढ़ाई जाती  थी। मैं उन बच्चों के बारे में भी सोचता था जिन्हें मैं पढ़ाता था। एक तरह से उनके साथ दोहरा व्यवहार हो रहा था । फिर मैंने तय किया कि मैं शिक्षक भी नहीं रहूंगा। मैं अपने समाज के लिए कुछ करना चाहता था। वर्ष 2018 से मैंने स्कूल जाना बंद कर दिया। इसके लिए अवैतनिक अवकाश की अर्जी दे रखी है। इसके पहले वर्ष 2017 में मुझे फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित पुस्तक “जाति का विनाश” पढ़ने को मिली। यह वही किताब है जिसने मान्यवर कांशीराम जी को आंदोलन के लिए प्रेरित किया था। तो  इस तरह मैं भी अपने तरीके से दलित-बहुजन समाज के लोगों को जगाने के प्रयास में जुटा  गया।

 इन दिनों  आप की क्या गतिविधियाँ हैं?

एक तो मैं उन लोगों की मदद करता हूं जो सरकारी अधिकारियों के उत्पीड़न का शिकार होते हैं। इसके अलावा, हमने बिलासपुर में बहुजन साहित्य संस्थान स्थापित किया। इसके जरिए हम दलित-बहुजनों के लिए आवश्यक किताबों की बिक्री करते हैं। साथ ही जागरूकता फैलाने का प्रयास करते हैं।

भविष्य की क्या योजना है?

फिलहाल तो बस इतना ही कि दलित-बहुजन समाज को गोलबंद कर सकूं। उनके अंदर चेतना का विकास हो, इसके लिए प्रयासरत रहूं। कोशिश यह भी है कि बहुजन साहित्य संस्थान को और समृद्ध करूं।

(संपादन : अनिल/अमरीश)


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महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार

लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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