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सरकार एयर इंडिया के दलित, पिछड़े और आदिवासी समुदायों के कर्मियों के हितों की रक्षा करे : प्रदीप धोबले

एयर इंडिया की केवल एक कंपनी जिसका काम हवाईजहाजों की उड़ान आदि संचालित करना है, को टाटा कंपनी को बेचा गया है। इस कंपनी में काम करनेवाले कर्मियों में अधिकांश पायलट व एयरहोस्टेस आदि हैं। जबकि दो कंपनियां और हैं जो अभी भी भारत सरकार के पास रहेंगीं। एयर कारपोरेशन ओबीसी इम्प्लॉयज एसोसिएशन के प्रेसिडेंट प्रदीप धोबले से फारवर्ड प्रेस के हिंदी संपादक नवल किशोर कुमार की दूरभाष पर बातचीत

[भारत सरकार के सार्वजनिक उपक्रमों में से एक ‘एयर इंडिया’ को टाटा समूह ने 18 हजार करोड़ रुपए की सबसे अधिक बोली लगाकर खरीद लिया है। इसके साथ ही यह सवाल उठने लगा है कि टाटा समूह द्वारा अधिग्रहण के बाद एयर इंडिया में काम करनेवाले कर्मियों का भविष्य क्या होगा। यह भी गौरतलब हे कि पहले भारत सरकार का सार्वजनिक उपक्रम होने के कारण एयर इंडिया में संविधान प्रदत्त आरक्षण लागू था। ऐसे में अब क्या होगा? यह सवाल इसलिए भी क्योंकि निजी क्षेत्र में आरक्षण को लेकर भारत सरकार के द्वारा कोई नीति निर्धारित नहीं है। इन सभी सवालों के मद्देनजर फारवर्ड प्रेस के हिंदी संपादक नवल किशोर कुमार ने एयर कारपोरेशन ओबीसी इम्प्लॉयज एसोसिएशन के प्रेसिडेंट प्रदीप धोबले से दूरभाष पर विशेष बातचीत की। प्रस्तुत है इस बातचीत का संपदित अंश]

साक्षात्कार : क्रीमीलेयर के अवरोध के कारण पायलट एवं अन्य पदों पर केवल 7-8 फीसदी ओबीसी 

भारत सरकार ने एयर इंडिया को टाटा कंपनी के हाथों बेच दिया है। आपकी प्राथमिक प्रतिक्रिया क्या है?

देखिए, निजीकरण के नुकसान ही नुकसान हैं। इस संबंध में सभी ट्रेड यूनियनों के द्वारा संयुक्त रूप से एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की गई, जिसमें भारत सरकार के फैसले की निंदा की गई है और कहा गया है कि एयर इंडिया को एक तोहफे के रूप में टाटा कंपनी को दे दिया गया है। प्रेस विज्ञप्ति में यह भी कहा गया है कि एयर इंडिया के पास 32 हजार करोड़ रुपए के हवाई जहाज हैं। भारत सरकार के साथ जो सौदा तय हुआ है उसके अनुसार टाटा इसके लिए 18 हजार करोड़ रुपए चुकायेगा और इसके तहत एयर इंडिया के उपर 62 हजार करोड़ रुपए कर्ज में से 15 हजार करोड़ रुपए कर्ज की देनदारी करेगा। अभी भी 47 हजार करोड़ रुपए की देनदारी भारत सरकार की होगी। यानी परिसंपत्तियों का निजीकरण तो सरकार ने कर दिया लेकिन कर्ज का निजीकरण नहीं हुआ है। आप यह देखें कि एयर इंडिया की अन्य संपत्तियां, बहुमूल्य लैंडिंग पार्किंग स्लॉट, ब्रांड, अंतर्राष्ट्रीय फ्लाइट अधिकार सब उसे मुफ्त में मिलेंगे।

आप यह भी देखें कि एयर इंडिया आपरेशन के लेवल पर घाटे में कभी नहीं थी। उसकी असली समस्या तो यह 62 हजार करोड़ रुपए का कर्ज और इसका ब्याज था। जो कि इसके मुनाफे पर भारी पड़ रहा था। महत्वपूर्ण यह है कि यह कर्ज भी एयर इंडिया पर सरकारी नीतियों के बोझ स्वरूप ही चढा था खास तौर पर बोइंग को दिये गए महंगे ऑर्डर की वजह से। इसलिए सभी ट्रेड यूनियनें यह मानती हैं कि एयर इंडिया का लाभ कमाने वाला हिस्सा निजी होकर टाटा को मुफ्त में मिला है और घाटा सारा का सारा सार्वजनिक ही रहा। 

अब एयर इंडिया से जुड़े कर्मियों के भविष्य को लेकर सवाल उठ रहे हैं?

हां, बिल्कुल। इस बारे में ट्रेड यूनियनों द्वारा सवाल भी उठाया गया है कि एयर इंडिया में काम करनेवाले अधिकांश कर्मियों की उम्र अब 45 साल से अधिक हो गई है। तो यह मुमकिन है कि टाटा कंपनी उन्हें नौकरियों से अलग कर दे। हालांकि इस मामले में मैं आपको एक तकनीकी बात बता दूं कि एयर इंडिया की केवल एक कंपनी जिसका काम हवाईजहाजों की उड़ान आदि संचालित करना है, को टाटा कंपनी को बेचा गया है। इस कंपनी में काम करनेवाले कर्मियों में अधिकांश पायलट व एयरहोस्टेस आदि हैं। जबकि दो कंपनियां और हैं जो अभी भी भारत सरकार के पास रहेंगीं। इनमें से एक कंपनी है जो अभियांत्रिकी कार्यों को संचालन करती है। इस कंपनी का कमा हवाई जहाजों की देख-रेख करना है। इसमें भी बड़ी संख्या में कर्मचारी काम करते हैं। वहीं दूसरी कंपनी है जो ग्राउंड पर काम करती है। ग्राउंड पर काम करने का मतलब यह है कि हवाई अड्डों पर यात्रियों को रिसीव करने से लेकर उनके सामान आदि क्राफ्ट में पहुंचाने का काम। 

तो इस तरह आप देखेंगे कि अभी भी दो महत्वपूर्ण कंपनियां भारत सरकार के पास हैं, जिनपर फैसला होना अभी बाकी है। 

आप एयर कारपोरेशन ओबीसी इम्प्लॉयज एसोसिएशन के प्रेसिडेंट हैं। इस लिहाज से कृपया हमें यह बताएं कि टाटा कंपनी के साथ भारत सरकार की हुए इस सौदे का कितना असर आरक्षित वर्गों खासकर दलितों, पिछड़ों और आदिवासी समुदाय से आनेवाले कर्मियों पर पड़ेगा?

देखिए, यह तो साफ है कि भारत सरकार ने जो एयर इंडिया का निजीकरण कर दिया है, वह संविधान के प्रावधानों के खिलाफ है। आपने आरक्षित वर्गों के कर्मियों के हितों के बारे में पूछा है तो इसके लिए हमारे संविधान में अधिकार हैं। लेकिन अब चूंकि सरकार ने इसका निजीकरण कर दिया है तो यह सवाल तो हम सभी के सामने रहेगा ही कि टाटा कंपनी हमारे साथ कैसा व्यवहार करेगी। आप यह भी देखें कि निजी क्षेत्र में आरक्षण के लिए भारत सरकार द्वारा कोई प्रावधान नहीं किया गया है। इसलिए आनेवाले समय में यह तो साफ है कि कंपनी आरक्षण के नियमों का पालन नहीं करेगी और आरक्षित वर्गों के हितों को नुकसान पहुंचेगा।

उड़ान भरता एयर इंडिया का एक हवाई जहाज और प्रदीप धोबले की तस्वीर

सौदेबाजी से पहले जो एयर इंडिया थी, उसमें दलितों, पिछड़ों और आदिवासी समुदायों के कर्मियों की स्थिति क्या थी?

यह आपने अच्छा सवाल किया है। देखिए भारतीय संविधान में एससी और एसटी समुदायों के लिए आरक्षण तो संविधान लागू होने के साथ ही लागू हो गया था। लेकिन यह मानना पड़ेगा कि एससी समुदाय के लोगों में अधिक सजगता रही है और उन्होंने 15 फीसदी अपनी हिस्सेदारी सभी तरह के पदों में हासिल किया है। लेकिन उनकी तुलना में एसटी यानी आदिवासी समुदाय और पिछड़ा वर्ग के लोग कम सजग रहे हैं। वैसे ओबीसी को तो आरक्षण भी 1990 के बाद मंडल कमीशन लागू किए जाने के बाद मिला है। लेकिन मैं आपको बताऊं कि ओबीसी की हालत एससी और एसटी से भी नीचे है। अभी ठीक-ठीक संख्या तो नहीं बता सकता लेकिन यह तो है कि ओबीसी को 27 फीसदी में से केवल 7-8 फीसदी ही आरक्षण मिल पाता है।

ऐसा क्यों? क्या इसकी कोई खास वजह रही है?

हां, क्रीमीलेयर सबसे बड़ी बाधा है। आप पायलटों में कोई भी ओबीसी श्रेणी में आरक्षण के कारण नियुक्त नहीं हो पाता है। वजह यह है कि क्रीमीलेयर में साढ़े आठ लाख रुपए की सीमा निर्धारित है। जबकि पायलट के प्रशिक्षण में ही कम से कम 25 से 30 लाख रुपए का खर्च आता है। यही हाल एयरोनॉटिकल इंजीनियिंग के मामले में भी होता है। चूंकि एक एयरोनॉटिकल इंजीनियर के प्रशिक्षण में भी कम से कम 15-20 लाख रुपए की आवश्यकता होती है। अब आप ही सोचें कि गैर क्रीमीलेयर वाले कितने ओबीसी अपनी जगह बना सकेंगे। आप देखें कि एससी और एसटी मामले में क्रीमीलेयर नहीं है तो उनकी हिस्सेदारी अधिक है। 

अब आप क्या उम्मीद करते हैं?

हम तो सरकार से यही मांग करेंगे कि सरकार निजी क्षेत्र में आरक्षण संबंधी नीति बनाए और टाटा कंपनी को उसे लागू करने को कहे। देखिए, ओबीसी वर्गों में चेतना का विकास तेजी से होने लगा है। अब तो वे इन क्षेत्रों में आगे आए हैं। सरकार को चाहिए कि वह सभी आरक्षित वर्गों के हितों का ख्याल रखे। 

(संपादन : अनिल)


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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