मध्य प्रदेश में आदिवासियों के लिए संवैधानिक प्रावधान पांचवीं अनुसूची का अनुपालन कराने के विरोध में आरएसएस समर्थक गैर-आदिवासी खड़े हो गए हैं। उनकी यह एकजुटता मनावर विधानसभा क्षेत्र से विधायक व जय आदिवासी युवा शक्ति (जयस) संगठन के राष्ट्रीय संरक्षक डा. हिरालाल अलावा के द्वारा मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के इंदौर की खंडपीठ में दायर एक जनहित याचिका के विरोध में सामने आई है।
अपनी याचिका के माध्यम से डा. अलावा ने पांचवीं अनुसूची के अनुपालन के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया है। इसके विरोध में कुछ जातिगत संगठनों ने अदालत में अपने हस्तक्षेपकर्ता नियुक्त किया है। इन संगठनों में मैढ़ क्षत्रिय स्वर्णकार समाज, तीन परगणा क्षत्रिय कुमावत (मारु) समाज विकास समिति, वैश्य महासम्मेलन संगठन, गौड़ मालवीय ब्राह्मण समाज संगठन, राष्ट्रीय राजपूत करणी सेना, बड़वानी-धार मध्यक्षेत्र जाट विकास संगठन, दाउदी बोहरा समाज संगठन, यादव समाज संगठन, क्षत्रिय कुशवाहा समाज संगठन, जाट महासभा, मध्य प्रदेश पाटीदार समाज संगठन, अखिल भारतीय सिर्वी महासभा, नार्मदीय ब्राह्मण समाज संगठन के जिला बड़वानी, धार एवं खरगोन इकाई शामिल हैँ।
विरोधियों का तर्क?
इन संगठनों का मानना है कि संविधान की पांचवीं अनुसूची लागू होने से आदिवासी बहुल क्षेत्रों में उनके सभी अधिकार समाप्त हो जाएंगे। इस संबंध में तीन परगणा क्षत्रिय कुमावत (मारु) समाज विकास समिति, बड़वानी के अध्यक्ष रमेश पटेल कहते हैं कि पांचवीं अनुसूची लागू होने पर हमें यहां से भागना पड़ेगा। हमारी जमीनें छीन ली जाएंगीं और हम बेघर हो जाएंगे।
लेकिन, पांचवीं अनुसूची में ऐसा प्रावधान कहां है कि इसके लागू होने से गैर-आदिवासियों को नुकसान होगा्, यह पूछने पर रमेश पटेल कहते हैं कि हमने ऐसा सुना है। वहीं गौड़ मालवीय ब्राह्मण समाज संगठन के बड़वानी जिला इकाई के अध्यक्ष मनीष पुरोहित कहते हैं कि यदि पांचवीं अनुसूची के प्रावधान लागू हो जाते हैं तो हमारे समस्त अधिकार समाप्त हो जाएंगे। हम जमीन नहीं खरीद सकते। नगरपालिका, पंचायतों इत्यादि में चुनाव नहीं लड़ सकते। नौकरी-कारोबार इत्यादि नहीं कर सकते। इसलिए आदिवासी बहुल क्षेत्रों के समस्त गैर-आदिवासी सशंकित हैं।

आदिवासियों की जमीन गैर-आदिवासी को हस्तांतरण पर निषेध, आदिवासी क्षेत्रों में साहूकारी (ऋण देने) पर रोक एवं नगरपालिका-पंचायतों में आदिवासियों के लिए आरक्षण के प्रावधान पूर्व से लागू हैं, के जवाब में मनीष पुरोहित ने स्वीकार करते कहा कि ये प्रावधान पहले से लागू है, लेकिन पांचवीं अनुसूची लागू होने के बाद हमारे लिए कुछ नहीं बचेगा।
क्या गैर-आदिवासियों के विरोध में है पांचवीं अनुसूची?
याचिकाकर्ता डॉ. हिरालाल अलावा कहते हैं कि पांचवी अनुसूची सवर्ण समाज या किसी भी अन्य समाज के खिलाफ नहीं है। इसमें सिर्फ आदिवासियों की ज़मीन बचाने, उनकी सुरक्षा, संरक्षण और सर्वांगीण विकास के लिए अनुच्छेद 244(1) के तहत संविधान में प्रावधान किया गया है। आदिवासी लोग सीधे-सादे होते हैं। आदिवासियों को बहला-फुसलाकर या अन्य तरीके से उनकी जमीनें छीन ली जाती हैं। संविधान की पांचवी अनुसूची आदिवासियों के लिए सुरक्षा कवच है जो भारत की संवैधानिक व्यवस्था तहत उन्हें मिली है। संविधान में ये प्रावधान इसलिए बनाए गए हैं ताकि आखिर पंक्ति में खड़े आखिरी व्यक्ति को समाज की मुख्यधारा से जोड़ा जा सके। पीढ़ियों से जंगलों मे रहने वाले आदिवासी समाज अपने जल, जंगल और ज़मीन की रक्षा कर सकें।
उन्होंने कहा कि आदिवासियों को मिली संवैधानिक व्यवस्था के खिलाफ गैर-आदिवासी समाजों के लोगों का एकजुट होना दुर्भाग्यपूर्ण है। अब आदिवासी समाज को इस बात पर मंथन करना पड़ेगा। आदिवासी समाज किसी अन्य समाज के अधिकारों कभी विरोध नहीं करता है। फिर हमारे देश की व्यवस्था में आदिवासियों को प्राप्त संवैधानिक अधिकारों के खिलाफ गैर-आदिवासी संगठन क्यों एकजुट हो गए? और इसके लिए आगे की रणनीति क्या होनी चाहिए।
याचिका के विरोध के पीछे आरएसएस का हाथ
बड़वानी जिले के जयस के संगठन प्रभारी डॉ. राजू पटेल कहते हैं कि पांचवीं अनुसूची एक संवैधानिक व्यवस्था है। इसके विरोध के पीछे आरएसएस-भाजपा की नीतियां काम कर रही हैं। विरोध करने वाले संगठनों के अधिकतर लोग आरएसएस से जुड़े हुए हैं। आरएसएस के लोग आदिवासी क्षेत्रों में धर्म के नाम पर लोगों को गुमराह कर रहे हैं और षड्यंत्र के तहत आदिवासियों की संस्कृति, रीति-रिवाजों पर हमला कर रहे हैं। पिछले दिनों बड़वानी के ठीकरी में धर्म-परिवर्तन कराने की अफवाह फैलाकर एक गर्भवती आदिवासी महिला की पेट पर लात मारा गया, जिससे गर्भ में ही बच्चे की मौत हो गई।
राजू पटेल कहते हैं कि हम आदिवासी लोग जब कभी अपने अधिकार या मुद्दों को लेकर आवाज उठाते हैं तो आरएसएस के लोग हम लोगों पर नक्सलवादी होने का आरोप लगाते हैं, ताकि आदिवासी अपने अधिकार के लिए आवाज ना उठा सके। बहुत से बाहरी लोग आदिवासी क्षेत्रों में आदिवासियों की जमीन पर कब्जा किए हैं, उन्हें डर है कि पांचवीं अनुसूची लागू होने से उनकी जमीन चली जाएगी।
क्या है पांचवीं अनुसूची
भारत सरकार को यह सुनिश्चित करना अनिवार्य है कि देश के सभी वर्गाें को विकास परियोजनाओं का समान रुप से पूरा लाभ मिले और प्रत्येक वर्ग देश की आर्थिक और सामाजिक समृद्धि में भागीदार बने। इसी के मद्देनजर संविधान में आदिवासी समुदाय के लिए कई प्रावधान किए गए हैं जिसमें अनुच्छेद 244(1) के तहत पांचवीं अनुसूची भी एक महत्वपूर्ण प्रावधान है। आदिवासी अधिकारों को संविधान की पांचवीं अनुसूची में विस्तृत रूप दिया गया, जिसमें अनुसूचित क्षेत्रों में आदिवासियों की रूढ़ि, परंपराओं, प्रथाओं एवं स्वशासन को विधि का बल प्राप्त है। इस तरह से संवैधानिक व्यवस्था में आदिवासियों की भागीदारी सुनिश्चित की गई है।
पांचवीं अनुसूची के प्रावधान दस राज्यों – मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, ओड़िशा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान और हिमाचल प्रदेश के अनुसूचित क्षेत्रों पर विशेष रूप से लागू होते हैं। इसके कुछ प्रावधान असम, मेघालय, त्रिपुरा, मिजोरम राज्य को छोड़कर उन सभी राज्यों में भी लागू होते हैं, जिनमें आदिवासी आबादी निवास करती है। संविधान के अंतर्गत ‘पांचवी अनुसूची के क्षेत्र’ ऐसे क्षेत्र हैं, जिन्हें राष्ट्रपति आदेश द्वारा अनुसूचित क्षेत्र घोषित करे।
अनुसूचित क्षेत्रों की प्रशासन व्यवस्था पूरी तरह से राष्ट्रपति और राज्यपाल के अधीन होता है, जिसमें राज्यों के राज्यपालों को अनुसूचित क्षेत्रों में शांति एवं सुशासन के लिए विनियम बनाने यानि नियंत्रित करने या दिशा-निर्देश जारी करने की शक्तियां प्रदान की गई हैं। इस संबंध में राज्यपाल एक ट्राइबल एडवायजरी काउंसिल यानि आदिवासी मंत्रणा परिषद का गठन करेगा और उसके सलाह पर अनुसूचित क्षेत्रों का प्रशासन करेगा। साथ ही, प्रत्येक वर्ष अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन के संबंध में राज्यपाल राष्ट्रपति को प्रतिवेदन भी देगा।
ध्यातव्य है कि मध्य प्रदेश के 89 आदिवासी विकासखंड संविधान के अनुच्छेद 244(1) पांचवीं अनुसूची के तहत अधिसूचित क्षेत्र अंतर्गत आते हैं।
मध्य प्रदेश के आदिवासी क्षेत्र में क्यों जरूरी है पांचवीं अनुसूची का अनुपालन?
संविधान में आदिवासियों के लिए कई विशेष प्रावधान होने एवं अनुच्छेद [275(1)] अंतर्गत ट्राइबल सब-प्लान एवं अन्य योजनाओं के तहत हजारों करोड़ राशि खर्च करने के बाद भी आम सहमति से यह स्वीकार किया जाता है कि मध्य प्रदेश के आदिवासी क्षेत्र और वहां बसने वाले आदिवासी समुदाय आज भी काफी पिछड़े हुए हैं। यहां शिक्षा, स्वास्थ्य, पीने का पानी, सड़क, रोजगार इत्यादि मूलभूत सुविधाओं का अभाव है।
डॉ. अलावा कहते हैं कि संविधान में आदिवासियों के विकास एवं कल्याण के लिए राज्यपाल को सौंपे गए जिम्मेदारियों का पालन राज्यपाल ने नहीं किया। संविधान के अनुच्छेद 244(1), अनुच्छेद 339, पेसा कानून 1996 का अनुपालन नहीं किया गया। और अनुच्छेद 275(1) ट्राइबल सब-प्लान की राशि का ढंग से व्यय नहीं किए जाने से आदिवासी क्षेत्र पिछड़े हुए हैं।
व्यवस्था एवं गैर-आदिवासियों के निशाने पर आदिवासी
5 जनवरी 2011 को सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में उल्लेख करते हुए कहा कि भारत में आदिवासियों के प्रति किया गया अन्याय हमारे देश के इतिहास में एक शर्मनाक अध्याय है। उन्हें राक्षस, असुर और क्या नहीं कहा गया है। बड़ी संख्या में उनका नरसंहार किया गया तथा बचे हुए लोगों को अपमानित और निम्नकृत किया गया। सदियों से उन्हें सभी तरह के अत्याचार सहने पड़े। उन्हें अपनी जमीन से बेदखल किया गया और जंगलों-पहाड़ों की शरण लेने के लिए विवश किया गया, जिसके कारण उन्हें गरीबी, अशिक्षा, बीमारी के बीच दयनीय जीवन जीने को विवश होना पड़ा। वर्तमान में भी कुछ लोगों द्वारा उन्हें वहां से भी वंचित करने का प्रयास किया जा रहा है जहां ये सिर्फ वनोपज से जीवन यापन कर रहे हैं।
प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा वर्ष 2013 में प्रो. वर्जिनियस खाखा की अध्यक्षता में गठित एक उच्चस्तरीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि आदिवासियों के संबंध में प्रति वर्ष राष्ट्रपति को राज्यपाल द्वारा भेजे जाने वाले रिपोर्ट में विस्थापन एवं पुनर्वास, विधि-व्यवस्था की समस्या, जनजातीय विरोध प्रदर्शनों, जनजातियों के उत्पीड़न और ऐसे अन्य मुद्दों को शामिल नहीं किया जाता। ये रिपोर्टें अनुसूचित क्षेत्रों में राज्य सरकारों की नीतियों के स्वतंत्र मूल्यांकन का अवसर नहीं प्रदान करतीं। जनजातीय सलाहकार परिषद के कार्यप्रणाली के संबंध में नियमों का निर्माण राज्यपाल के बजाय राज्य सरकारों द्वारा किया जाता है, जिसके कारण सत्तारूढ़ राजनीतिक दलों द्वारा इन निकायों का पूर्णरूपेण अधिकार हड़पने का प्रयास किया जा रहा है। जनजातीय समुदायों को, पिछले छह दशकों में कार्यान्वित विकास परियोजनाओं का पूरा लाभ नहीं मिला है बल्कि इस दौरान कार्यान्वित विकास परियोजनाओं का उनपर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। जनजातीय क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर उद्योग, खनन, सड़क व रेलवे जैसे बुनियादी ढांचा परियोजनाओं, बांधों व सिंचाई जैसी जलीय परियोजनाओं के कारण व्यापक रुप से जनजातियों की आजीविका की हानि, बड़े पैमाने पर विस्थापन और अनैच्छिक प्रवास की स्थिति बनी, जो दोषपूर्ण राष्ट्र-निर्माण प्रक्रिया के एक अंग के रूप में प्रकट होता है।
(संपादन : नवल/अनिल)
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