बहुजन साप्ताहिकी
देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में से एक दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) में भी जातिगत उन्माद बढ़ता जा रहा है। बीते 16 अगस्त, 2021 को डीयू के लक्ष्मीबाई कॉलेज के हिंदी विभाग की एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. नीलम के साथ भी ऐसी ही घटना घटित हुई। इस संबंध में पुलिस को दी गयी जानकारी में उन्होंने अपने विभाग की अध्यक्ष डॉ. रंजीत कौर पर नैक से संबंधित एक मीटिंग के बाद जातिसूचक गाली देने तथा थप्पड़ मारने का अरोप लगाया है। इस घटना को लेकर दलित लेखक संघ व दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ ने कड़ा विरोध किया है तथा विश्वविद्यालय प्रबंधन से आरोपी डॉ. रंजीत कौर के खिलाफ कठोरतम कार्रवाई करने की मांग की है।
उधर फारवर्ड प्रेस से बातचीत में पीड़िता डॉ. नीलम ने घटना के बारे में बताया कि “डॉ. रंजीत कौर ने मीटिंग के बाद मीटिंग के मिनट्स (मीटिंग की रूपरेखा व निर्णय आदि) पर हस्ताक्षर करने के लिए मुझे कहा। इस पर जब मैंने कहा कि पहले मैं एक बार पढ़ लूं। इस पर वह भड़क गयीं और उन्होंने कहा कि पढ़ने की जरूरत नहीं है। लेकिन मैंने कहा कि बिना पढ़े मिनट्स पर हस्ताक्षर नहीं करूंगी। इसके पहले भी ऐसी घटना हो चुकी है कि एक बार मिनट्स में मेरी आपत्तियों को शामिल नहीं किया गया और आपके कहने पर मैंने हस्ताक्षर कर दी थी। लेकिन इस बार मुझे मिनट्स पढ़ने दें। मेरे इतना कहने पर वह उन्होंने मेरे खिलाफ जातिसूचक शब्दों का उपयोग किया तथा मेरे हाथ से वह राजिस्टर छीन लिया, जिसमें मिनट्स दर्ज थे और मुझे थप्पड़ मार दिया।”

डॉ. नीलम ने स्थानीय पुलिस पर मामले को रफा-दफा करने का आरोप लगाया। इसका उल्लेख उन्होंने दिल्ली पुलिस को दिए अपने शिकायत पत्र में भी किया है। बीते 19 अगस्त, 2021 को उनके इस शिकायत पत्र को भरत नगर पुलिस थाने द्वारा स्वीकार किया गया। अपने शिकायत पत्र में उन्होंने बताया कि 16 अगस्त को जब मामले की प्राथमिकी एससी-एसटी अत्याचार निवारण अधिनियम, 1989 के तहत दर्ज कराने स्थानीय थाना में गयीं तो प्राथमिकी दर्ज नहीं की गयी। मेडिकल जांच की मांग को भी पुलिस ने अनसुना कर दिया तथा उनके द्वारा दी गयी सूचना को सनहा के रूप में दर्ज किया। उन्होंने कॉलेज प्रबंधन पर भी आरोपी डॉ. रंजीत कौर को बचाने का आरोप लगाया है। उन्होंने बताया कि कॉलेज प्रबंधन ने उनके द्वारा की गयी शिकायत पर कोई कार्रवाई करने के बजाय उनसे ही स्पष्टीकरण मांगा है।
वहीं इस संबंध में दिल्ली हाईकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता व स्त्रियों के लिए कानूनों के विशेषज्ञ अरविंद जैन के मुताबिक दलित महिला को किसी गैर दलित महिला के द्वारा थप्पड़ मारा जाना और जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल करना संज्ञेय अपराध है। इस मामले में पुलिस को एफआईआर दर्ज कर कार्रवाई करनी चाहिए। हालांकि ऐसे अधिकांश मामलों में होता है कि पुलिस प्राथमिक जांच में ही आठ से दस दिन का समय लगा देती है।
सिलेगर में आदिवासियों के आंदोलन के 100 दिन पूरे, सरकार कर रही आंदोलन की उपेक्षा
गूगल मैप के हिसाब से देश की राजधानी दिल्ली और छत्तीसगढ़ के जगदलपुल जिले के बीच की दूरी 1471 किलोमीटर है। दोनों जगहों के संबंध में खास बात यह कि दोनों जगहों पर लोग आंदोलनरत हैं। दिल्ली की सीमाओं पर किसान भारत सरकार द्वारा बनाए गए तीन कृषि कानूनों की वापसी की मांग को लेकर आंदोलन कर रहे हैं तो बस्तर संभाग के जगदलपुर के सिलेगर में आदिवासी पुलिस द्वारा कैंप बनाए जाने के खिलाफ बरसात में भी डटे हैं। कल 19 अगस्त, 2021 को इस आंदोलन का सौवां दिन पूरा हुआ।
बताते चलें कि सिलेगर गांव में पुलिस ने 11-12 मई, 2021 की रात चुपके से कैंप का निर्माण कराया था। आदिवासियों को जैसे ही इसकी जानकारी मिली, उन्होंने विरोध करना शुरू किया। विरोध के क्रम में 17 मई, 2021 को जब बड़ी संख्या में आदिवासी जुटे थे, पुलिस ने उनके उपर गोलियां चला दी। इस घटना में तीन आदिवासियों की मौत हो गई थी। इसके बाद भी यह आंदोलन नहीं रूका। हालांकि राज्य सरकार द्वारा इस घटना की जांच के लिए कमेटी का गठन किया गया है। कमेटी के सदस्यों ने आंदोलनरत आदिवासियों से भी बातचीत की है, परंतु अभी तक अपनी रिपोर्ट नहीं दी। आदिवासी सिलेगर से पुलिस कैंप हटाने तथा 17 मई को गोलियां चलाने व चलवाने वाले पुलिसकर्मियों के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज कर मुकदमा चलाने की मांग कर रहे हैं।
जातिगत गणना नहीं तो फिर जनगणना नहीं, पटना में बोले जी. करुणानिधि
आज भी नब्बे साल पहले गुलाम भारत में अँग्रेजों द्वारा जारी जातिगत जगनगणना को ही ओबीसी के लिए आधार माना जाता है जो कि कहीं से भी उचित प्रतीत नहीं होता है। ब्रिटिश हुकूमत द्वारा 1871 से 1931 तक हर दस साल पर जातिगत जनगणना जारी किया गया था। 1941 में भी जनगणना कराया गया था लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के कारण आँकड़ों का सही से संकलन नहीं हो पाया जिसके कारण सम्भवतः जारी नहीं किया गया। फिर 1947 में देश आजाद ही हो गया। स्वतंत्र भारत के हुक्मरानों ने जनसंख्या की गणना तो की, लेकिन जाति के साथ संख्या गिनना जरूरी नहीं समझा, जिसके कारण आज भी 1931 की जनगणना से ही जातिवार संख्या का अनुमान लगाने की हिमाकत करते हैं। 1931 में पाकिस्तान और बांग्लादेश भारत में ही थे और आज अलग हैं, तो फिर नब्बे साल पुरानी जनगणना को वर्तमान में कैसे आधार बनाया जा सकता है। ये बातें ऑल इंडिया ओबीसी इम्प्लाॅईज फेडेरेशन के अध्यक्ष जी. करुणानिधि ने बीते 14 अगस्त, 2021 को बिहार की राजधानी पटना में आयोजित एक संगोष्ठी को संबोधित करते हुए कही।

ओबीसी इम्प्लाॅईज फेडेरेशन, बिहार तथा सोशलिस्ट इम्प्लाॅईज वेलफेयर एसोसिएशन (सेवा), बिहार द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित गोष्ठी मेंं करुणानिधि ने नरेंद्र मोदी सरकार के ढुलमुल रवैया पर सवाल करते हुए कहा कि 31 अगस्त, 2018 को गृह मंत्रालय द्वारा जारी बयान में तत्कालीन गृहमंत्री राजनाथ सिंह द्वारा कहा गया था कि 2021 की जनगणना के रोडमैप पर चर्चा हुई है, जिसमें तय किया गया है कि 2021 की जनगणना में ओबीसी के आँकड़े इकट्ठे किये जायेंगे, लेकिन अब जब जनगणना कराने की बारी आई है तो केन्द्र सरकार अपने ही वादे से मुकर रही है। जबकि एनडीए सरकार के सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री श्री रामदास अठावले ने भी 12 जुलाई, 2021 को जातीय जनगणना को देश की जरूरत बताया था। इतना ही नहीं भाजपा सांसद डाॅ. प्रीतम गोपीनाथ मुंडे ने भी 13 मार्च, 2020 को लोकसभा में बहस करते हुए कहा था कि, ‘ऑनलाइन जनगणना आवेदन में ओबीसी काॅलम नहीं है, ओबीसी काॅलम को आवेदन में जोड़ा जा सकता है।’
करूणानिधि ने संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के जनगणना- 2020 का उदाहरण देते हुए कहा कि वहाँ भी सभी रंग व वर्ग के लोगों गिनती की जा रही है, जिसका कई मामलों में अपना देश अनुकरण करने की कोशिश करता है, तो फिर जनगणना में भी अनुकरण करते हुए सभी जातियों के लोगों की गणना करनी चाहिए।
संगोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे उपेन्द्र कुशवाहा ने अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा की मंशा पर सवाल उठाते हुआ कहा कि ये लोग पिछली सामाजिक तथा आर्थिक जनगणना के आँकडे़ में त्रुटि बताकर जारी नहीं किये और अब जातीय तनाव की बात कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि जब एससी-एसटी की गणना, धार्मिक गणना एवं भाषिक गणना होती है तब तो तनाव नहीं बढ़ता है, फिर ओबीसी की गणना से तनाव कैसे बढ़ जायेगा। जातीय जनगणना से तनाव बढ़ेगा नहीं बल्कि तनाव घटेगा।
संगोष्ठी को इन्द्र कुमार सिंह चन्दापुरी, डाॅ. शशिभूषण कुमार, डाॅ. दिनेश पाल, डाॅ. विकास विद्यार्थी, डाॅ. हबीबुल्लाह अंसारी, अरविंद यरवदा, वरिष्ठ अधिवक्ता अरुण कुुशवाहा, डाॅ. सुजीत कुमार ‘निराला’ एवं श्रीमती शशिप्रभा, कमलेश, रामनरेश यादव, डाॅ. बिनोद पाल, डाॅ. रामस्वरूप भगत, मुरलीधर, गजेन्द्र, आशीष रंजन आदि ने जातिगत जनगणना के पक्ष में अपनी बातें कही। संगोष्ठी में प्रथम व्याख्यान ओबीसी इम्प्लाईज फेडरेशन, बिहार के महासचिव रविन्द्र राम ने प्रस्तुत किया। वहीं संचालन सेवा, बिहार के संयोजक राकेश यादव ने किया।
डॉ. सतीश पावड़े को डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर साहित्य पुरस्कार
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के परफार्मिंग आर्ट्स (फिल्म व थियेटर) के प्रोफेसर डॉ. सतीश पावड़े को डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर साहित्य पुरस्कार से सम्मानित किया जाएगा। इसकी घोषणा डॉ. गिरीष गांधी फाउंडेशन के अध्यक्ष डॉ. श्रीकांत तिलके व सचिव रेखा वडिंगे ने बीते दिनों एक संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करते हुए की। उन्होंने बताया कि अपने नाटकों से डॉ. पावड़े ने मराठी दलित साहित्य को समृद्ध किया है। डॉ. तिलके ने कहा कि डॉ. पावड़े को समानित कर हम सभी खुद को गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं।

बताते चलें कि महात्मा जोतीराव फुले-सावित्रीबाई फुले डॉ. सतीश पावड़े के विशेष अध्ययन के विषय रहे हैं। “आद्य मराठी नाटक तृतीय रत्न एवं आद्य मराठी नाटककार महात्मा फुले” उनकी पुस्तक प्रसिद्ध है। सावित्रीबाई फुले पर “ज्योति झाली ज्वाला” नामक एकल नाटक लिखा तथ फुले दम्पत्ति के चरित्र पर आधारित “क्रांतिबा-क्रांतिमां” नाटक का सहलेखन एवं निर्देशन भी किया है। साथ ही नाटक, समीक्षा, से संबंधित 24 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इनकें कई किताबों का संपादन भी उन्होंने किया है। इसके अलावा 50 नाटकों का निर्देशन, 30 नाटकों का लेखन और 20 नाटकों का अनुवाद किया है। उनके उल्लेखनीय योगदानों के लिए स्मिता पाटील स्मृति पुरस्कार, यूनेस्को क्लब्ज एवार्ड, मग्नम ऑनर एवार्ड, पु. भा. भावे पुरस्कार, मां जिजाऊ पुरस्कार, संगीतसूर्य पुरस्कार और साथ ही महाराष्ट्र सरकार का सर्वश्रेष्ठ नाटककार का अवार्ड ‘अंधारवेणा’ नाटक एवं ‘द थिएटर आँफ द एब्सर्ड’ समीक्षा ग्रंथ के लिए दो बार प्रदान किया गया।
(संपादन : अनिल)
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