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सामाजिक-राजनैतिक स्तर पर खंडित हैं पंजाब के दलित

पंजाब के दलित पहले से ही धार्मिक निष्ठाओं और परंपरागत व्यवसायों के आधार पर बंटे हुए थे। इस स्थिति का मुख्यधारा की राजनैतिक पार्टियों ने जमकर दोहन किया, जिससे उनके बीच की विभाजक रेखाएं और गहरी होती गईं हैं, बता रहे हैं रौनकी राम

पंजाब में कुल आबादी में दलितों की आबादी का अनुपात, भारत के किसी भी अन्य राज्य की तुलना में सबसे अधिक है। पंरतु राज्य का दलित समुदाय एकसार नहीं है। यह 39 जातियों में बंटा हुआ है, जिनकी आध्यात्मिक निष्ठा अलग-अलग धर्मों और डेरों के प्रति है। ऊंच-नीच पर आधारित इन विभाजक रेखाओं के कारण ही यह समुदाय राज्य में चुनावों में अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं करवा पाता है।

राज्य की कुल आबादी में दलितों की हिस्सेदारी 39.94 प्रतिशत है। वहीं संपूर्ण भारत में उनकी हिस्सेदारी प्रतिशत 16.6 है। पंजाब के कई जिलों में दलित, कुल आबादी के एक-तिहाई से भी ज्यादा 32.07 प्रतिशत से लेकर 42.51 प्रतिशत तक है। राज्य के दलित मुख्यतः ग्रामीण इलाकों में रहते हैं। कुल मिलाकर 57 गांवों के शतप्रतिशत रहवासी दलित हैं। कुल 4,799 अन्य गांवों (जो राज्य के कुल गांवों का 39.44 प्रतिशत है) में उनकी आबादी 40 प्रतिशत से अधिक है। उनकी बड़ी आबादी को देखते हुए राज्य के अंतर्गत सेवाओं में उन्हें 25 प्रतिशत आरक्षण दिया गया है। पंजाब विधानसभा की 117 सीटों में से 34 एससी के लिए आरक्षित हैं। पंजाब में 13 लोकसभा क्षेत्र हैं, जिनमें से चार एससी के लिए आरक्षित हैं। परंतु राज्य में दलितों के राजनैतिक दलों – लेबर पार्टी ऑर्फ इंडिया (एलपीआई), शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन (एससीएफ), रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (आरपीआई) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) – कभी चुनावों में इस अनुपात में सफलता प्राप्त नहीं कर पाईं है।

इसका प्रमुख कारण यह है कि एससी के अंतर्गत आने वाली 39 जातियां कई धर्मों (हिंदू, सिक्ख, इस्लाम, ईसाई, बौद्ध और रविदासिया) में बंटी हुई हैं। इसके अलावा, अनेक की धार्मिक निष्ठा अलग-अलग डेरों या पंथों के प्रति है। इसका एक अन्य कारण यह भी हो सकता है कि राज्य में ब्राह्मणवाद का प्रभाव उतना नहीं है, जितना कि अन्य हिंदी भाषी राज्यों में है। इस्लाम और सिक्ख धर्म के प्रभाव के कारण राज्य में हुए सामाजिक परिवर्तन, जो दृश्य और अदृश्य दोनों हैं, के चलते ब्राह्मणवाद की जड़ें राज्य में अधिक गहरी नहीं हैं व शायद इसलिये यहां केवल दलितों की पार्टी के गठन की आवश्यकता कभी महसूस नहीं की गई। इसके अलावा, मुख्यधारा के राजनैतिक दलों द्वारा जानते-बूझते या संयोग से, प्रभावशाली दलित नेताओं को महत्वपूर्ण पद दिए जाने से एससी के राजनैतिक दलों को कभी चुनावों में उल्लेखनीय सफलता हासिल नहीं हो सकी। इसका एक उदाहरण राज्य के 17वें मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी हैं। उनके मुख्यमंत्री का पद संभालने से निम्न जातियों की जाति-आधारित राजनैतिक अस्मिता का मुद्दा राज्य की राजनीति के केंद्र में आ गया है। रामदासिया सिक्ख (एससी समुदाय) चन्नी, एससी के लिए आरक्षित चमकौर साहब विधानसभा क्षेत्र से विधायक हैं। जैसा कि पहले कहा जा चुका है पंजाब के एससी एकसार नहीं हैं। यद्यपि सभी दलितों को ब्राह्मणवादी ग्रंथों के अनुपालन में वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत जातिच्युत और अछूत माना जाता है, परंतु दलितों के अंदर भी एक वर्ण व्यवस्था है, जिसमें विभिन्न जातियों का पदक्रम निर्धारित है। इन जातियों के लोग अपनी जाति से बाहर विवाह नहीं करते और उनकी आर्थिक स्थिति और सामाजिक पहचानें अलग-अलग हैं। लगभग हर जाति अपने को किसी अन्य जाति से श्रेष्ठ व ऊपर मानती है। इस कारण उन्हें एक करना टेढ़ी खीर है और इसी कारण उनमें आपस में भी सामाजिक टकराव होते रहते हैं। पूर्व अछूतों में जातिगत विभाजन के कारण राजनीतिक दृष्टि से उनके कई टुकड़ों में बंट जाने की परिघटना का गंभीर अकादमिक अध्ययन अब तक नहीं हुआ है।

जातिच्युतों में जातियां

पंजाब के एससी में रामदसिया, मजहबी, राय सिक्ख और सांसी सिक्ख धर्म का पालन करते हैं। वाल्मीकि स्वयं को हिंदू मानते हैं। रविदासियों और आदधर्मियों ने हाल में एक नए धर्म की स्थापना की है, जिसे रविदासिया धर्म का नाम दिया गया है। इस मुद्दे पर भी आंतरिक कलह हो रहा है। एक वर्ग का मानना है कि उन्हें रविदासिया धर्म के आधार पर अपनी अलग धार्मिक पहचान निर्मित करनी चाहिए तो दूसरे वर्ग का कहना है कि उन्हें सिक्ख धर्म से अपना सदियों पुराना नाता बनाए रखना चाहिए, क्योंकि गुरूग्रंथ साहब में गुरू रविदास (रायदास) के दोहे भी शामिल हैं। यद्यपि आदधर्मियों और रविदासियों के एक हिस्से ने अपना अलग धर्म स्थापित कर लिया है, फिर भी उनमें से अनेक अब भी सिक्ख रस्मो-रिवाजों का पालन करते हैं और अपनी रविदासिया अस्मिता को सुरक्षित रखते हुए विभिन्न डेरों/पंथों के सामाजिक-आध्यात्मिक दर्शन से भी जुड़े हुए हैं। इस तरह वे एक साथ दो पंथों का आचरण कर रहे हैं। उनमें से अधिकांश पंजाब के दोआब क्षेत्र में रहते हैं और मांझा इलाके में भी उनकी कुछ आबादी है। मजहबी मुख्यतः मांझा और मालवा क्षेत्रों में रहते हैं। रामदासिया और राय सिक्खों की अधिकांश आबादी मालवा में निवास करती है। वाल्मीकि दोआब और मालवा दोनों क्षेत्रों के वासी हैं।

जहां तक राजनैतिक वफादारियों का सवाल है, चमारों और वाल्मिीकियों का जुड़ाव कांग्रेस है, जबकि मजहबी, रामदसिया, राय सिक्ख और सांसी अकाली दल के समर्थक हैं। परंतु ये वफादारियां स्थायी नहीं हैं और चुनावी गणित के साथ बदलती रहती हैं। पंजाब में दलितों की जो 39 जातियां हैं, उनमें से 4 प्रमुख हैं और वे पंजाब की कुल एससी आबादी का 74.44 प्रतिशत हैं। वे हैं– चमार (23.45 प्रतिशत), आदधर्मी (11.48 प्रतिशत), वाल्मीकि (9.78 प्रतिशत) और मजहबी (29.72 प्रतिशत)। इन चार प्रमुख जातियों को दो समूहों में विभाजित किया जाता है– वाल्मिीकी/मजहबी व चमार।[1] राय सिक्ख समुदाय को एससी में शामिल किए जाने के पहले ये दो मुख्य एससी जाति समूह राज्य में एससी की कुल आबादी का 83.9 प्रतिशत थे। सन् 2001 की जनगणना के अनुसार, कुल एससी आबादी में वाल्मीकि/मजहबी जाति समूह का प्रतिशत 42.8 और चमार जाति समूह का 41.1 प्रतिशत था। इन दोनों समूहों में मजहबियों की आबादी सबसे ज्यादा है। उनके बाद चमार, आद धर्मी और वाल्मीकि हैं। शेष 35 जातियां राज्य की कुल एससी आबादी के एक-तिहाई से भी कम (25.56 प्रतिशत) हैं। उनमें भी अनेकानेक विभिन्नताएं हैं और उन्हें दो समूहों में बांटा जाता है। एक समूह में 18 विमुक्त और अवनत जातियां हैं तो दूसरे में 18 गौण/अदृश्य जातियां हैं। विमुक्त जातियां वे हैं, जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने अपने कुख्यात क्रिमिनल ट्राईब्स एक्ट 1871 के तहत आपराधिक जनजाति घोषित कर दिया था। अवनत जातियों में छोटी-छोटी एससी जातियां शामिल हैं, जो सबसे ज्यादा हाशियाकृत हैं और जिन्हें पंजाब सरकार ने विभिन्न कल्याण योजनाअें के तहत विशेष सहायता देने हेतु एक समूह में वर्गीकृत किया है।

पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी

वाल्मीकि-मजहबी जाति समूह (39.5 प्रतिशत) में दो मुख्य एससी जातियां वाल्मिीकी और मजहबी शामिल हैं। पिछले कुछ वर्षों से वाल्मीकि/आंबेडकरवादी अस्मिता ने वाल्मीकि समुदाय के कई तबकों में जगह बना ली है। कलम हाथ में लिए हुए वाल्मीकि का चित्र, जिसके नीचे डॉ. आंबेडकर का चित्र होता है और जिस पर शिक्षित बनो, आंदोलन करो, संगठित हो का प्रेरक नारा लिखा रहता है, वाल्मीकि/आंबेडकरवादी पहचान का प्रतीक बन गया है। इस गठजोड़ का उद्धेश्य वाल्मीकियों – जो पंजाब की एससी जातियों में सबसे कम शिक्षित हैं[2] में शिक्षा और जागृति का प्रसार करना है। इस गठजोड़ से वाल्मीकियों को यह समझ में आया है कि शिक्षा उनकी सामाजिक प्रगति में किस प्रकार सहायक हो सकती है। इसके साथ ही अपने प्रतिद्वंद्वी चमार जाति समूह के प्रति बैरभाव रखने की निरर्थकता का अहसास भी उन्हें हुआ है।

वाल्मीकि/मजहबी जाति समूह के जिन सदस्यों ने सिक्ख धर्म अंगीकार कर लिया है, वे मजहबी कहलाते हैं और बाबा जीवन सिंह को अपना गुरू मानते हैं। उनकी आबादी मुख्यतः माझा और मालवा क्षेत्र – फिरोजपुर, गुरदासपुर, अमृतसर, फरीदकोट, मानसा व भटिंडा जिलों – में केंद्रित हैं। वे पंचायतों की सांझा कृषि भूमि पर खेती करने के अधिकार को लेकर उग्र संघर्ष कर रहे हैं। फरीदकोट और फिरोजपुर जिलों में अन्य एससी की तुलना में उनकी आबादी अधिक है, परंतु इसके बावजूद वे एससी में सबसे वंचित वर्ग हैं, जिनकी साक्षरता दर सबसे कम 42.3 प्रतिशत है। उनमें से अधिकांश (42.2 प्रतिशत) अब भी अल्प आय वर्ग में हैं और खेतिहर श्रमिक के रूप में कार्य करते हैं। ‘सीरी’ प्रणाली (जिसके अंतर्गत मजदूर उन्हें दी गई पेशगी मजदूर या उस पर अथवा अन्य कर्जों पर देय ब्याज के कारण ज़मींदारो से जुड़े रहते था) लुप्तप्राय है और इसके केवल छिटपुट मामले मालवा क्षेत्र में देखे जा सकते हैं। मज़हबी सिक्खों की स्थिति में पिछले कुछ दशकों में सुधार आया है। विशेषकर 1975 से पंजाब में उप-कोटे की विवादस्पद नीति लागू किये जाने के बाद से।

चमार जाति समूह

चमार जाति समूह (जो एससी की कुल आबादी का 34.93 प्रतिशत है) में दो जातियां शामिल हैं– चमार और आदधर्मी। असल में तो चमार भी जातियों का एक समूह है, जिसमें चमार, जटिया चमार, रेह्गर, रैगर, रामदासिया और रविदासिया शामिल हैं। यद्यपि यह जाति समूह मुख्यतः पंजाब के दोआब क्षेत्र तक सीमित है तथापि गुरदासपुर, रूपनगर, लुधियाना, पटियाला और संगरूर जिलों में भी चमारों की खासी आबादी है। पारंपरिक रूप से चमारों को ‘स्पर्श्य’ जातियों द्वारा इसलिए अस्पृश्य और प्रदूषणकारक माना जाता रहा है क्योंकि अपने काम के चलते वे मृत पशुओं और उनकी खाल के संपर्क के आते हैं। परन्तु वे अपने को चन्द्रवंशी और एससी जातियों में सबसे उच्च मानते हैं। सन् 1920 के दशक के मध्य में उनमें से कुछ ने जालंधर शहर के बाहरी इलाके में चमड़े का बड़ा और अत्यंत समृद्ध बाज़ार (बूटा मंडी) स्थापित किया। पंजाब में सन् 1920 के दशक के मध्य में उभरे आद धर्म आंदोलन के पीछे भी मुख्यतः चमार ही थे। सन् 1931 की जनगणना में उनमें से कई ने स्वयं को नवस्थापित आद धर्म का अनुयायी घोषित किया। परंतु देश के आजाद होने के बाद आद धर्म को एक एससी जाति – आदधर्मी का दर्जा दे दिया गया।

रविदासिया और रामदासिया यद्यपि चमार जाति समूह का हिस्सा हैं, परंतु वे स्वयं को इस समूह की अन्य जातियों से उच्च मानते हैं। रविदासियों और रामदासियों के बीच मुख्यतः पेशागत अंतर है। जो चमार चमड़े का काम करते हैं, वे रविदासिया कहलाते हैं और जिन चमारों ने सिक्ख धर्म स्वीकार कर जुलाहे का काम करना शुरू कर दिया है, उन्हें रामदासिया कहा जाता है। जिन हिन्दू जुलाहों ने सिक्ख धर्म नहीं अपनाया वे जुलाहे कहलाते हैं। जुलाहों को कबीरपंथी भी कहा जाता है और वे एससी की एक अलग जाति माने जाते हैं। रामदासियों ने चौथे सिक्ख गुरू, गुरू रामदास के काल में सिक्ख धर्म अपनाया था और इसलिए वे रामदासी कहलाते हैं।[3] उनमें से अधिकांश सहजधारी सिक्ख (जो गुरूग्रंथ साहिब में आस्था रखते हैं परंतु सिक्ख धर्म के बाह्य प्रतीक नहीं अपनाते) हैं। मान्यवार कांशीराम दाढ़ी नहीं रखते थे, परंतु वे रामदासिया सिक्ख थे। रामदासिया सिक्खों को खालसा बिरादरी भी कहा जाता है। यद्यपि रामदासिया सिक्ख हैं, परंतु उन्हें एससी की सूची में चमार हिंदू जाति के अंतर्गत रखा गया है। रविदासिया (चमड़े का काम करने वाले) और रामदासिया (जुलाहे) अपनी जाति के बाहर विवाह नहीं करते। उन्हें अक्सर भूलवश सिक्ख समझ लिया जाता है क्योंकि उनमें से कई दाढ़ी रखते हैं, अपने बाल नहीं काटते और गुरूग्रंथ साहब में श्रद्धा रखते हैं, परंतु बहुत से स्वयं को सिक्ख नहीं मानते। इसमें कोई संदेह नहीं कि सिक्ख धर्म और रविदासिया पंथ के बीच परस्पर मजबूत रिश्ते हैं, परंतु 30 जनवरी 2010 को रविदासिया पंथ ने अपने आपको एक अलग धर्म – रविदासिया धर्म – का अनुयायी घोषित कर दिया था।

पंजाब के एससी समुदाय के सदस्य प्रदर्शन करते हुए

विमुक्त और अवनत जाति समूह

विमुक्त और अवनत जाति समूह में 13 अवनत जातियां और 8 विमुक्त जातियां शामिल हैं। ये हैं बाजीगर (कुल एससी आबादी का 2.72 प्रतिशत), डुमना/महाशा/डूम (2.29 प्रतिशत), मेघ (1.59 प्रतिशत), बोरिया/बावरिया (1.41 प्रतिशत), सांसी/भेड़कुट/मनेश (1.38 प्रतिशत), पासी (0.44 प्रतिशत), ओड (0.36 प्रतिशत), कोरी, कोली (0.28 प्रतिशत), सरेरा (0.16 प्रतिशत), खटीक (0.16 प्रतिशत), सिकलीगर (0.13 प्रतिशत), बरार/बुरार/बेरार/बराड़ (0.10 प्रतिशत), बंगाला/ बांग्ला (0.05 प्रतिशत) एवं भांजरा (0.04 प्रतिशत)। इन 13 विमुक्त जातियों में से 4 – बंगाला, बोरिया, बाजीगर भंजरा और सांसी (1.38 प्रतिशत) – को डीनोटिफाईड ट्राईब्स के रूप में चिन्हित किया गया है। अवनत जाति श्रेणी में बाजीगर और भांजरा को अलग-अलग जातियों के रूप में सूचीबद्ध किया गया है। आठ विमुक्त जातियां हैं – बंगाला (0.05 प्रतिशत), बराड़ (0.10 प्रतिशत), बोरिया (1.41 प्रतिशत), बाजीगर भांजरा (2.76 प्रतिशत), गंडीला/गांडिल/गोंडोला (0.04 प्रतिशत), नट (0.04 प्रतिशत), सांसी (1.38 प्रतिशत) व राय सिक्ख (5.83 प्रतिशत)। राय सिक्खों को हाल ही में इस जाति समूह में जोड़ा गया है। राय सिक्ख उन समुदायों में से एक थे, जिन्हें अंग्रेजों ने क्रिमिनल ट्राईब्स एक्ट, 1871 के तहत आपराधिक जनजाति घोषित किया था। राय सिक्ख, जो पहले महत्तम कहलाते थे, पंजाब की पांचवी सबसे बड़ी (5.83 प्रतिशत) एससी जाति हैं। उनसे अधिक आबादी की घटते हुए क्रम में चार एससी जातियां हैं– चमार, आद धर्मी, वाल्मीकि और मजहबी। जहां तक सामाजिक दर्जे का सवाल है, ‘स्पृश्य’ जातियां उन्हें (पूर्व) अस्पृश्य जातियों के समकक्ष मानती हैं। यद्यपि उन्हें 1952 में ही ‘डीनोटिफाई’ कर दिया गया था, परंतु आज भारत की स्वाधीनता के 70 साल बाद भी उन्हें आपराधिक कृत्यों से जोड़ा जाता है। वे अपनी जाति से बाहर शादी नहीं करते और अपने कुल के अंदर भी विवाह नहीं करते। वे मुख्यतः फिरोजपुर, कपूरथला, जालंधर और लुधियाना जिलों में रहते हैं। करीब 35 विधानसभा और 7 लोकसभा क्षेत्रों में उनकी खासी आबादी है। राय सिक्ख पंजाब विधानसभा और संसद में अपने लिए सीटों का आरक्षण किए जाने की मांग करते रहे हैं।

गौण/अदृश्य जाति समूह

इस जाति समूह में 18 अनुसूचित जातियां (बटवाल/बरवाला, चानल, दागी, दरायन, देहा/ढ़ाया/ढ़ीया, धानक, डोगरी/धाँगरी/सिग्गी, गागरा, कबीरपंथी/जुलाहा, मरीजा/मरेच्छा, परना, फिरेरा, सनहाई, सनहाल, संसोई, सपेला, सिकरीबन व मोची) शामिल हैं, जो राज्य की कुल एससी आबादी का 10 प्रतिशत हैं। कुछ जातियों जैसे चानल, परना और फिरेरा की कुल आबादी 100 से भी कम है। धानक (1.01 प्रतिशत) को छोड़कर इस समूह की किसी भी जाति की आबादी राज्य की एससी आबादी के एक प्रतिशत से अधिक नहीं है। इनमें से कई जातियों के लोग शहरों में रहने लगे हैं और असंगठित निजी क्षेत्र में श्रमिक के रूप में कार्य कर रहे हैं। इन जातियों की आबादी बहुत कम है और उनके पारंपरिक व वंशानुगत पेशों की प्रासंगिकता समाप्त हो गई है। इसके चलते ये जातियां सामाजिक परिदृश्य से ओझल हो गई हैं और राज्य में जाति के मुद्दे पर विमर्श में उनकी चर्चा तक नहीं होती।

एससी बनाम गैरएससी

एससी के अंतर्गत आने वाली जातियों में फूट और विभाजन के पीछे राजनीति और धर्म का घालमेल और एससी आरक्षण नीति के आसपास की जा रही विघटनकारी राजनीति भी हैं। वाल्मीकि/मजहबी व चमार जाति समूह विभिन्न पंथों के साथ अपनी संबद्धता के आधार पर तो बंटे हुए हैं ही वे पंजाब की एससी आरक्षण नीति से उन्हें मिलने वाले लाभ के विभिन्न स्तरों के आधार पर भी बंटे हुए हैं। वे संस्कृति और धर्म के आधार पर तो बंटे हुए हैं ही, उनके शैक्षणिक स्तर और आर्थिक स्थिति में बड़े अंतर के कारण भी वे एक-दूसरे से अलग हैं।

आद धर्मी और चमार अन्य सभी एससी से काफी आगे हैं। वे राज्य में शैक्षणिक संस्थाओं, सरकारी नौकरियों और विधान मंडल में एससी के लिए आरक्षण के मुख्य लाभार्थी हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने चमड़े, सर्जिकल उपकरणों और खेल सामग्री उद्योगों पर मजबूत पकड़ बना ली है। उनमें से कई यूरोप, उत्तरी अमरीका और मध्य-पूर्व देशों में जा बसे हैं, जिससे उनके सामाजिक दर्जे में जबरदस्त सुधार आया है। वे व्यापार में अग्रणी हैं और कई ऐसे पेशों में भी, जिनमें विशेष प्रकार के कौशल की जरूरत होती है। उन्होंने सामाजिक और धार्मिक संगठनों, अंतर्राष्ट्रीय दलित सम्मेलनों, रविदास सभाओं और डेरों व गुरूद्वारों के जरिए अपना मजबूत नेटवर्क तैयार कर लिया है। वे अपनी विशिष्ट धार्मिक पहचान के प्रतीकों को सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करने में गर्व का अनुभव करते हैं और अपने समुदाय और उसकी सांस्कृतिक विरासत को बढ़ावा देने का हर संभव प्रयास करते हैं।

वाल्मीकि/मजहबी जाति समूहों की आबादी चमार जाति समूह से ज्यादा है, परंतु शिक्षा, सरकारी नौकरियों और पश्चिमी देशों में बसने के मामले में वे चमार जाति समूह से काफी पीछे हैं। वे अपने पिछड़ेपन और उपेक्षा के लिए चमार जाति समूह को दोषी ठहराते हैं और उनका आरोप है कि चमार जाति समूह के सदस्यों ने आरक्षित पदों के एक बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया है। इस जाति समूह में वाल्मीकि (हिंदू) और मजहबी (सिक्ख) जातियों के बीच भी फूट है, परंतु दोनों ने चमार जाति समूह के विरूद्ध संयुक्त मोर्चा खोलकर अपने लिए आरक्षण के अन्दर आरक्षण हासिल कर लिया है।

पंजाब की शासकीय सेवाओं में 25 प्रतिशत आरक्षण कोटे को सन् 1975 में ज्ञानी जैलसिंह के मुख्यमंत्रित्वकाल में 12.5 प्रतिशत के दो हिस्सों में विभाजित कर दिया गया था। एक उप-कोटा वाल्मीकि और मजहबी जातियों के लिए था और दूसरा शेष 37 एससी जातियों के लिए। कई वर्षों बाद 5 अक्टूबर, 2006 को इस उपवर्गीकरण को कानूनी जामा पहनाया गया। पंजाब शेड्यूल्ड कास्टस एंड बेकवर्ड क्लासिस (रिजर्वेशन इन सर्विसिस) एक्ट 2006 का खण्ड 4(5) कहता है “सीधी भर्ती से भरे जाने वाले पदों में एससी के लिए आरक्षित पदों में से 50 प्रतिशत पर नियुक्ति में वाल्मीकि और मजहबी सिक्खों को प्रथम वरीयता दी जाएगी।” इन उप-कोटों के निर्धारण के कारण वाल्मीकि/मजहबी व चमार जाति समूहों के बीच का धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विभाजन और गहरा हुआ और इससे वाल्मीकि (हिंदू) और मजहबी (सिक्ख) एससी जातियों में एकता का भाव बढ़ा।

इन दोनों जाति समूहों के अपने-अपने पंथ, गुरू, तीर्थस्थल, आराधना स्थल, दैव चित्र और पवित्र ग्रंथ हैं। जहां आद धर्मियों और चमारों के लिए डेरा सचखंड बल्ला, जालंधर व श्री गुरू रविदास जन्मस्थान मंदिर, सीर गोवर्धनपुर, वाराणसी सबसे पवित्र स्थल हैं, वहीं वाल्मीकियों और मजहबियों की श्रद्धा अमृतसर के वाल्मिीकी तीरथ धाम में है। यही बात पवित्र ग्रंथों के बारे में भी सही है। ‘अमृतवाणी श्री गुरू रविदासजी महाराज’ को रविदासी श्रद्धा से देखते हैं तो वाल्मीकियों के लिए ‘योग वशिष्ठ’ उतना ही महत्वपूर्ण है। रविदासियों के शिरोमणि संत गुरू रविदास हैं। वाल्मिीकियों के आदि गुरू महर्षि वाल्मीकि हैं और मजहबियों के सबसे बड़े संत बाबा जीवनसिंह हैं। रविदासियों के आरधना स्थल डेरे कहलाते हैं जबकि वाल्मीकि अपने आरधाना स्थलों को अनंत (आदि धर्म मंदिर) कहते हैं। रविदासी एक-दूसरे का ‘जय सनातन दी’ कहकर अभिवादन करते हैं और अपने धार्मिक आयोजनों का अंत ‘जो बोले सो निर्भय, श्री गुरू रविदास महाराज की जय’ के नारे से करते हैं। वाल्मीकि एक-दूसरे से मिलने पर ‘जय वाल्मीकि’ कहते हैं और धार्मिक आयोजनों में ‘जो बोले सो निर्भय, सृष्टिकर्ता वाल्मिीकी दयावान की जय’ का नारा लगाते हैं।

चमार और वाल्मिीकी/मजहबी जाति समूहों के बीच इस सामाजिक-धार्मिक फूट का फायदा मुख्यधारा की सभी राजनैतिक पार्टियों ने उठाया है। कांग्रेस और शिरोमणि अकाली दल दोनों ने चमारों और आद धर्मियों के विरोध के बावजूद वाल्मीकियों और मजहबियों की आरक्षण में उप-कोटा की मांग का समर्थन किया था. उप-कोटा का निर्धारण करने वाले 2006 के कानून के खिलाफ एक याचिका अभी भी उच्चतम न्यायालय में लंबित है।

किसी एक जाति समूह को राजनैतिक दलों के समर्थन से अंतरसमूह विभाजन और गहरे होते हैं और इससे सभी दलितों की एकता स्थापित होने की संभावना समाप्त हो जाती है। चमारों और आद धर्मियों को ऐतिहासिक आद धर्म आंदोलन के संघर्ष में वाल्मिीकियों और मजहबियों का समर्थन नहीं मिला और इसी तरह चमार और आद धर्मी तलहन, मेहम और वियना (आस्ट्रिया) में हुई झड़पों के मामले में चमारों और आद धर्मियों ने वाल्मीकियों और मजहबियों का साथ नहीं दिया। वाल्मिीकी/मजहबी और चमार जाति समूह के बीच टकराव के अनेक उदाहरण हैं। चंडीगढ़ में कांग्रेस के एक सम्मेलन में पार्टी के वाल्मीकि-मजहबी और आद धर्मी-चमार गुटों के बीच कटु विवाद हुआ था। कारण था पार्टी द्वारा राज्यसभा का टिकट हंसराज हंस (वाल्मीकि) की जगह शमशेर सिंह डुल्लो (आद धर्मी) को दिया जाना। विमुक्त जातियां चाहती हैं कि उन्हें एससी की बजाए एसटी में शामिल किया जाय। यह मांग भी दलित एकता के लिए खतरा है। इन जातियों का मानना है कि वे राजपूतों की वंशज हैं और उनके दादे-परदादों ने रणनीति के तहत पहले मुगलों और फिर अंग्रेजों से लड़ने के लिए खानाबदोश के रूप में जीना प्रारंभ कर दिया था।

[1] वाल्मीकि/मजहबी जातियों के लिए अपमानजनक शब्द ‘चुहड़ा’ या ‘भंगी’ का इस्तेमाल भी किया जाता है। चमार शब्द को भी अनादरपूर्ण माना जाता है। जनगणना के आंकड़ों में जातियों के जो नाम दिए गए हैं उन्हें इस लेख में अकादमिक विश्लेषण के लिए प्रयुक्त किया गया है। इन शब्दों के प्रयोग से अगर किसी को ठेस पहुंची हो तो उसके लिए हमें खेद है।

[2] वाल्मीकि-आंबेअम्बेडकरवादी पहचान के हिमायती और पंजाब के वाल्मीकि समाज के सामाजिक-सांस्कृतिक व धार्मिक संगठन आदि धर्म समाज के संस्थापक दशरथ रतन रावन से आर. एस. डी. कालेज, फिरोजपुर में 17 मार्च 2015 को लेखक से हुई बातचीत पर आधारित।

[3] रामदासिया समुदाय के अनेक सदस्यों से लेखक की बातचीत पर आधारित

(अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, संपादन : नवल/अनिल)


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रौनकी राम

रौनकी राम पंजाब विश्वविद्यालय,चंडीगढ़ में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर हैं। उनके द्वारा रचित और संपादित पुस्तकों में ‘दलित पहचान, मुक्ति, अतेय शक्तिकरण’, (दलित आइडेंटिटी, इमॅनिशिपेशन एंड ऍमपॉवरमेंट, पटियाला, पंजाब विश्वविद्यालय पब्लिकेशन ब्यूरो, 2012), ‘दलित चेतना : सरोत ते साररूप’ (दलित कॉन्सशनेस : सोर्सेए एंड फॉर्म; चंडीगढ़, लोकगीत प्रकाशन, 2010) और ‘ग्लोबलाइजेशन एंड द पॉलिटिक्स ऑफ आइडेंटिटी इन इंडिया’, दिल्ली, पियर्सन लॉंगमैन, 2008, (भूपिंदर बरार और आशुतोष कुमार के साथ सह संपादन) शामिल हैं।

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आघाड़ी के नेता प्रकाश आंबेडकर ने अपनी ओर से सात उम्मीदवारों की सूची 27 मार्च को जारी कर दी। यह पूछने पर कि वंचित...
‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा में मेरी भागीदारी की वजह’
यद्यपि कांग्रेस और आंबेडकर के बीच कई मुद्दों पर असहमतियां थीं, मगर इसके बावजूद कांग्रेस ने आंबेडकर को यह मौका दिया कि देश के...
इलेक्टोरल बॉन्ड : मनुवाद के पोषक पूंजीवाद का घृणित चेहरा 
पिछले नौ सालों में जो महंगाई बढ़ी है, वह आकस्मिक नहीं है, बल्कि यह चंदे के कारण की गई लूट का ही दुष्परिणाम है।...
कौन हैं 60 लाख से अधिक वे बच्चे, जिन्हें शून्य खाद्य श्रेणी में रखा गया है? 
प्रयागराज के पाली ग्रामसभा में लोनिया समुदाय की एक स्त्री तपती दोपहरी में भैंसा से माटी ढो रही है। उसका सात-आठ माह का भूखा...