गत 2 मई, 2021 को देश के पांच राज्यों के चुनाव परिणाम घोषित हुए। इन राज्यों में पश्चिम बंगाल, आसाम, तमिलनाडु, केरल और केंद्रशासित प्रदेश पुदुचेरी शामिल हैं। चुनाव परिणाम आने के बाद पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, आसाम में भाजपा गठबंधन, तमिलनाडु में द्रविड़ मुनेत्र कषगम गठबंधन, केरल में वामपंथी गठबंधन और पुदुचेरी में भाजपा गठबंधन सरकार का गठन हो चुका है। इन चुनाव परिणामों को भारतीय राजनीति के लिहाज से महत्वपूर्ण माना जा रहा है। यह इसलिए भी कि इन चुनाव परिणामों से देश में सत्तासीन भाजपा को निराशा हाथ लगी है। देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस के लिए भी ये परिणाम सकारात्मक नहीं रहे हैं। दलगत विश्लेषणों से इतर इन चुनावों का सामाजिक विश्लेष्ण भी महत्वपूर्ण है। एक बार फिर यह तथ्य उभरकर सामने आया है कि दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और पिछड़े वर्गों (ओबीसी) ने चार राज्यों और एक केन्द्र शासित प्रदेश में हाल में हुए विधानसभा चुनावों के परिणामों के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है।
मसलन, पश्चिम बंगाल में ओबीसी, आदिवासियों और राजबंशी दलितों का अपेक्षित समर्थन नहीं मिलने के कारण भाजपा राज्य में पहली बार सत्ता में आने का अपना स्वप्न पूरा नहीं कर सकी। वहीं आसाम में आदिवासियों द्वारा कांग्रेसनीत महाजोत गठबंधन का साथ छोड़ देने के कारण यह गठबंधन एक बार फिर सरकार नहीं बना सका। तमिलनाडु में डीएमके गठबंधन की शानदार जीत में दलितों और अल्पसंख्यकों के अलावा ऊंची जातियों की भूमिका भी रही। वहीं केरल में सारी कोशिशों के बावजूद भाजपा सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को चुनावी मुद्दा नहीं बना सकी और विधानसभा में अपनी एकमात्र सीट भी खो बैठी।
लोकनीति-सीएसडीएस (सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ़ डेवलपिंग सोसाइटीज) द्वारा किये गए चुनाव-पश्चात सर्वेक्षण में यह पता लगाने की कोशिश की गई कि चार राज्यों (पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, आसाम और केरल) और एक केंद्रशासित प्रदेश (पुदुचेरी) में हुए विधानसभा चुनाव में विभिन्न जातियों और समुदायों ने किस पार्टी अथवा गठबंधन को अपना समर्थन दिया।
बंगाल में ओबीसी के कारण झपट्टा मारने से चूक गई भाजपा
पश्चिम बंगाल के बारे में काफी समय से यह कहा जा रहा था कि वहां हिंदुत्व का बहुजनीकरण हो गया है – यानी ग्रामीण निर्धन, ओबीसी, दलित और आदिवासी हिंदुत्व के प्रभाव में आकर भाजपा के साथ हो गए हैं। यह भी कहा जा रहा था कि तृणमूल कांग्रेस, जो ओबीसी के समर्थन के बल पर ही 2011 में राज्य में पहली बारे सत्ता में आ सकी थी, से पिछड़े वर्ग खासे खफ़ा हैं और उसे सत्ता से बेदखल करने पर आमादा हैं।
परंतु ये दोनों ही कयास गलत सिद्ध हुए। सन् 2019 के लोकसभा चुनाव में जिन बहुजन वर्गों ने तृणमूल कांग्रेस का दामन छोड़कर भाजपा का हाथ थामा था, उनके एक बड़े हिस्से की 2021 में फिर से वापसी हो गई। भाजपा को सत्ता से दूर रखने में सबसे बड़ा योगदान ओबीसी समुदायों (यादव, कुर्मी, लोहार, तेली इत्यादि) का था। लोकनीति-सीएसडीएस सर्वेक्षण के अनुसार, जहां वर्ष 2019 में इन समुदायों के 68 फीसदी मतदाताओं ने भाजपा का साथ दिया था, वहीं 2021 में उनका प्रतिशत घटकर 49 फीसदी रह गया। भाजपा को आदिवासियों के समर्थन में भी तेजी से कमी आई (62 से 46 प्रतिशत)। भाजपा का साथ छोड़ने वाले अधिकांश मतदाता तृणमूल के पाले में चले गए। राज्य में दलितों को रिझाने की भाजपा ने हरसंभव कोशिश की थी, परंतु इसके बाद भी, दलित, विशेषकर राजबंशी, पार्टी से दूर खिसक गए। दलित समुदायों में से केवल नामशूद्र (मतुआ शरणार्थियों सहित) भाजपा के साथ डटे रहे।
तालिका 1 : पश्चिम बंगाल
समुदाय/ जाति | तृणमूल कांग्रेस | भाजपा | ||||
---|---|---|---|---|---|---|
- | 2016 | 2019 | 2021 | 2016 | 2019 | 2021 |
ऊंची जातियां | 43 | 38 | 42 | 14 | 50 | 46 |
ओबीसी | 44 | 27 | 36 | 11 | 68 | 49 |
राजबंशी | 43 | 08 | 38 | 09 | 75 | 59 |
नामशूद्र | 43 | 38 | 31 | 10 | 54 | 58 |
अन्य दलित | 40 | 36 | 37 | 11 | 54 | 52 |
आदिवासी | 52 | 24 | 42 | 09 | 62 | 46 |
मुसलमान | 51 | 70 | 75 | 06 | 04 | 07 |
अन्य | 30 | * | 19 | 10 | * | 53 |
सभी अंक प्रतिशत में
अन्य मतदाताओं ने अन्य पार्टियों और उम्मीदवारों को अपना मत दिया
*नमूने का आकार बहुत छोटा होने के कारण उल्लेखनीय नहीं
आसाम में ध्रुवीकरण का प्रभाव
आसाम में धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण के चलते, आदिवासियों ने महाजोत (कांग्रेस के नेतृत्व वाले आठ दलों के गठबंधन) को अपना समर्थन नहीं दिया। यहां तक कि महाजोत को बोडो समुदाय का समर्थन भी हासिल नहीं हो सका। जबकि बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट (बीपीएफ) इस गठबंधन में स्वयं शामिल था। महाजोत को बोडो समुदाय के केवल 16 प्रतिशत मत प्राप्त हो सके। इसके विपरीत, तीन-चौथाई आदिवासियों ने भाजपानीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) को अपना समर्थन दिया, जिसके नतीजे में राज्य में अनुसूचित जातियों के लिए सुरक्षित 16 सीटों में से 14 उसकी झोली में आ गईं। ध्रुवीकरण के कारण दलितों और ओबीसी ने भी राजग को प्राथमिकता दी। केवल मुसलमानों ने महाजोत का साथ दिया, परंतु यह समर्थन उसके लिए नाकाफी था।
तालिका 2 : असम
जाति / समुदाय | महाजोत | एनडीए |
---|---|---|
उच्च जातियां | 21 | 68 |
ओबीसी | 20 | 64 |
बोडो क्षेत्रों में बोडो | 16 | 55 |
अन्य अनुसूचित जनजातियाँ (तिवल, कारबी, मिशिंग, राभा, मेच, हाजोंग इत्यादि) | 15 | 74 |
बोडो क्षेत्रों में मुसलमान | 81 | 11 |
अन्य | 35 | 49 |
सभी अंक प्रतिशत में
केरल में सबरीमाला नहीं, विकास
सन् 2019 के लोकसभा चुनाव में केरल में सत्ताधारी लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एलडीएफ) की हार का एक महत्वपूर्ण कारण यह बताया गया था कि राज्य सरकार ने सबरीमाला मंदिर प्रवेश के मुद्दे का ठीक से प्रबंधन नहीं किया। सन् 2018 में उच्चतम न्यायालय ने आदेश जारी किया था कि इस प्रसिद्ध मंदिर में रजस्वला सहित सभी आयु वर्ग की महिलाओं को प्रवेश दिया जाना चाहिए। वाम मोर्चा सरकार ने इस आदेश को लागू करने का भरसक प्रयास किया था। तब ऐसा कहा गया कि हिंदू धर्मावलंबी इस फैसले के खिलाफ थे, जिसका खामियाजा वाम मोर्चे को भुगतना पड़ा।

इस मामले को अब एक बड़ी खंडपीठ के हवाले कर दिया गया है और इस पर अंतिम निर्णय लंबित है। परंतु विपक्षी दलों भाजपा और कांग्रेस ने इस मुद्दे पर पिनराई विजयन सरकार पर दबाव बनाये रखा और ऐसे कयास लगाए जा रहे थे कि सत्ताधारी दल को इससे नुकसान होगा। परंतु चुनाव में वाम मोर्चे की शानदार विजय से यह साफ़ है कि मतदाताओं ने इस मुद्दे को महत्व नहीं दिया। हालांकि वामपंथी दलों की लगातार दूसरी जीत में अहम भूमिका विजयन सरकार द्वारा आपदाओं के कुशल प्रबंधन की भी रही, जिनमें वर्ष 2018 में उत्तरी केरल में निपा वायरस का संक्रमण, पूरे राज्य में आई बाढ़, और कोरोना महामारी शामिल है।
लोकनीति-सीएसडीएस सर्वेक्षण से पता चलता है कि केरल वासियों ने सबरीमाला मुद्दे को तरजीह ही नहीं दी। केवल एक प्रतिशत मतदाताओं ने इस मुद्दे के आधार पर यह तय किया कि वे किस गठबंधन को अपना मत देंगे। सर्वेक्षण से यह भी पता चला यद्यपि दो-तिहाई मतदाता अदालत के निर्णय से सहमत नहीं थे, परंतु फिर भी उन्होंने वाम मोर्चा को अपना मत दिया। जो 58 प्रतिशत मतदाता सबरीमाला को सभी महिलाओं के लिए खोलने के खिलाफ थे, उनमें से भी 38 प्रतिशत ने वाम मोर्चे को वोट दिया।
मतदाताओं ने वाम मोर्चा सरकार को राज्य का विकास करने एवं आपदाओं के कुशल प्रबंधन के लिए पुरस्कृत किया और केरल के इतिहास में पहली बार, वही गठबंधन लगातार दूसरी बार सत्ता में आया। राज्य के 73 प्रतिशत मतदाताओं का मानना था कि विजयन सरकार के शासनकाल में अस्पतालों की स्थिति सुधरी है। वहीं 72 प्रतिशत ने कहा कि सरकारी स्कूलों की हालत बेहतर हुई है और 66 प्रतिशत ने कहा कि सड़कें पहले से अच्छी हैं। पीने के पानी और बिजली की उपलब्धता के मामले में भी क्रमशः 52 और 65 प्रतिशत मतदाताओं ने कहा कि विजयन सरकार ने अच्छा काम किया है।
तमिलनाडु में दलित डीएमके के साथ से स्टालिन बने विजेता
तमिलनाडु में डीएमकेनीतगठबंधन ने विधानसभा में दो-तिहाई बहुमत हासिल कर लिया। इस गठबंधन की ज़बरदस्त जीत के पीछे दलित, अल्पसंख्यक और ऊंची जातियां थीं। वर्चस्वशाली ओबीसी जातियों ने डीएमके गठबंधन से दूरी बनाये रखी। दक्षिणी तमिलनाडु में थेवर (ओबीसी) समुदाय के 55 प्रतिशत वोट एआईएडीएमके गठबंधन को मिले और केवल 19 प्रतिशत डीएमके गठबंधन को। वहीं उत्तर में एआईएडीएमके गठबंधन को वन्नियार (ओबीसी) समुदाय के 54 प्रतिशत वोट हासिल हुए।
परंतु डीएमके गठबंधन ने दलितों के मत हासिल कर एआईएडीएमके गठबंधन को परास्त कर दिया। अरुन्थाथियर (दलित जाति) के 68 प्रतिशत मतदाताओं ने डीएमके का साथ दिया। नादर और ईसाई मतदाताओं ने भी डीएमके की विजय में भूमिका अदा की।
तालिका 3 :तमिलनाडु
समुदाय/जाति | डीएमके+ | एआईएडीएमके+ | अन्य |
---|---|---|---|
उच्च जातियां | 47 | 30 | 23 |
थेवर | 19 | 55 | 26 |
उदयर | 38 | 32 | 30 |
मुदलियार | 43 | 52 | 5 |
वन्नियार | 39 | 54 | 07 |
मुथारायर | 26 | 45 | 30 |
गौंदर | 35 | 59 | 06 |
नादर | 50 | 36 | 13 |
विश्वकर्मा | 41 | 57 | 02 |
अन्य ओबीसी | 38 | 36 | 26 |
अरुन्थाथियर | 68 | 25 | 07 |
अन्य दलित | 65 | 30 | 06 |
आदिवासी | 50 | 40 | 10 |
मुसलमान | 69 | 24 | 07 |
ईसाई | 56 | 38 | 06 |
अन्य | 52 | 32 | 16 |
सभी अंक प्रतिशत में
(संपादन : नवल)
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