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अमीर-ए-शहर की हमदर्दियों से बच के रहना …

यह तथाकथित सेक्युलर नेताओं का सैद्धांतिक दिवालियापन है। कई बार तो ये नेता भाजपा को मात देने के नाम पर “सॉफ्ट हिन्दुत्व” की राह पर चल निकलते हैं। मुसलमानों के परंपरागत नेतृत्व, धार्मिक हो या राजनीतिक में से अधिकांश ने इन सवालों पर भाजपा के सामने घुटने टेक दिए। बता रहे हैं अली अनवर

उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) अपनी परंपरागत मुस्लिम विरोधी राजनीति से थोड़ा हटकर एक नए तरह का प्रयोग कर रही है। पहली बार भाजपा नेताओं की ज़बान से ‘पसमांदा मुसलमान’ शब्द सुनने को मिल रहा है। जाहिर है, इसका मकसद पिछड़े मुसलमानों को अपने पाले में लाने की कोशिश करना है। यहीं गौर करने की बात यह भी है कि एआईआईएम के नेता असद्दुदीन ओवैसी की जबान पर भी इन दिनों गाहे-बगाहे पसमांदा मुस्लिम’ शब्द आने लगा है। मगर, दूसरी तरफ सेक्युलर पार्टियां अभी भी ‘पसमांदा’ से परहेज करती दिख रही हैं। पसमांदा एक उर्दू-फारसी का शब्द है जिसका अर्थ ‘पीछे छूटे हुए लोग’ होता है। इस नाम की कोई एक बिरादरी नहीं है। बल्कि यह एक जमात सूचक शब्द है।

आखिर माजरा क्या है? जिन पार्टियों को पसमांदा मुसलमान वोट नहीं देते हैं, वे तो इनका नाम रट रही हैं और जिन्हें वोट देते हैं, वे इनका नाम लेने से परहेज कर रही हैं! एक तरफ पसमांदा-पसमांदा ‘रटंत’ का शोर और दूसरी तरफ ‘परहेज’ करती-सी चुप्पी। ‘सांप्रदायिकता’ की ‘मुखर’ राजनीति और ‘सेक्युलरिज्म’ की ‘चुप्पा’ राजनीति के बीच पिस रहा है ‘पसमांदा’ मुसलमान।

वर्ष 1998 में जब हमने पहली बार पटना में ‘पसमांदा मुस्लिम महाज’, बिहार नाम से एक सामाजिक संगठन की स्थापना की और लोगों की मांग पर उसके दो साल बाद इसको राष्ट्रीय संगठन में बदलते हुए ‘ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज’ नाम दिया, जो देखते-देखते यह नाम काफी मशहूर हो गया। जाहिर है, सियासी या समाजी जिंदगी में कोई लफ्ज़ अल्फाज़ बन कर चल निकलता है, तो कई ठग उसकी नकल भी करने लगते हैं। यह समाज के अंदर से भी होता है और बाहर से भी उसको भुनाने की कोशिश की जाती है। भाजपा आजकल इसी तरह की कोशिश में लगी हुई है। 

सवाल यह भी उठता है कि आखिर क्यों भाजपा पसमांदा मुसलमानों से वोट पाने की उम्मीद पाल रही है? इसकी वजह कहीं यह तो नहीं है कि भाजपा राज में सेक्युलर पार्टियां आमतौर पर सभी मुसलमानों और खासकर पसमांदा मुसलमानों को नज़रअंदाज कर रही हैं?

सबसे पहले हम देखें, भाजपा पसमांदा मुसलमानों को साधने के लिए कर क्या रही है? पिछले दिनों भाजपा ने यूपी के रामपुर शहर से “हुनर हाट” के नाम से एक अभियान शुरू किया है। इसी जगह दस्तकार, शिल्पी हिन्दू जातियों को फांसने के लिए “विश्वकर्मा हाट” भी लगा। बीते 16 अक्टूबर, 2021 को रामपुर से यह प्रदर्शनी आयोजित की गई, जो 25 अक्टूबर, 2021 तक चली। सूचना के अनुसार इस हाट में 30 राज्यों तथा केन्द्र शासित प्रदेशों से दस्तकारों शिल्पकारों को उनके द्वारा उत्पादित सामानों के साथ बुलाया गया। इस हुनर हाट और विश्वकर्मा हाट में न सिर्फ मुफ्त स्टॉल मिला, बल्कि प्रत्येक दस्तकार, शिल्पी को डेढ़-डेढ़ हजार रुपये प्रतिदिन के हिसाब से भुगतान भी सरकार ने किया। इतना ही नहीं, दस्तकारों और शिल्पियों को ‘मार्गदर्शक’ के रूप में अपने साथ एक और व्यक्ति को लाना था, जिसके आने-जाने का किराया तथा माल ढुलाई आदि का खर्च भी सरकार ने दिया। इस अभियान की कमान सीधे केंद्र सरकार के तीन वरिष्ठ मंत्रियों मुख्तार अब्बास नकवी, धर्मेंद्र प्रधान और अर्जुन राम मेघवाल के हाथ में दी गई है। इस तरह के हाट लखनऊ, इलाहाबाद में भी लगाए जाएंगे। इस अभियान के तहत भाजपा 200 सभाएं भी करेगी। इस तरह, यूपी सहित पांच चुनावी राज्यों में भाजपा पहली बार मुसलमान मतदताओ को साधने के लिए अपनी टीम मैदान में उतारेगी। बकौल मुख्तार अब्बास नकवी इसका ‘ब्लू प्रिंट’ तैयार हो गया है।

सदियों पुरानी एक कहावत है कि “शिकारी आएगा, जाल बिछाएगा, दाना डालेगा, लोभ से उसमें फंसना नहीं।” सवाल उठता है कि क्या हिंदू-मुसलमानों का दलित आदिवासी, पिछड़ा–अतिपिछड़ा तबका भाजपा शासन के दौरान अपनी तमाम बदहाली, प्रताड़ना, शोषण, हकमारी को भूलकर इस जाल में फंस जाएगा? सवाल यह भी है कि क्या आज़ादी के इतने साल बाद भी इन तबकों के लोग इतने समझदार नहीं हुए कि वे भेड़ की खाल में आये भेड़िया को पहचान सकें?

बीते 16-25 अक्टूबर, 2021 को उत्तर प्रदेश के रामपुर में आयोजित हुनर हाट की तस्वीर

वैसे, देश के पढ़े-लिखे आमलोग समझते हैं कि इतनी तमीज तो इन तबकों में आ ही गई है, क्योंकि मोदी सरकार के नोटबंदी जैसे तुगलकी फरमान से असंगठित क्षेत्र में काम करनेवाले इन्हीं तबकों के ज़्यादा लोग बेरोजगार व तबाह, बर्बाद हुए हैं। कोरोना संकट और लॉकडाउन में भी सबसे ज़्यादा मरा-खपा यही तबका है। आज महंगाई,बेरोजगारी, भुखमरी की चपेट में सबसे ज्यादा यही तबका है। गंगा में तैरती लाशों में अधिकतर लाशें इन्हीं तबकों के लोगों की थी।, कब्रिस्तानों में दफन व श्मशान घाटों में दाह संस्कार के लिए घंटों इंतेजार करते ज्यादातर लोग भी इन्हीं तबकों के थे।

लव जेहाद, घर वापसी, गोरक्षा और मॉब लिंचिंग के जरिए इन्हीं तबकों को निशाना किया गया। अखलाक से लेकर जुनैद, पहलू खान और तबरेज अंसारी तक दर्जनों जिन बेगुनहगाहों को मारा-काटा गया, वे सभी इन्हीं तबकों से आते हैं। नजीब के साथ जेएनयू में एबीवीपी समर्थकों ने मारपीट की और उसे अगवा कर लिया। करीब 5 साल गुजर गये, लेकिन उसका पता आजतक नहीं चला और ना ही इस संबंध में किसी की गिरफ्तारी ही हुई है।

बहुत दिन नहीं हुए जबजेएनयू में घुसकर नकाबपोश गुंडों ने जिस तरह छात्र-छात्राओं के साथ मारपीट की, वे आज भी छुट्टा घूम रहे हैं। जामिया के अंदर घुसकर पुलिस ने जिस तरह छात्र-छात्राओं के साथ मारपीट की, उसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई है। उल्टे भाजपा विरोधी छात्र नेताओं-नेत्रियों को ही गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। राष्ट्रीय नागरिकता पंजी (एनआरसी) व नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के खिलाफ चल रहे देशव्यापी शांतिपूर्ण और लंबे आंदोलन, जिसमें महिलाओं की संख्या सबसे ज्यादा थी, उन्हें तथा उनकी तरफदारी करने वाले लोगों को गद्दार बताते हुए गोली मारने की धमकी मोदी सरकार के मंत्रियों-नेताओं ने भरी सभा में दी। फिर दिल्ली को साम्प्रदायिक दंगे की आग में झोंका गया। इस दंगे में दर्जनों लोग मारे गए। हजारों घर, दूकान जला दिए गये। उन मंत्रियों नेताओं के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई। उल्टा पीड़ितों के पक्ष में बोलने वालों को जेल में ठूस दिया गया। क्या ये तबके आसानी से इन वारदातों को भूल जाएंगे? क्या पसमांदा मुसलमान या हिंदू अथवा दूसरे लोग इतने बेगैरत हो गये हैं कि भाजपा सरकार रोटी के टुकड़े फेंकेगी और जानवर की तरह वे उस पर टूट पड़ेंगे?

सवाल यह भी उठता है कि आखिर क्यों भाजपा पसमांदा मुसलमानों से वोट पाने की उम्मीद पाल रही है? इसकी वजह कहीं यह तो नहीं है कि भाजपा राज में सेक्युलर पार्टियां आमतौर पर सभी मुसलमानों और खासकर पसमांदा मुसलमानों को नज़रअंदाज कर रही हैं? उनके द्वारा नज़रअंदाज किये जाने के दो कारण हैं। एक तो उनकी ‘समझ’ है कि मुसलमानों को तवज्जो देने से भाजपा के पक्ष में हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण में आसानी होगी। दूसरी वजह यह भी हो सकती है कि इन दलों के नेता समझते हैं कि मुसलमान (खासकर पसमांदा) उन्हें वोट देंगे नहीं, तो जाएंगे कहां? यह स्थिति वहां साफ तौर पर दिखती है जहां भाजपा और किसी सेक्युलर पार्टी के उम्मीदवारों के बीच सीधा मुकाबला होता है। पसमांदा मुसलमानों को नजरअंदाज करने के पीछे के प्रमुख कारण अगड़ी जातियों के मुसलमान नेता और मजहबी ‘एदारे’ भी रहे हैं। सेक्युलर पार्टियों के नेता यह समझते हैं कि अगर मुसलमानों में पसमांदा की बात करेंगे तो सभी पार्टियों तथा मजहबी एदारों पर काबिज़ बा-रसूख अगड़ी जाति के मुस्लिम नेता उनसे नाराज हो जाएंगे।

आज एक और दीगर सवाल मुंह बाए खड़ा है। वह यह कि ओवैसी साहब क्यों और किस तरह उत्तर प्रदेश में भाजपा की मुखालफत के बहाने सेक्युलर पार्टियों का खेल बिगाड़ना चाहते हैं? पिछले विधानसभा चुनाव में वह यह काम बिहार में कर चुके हैं। बंगाल विधानसभा चुनाव में वह अपने मकसद में कामयाब इसलिए नहीं हो सके कि बंगाल में ममता बनर्जी ने भाजपा के डर से मुसलामानों को नजरअंदाज नहीं किया। दरअसल, भारत में ‘सेक्युलर’ नामधारी पार्टियों की राजनीति का यह वह ‘लूप होल’ (सुराख) है, जहां से ओवैसी जैसे लोगों को देश की मुस्लिम सियासत में पैर जमाने की जगह मिलती रही है।

सेक्युलरिज्म भारत के संविधान का सिर्फ एक शब्द नहीं है, बल्कि उसकी मूल भावना और आत्मा है। अगर यह शब्द गौण हो जाए तो इसका व्यवहारिक मतलब होता है– धर्म आधारित राज्य। आज की हकीकत यही है कि भारत कहने के लिए सेक्युलर रह गया है। मुसलमानों के साथ दोयम दर्जे के नागरिक जैसा व्यवहार हो रहा है।

इस कठोर तथ्य को और साफ़ तरीके से समझने के लिए इस सवाल पर गौर किया जा सकता है कि आज आखिर क्यों मीडिया ओवैसी को इतनी पब्लिसिटी दे रही है? आज मीडिया में यह नजारा आम है कि संसद के अंदर और संसद के बाहर ओवैसी व भाजपा ‘नूरा कुश्ती’ करते दीखते हैं या फिर ‘चोंच लड़ाई’ करते रहते हैं।

बाबरी मस्जिद विध्वंस के पूर्व भाजपा का राजनीतिक मकसद सैय्यद शहाबुद्दीन, अब्दुला बोखारी सरीखे नेताओं से पूरा होता था। बीच के सालों में भाजपा ने मो. शहाबुद्दीन (सिवान, बिहार), आजम खां (उत्तर प्रदेश), मोख्तार अंसारी, अतीक अहमद गद्दी ( उत्तर प्रदेश) जैसे दबंग और बाहुबली मुस्लिम नेताओं पर फोकस करने की ‘नीति’ चलाई, जिसकासका उसे भरपूर राजनीतिक लाभ मिला। सो वह सत्ता में आयी। और, सत्ता में आने के बाद भाजपा को अब इनको मटियामेट करने की नीति में ज्यादा फ़ायदा दिखता है।

इस बीच मुस्लिम्म लीग की विरासत वाले बैरिस्टर ओवैसी भाजपा के लिए मुफीद साबित हो रहे हैं। अब तो कहा जा सकता है कि ओवैसी साहब ने इस काम के लिए खुद को प्रस्तुत कर दिया है। पुरानी हैदराबाद सिटी में इन साहब के मेडिकल कॉलेज और दूसरे कई तालीमी एदारे हैं। मौरूसी जायदाद की भी अफरात है। वहां इनके दबदबे से सब वाकिफ हैं। केंद्र की भाजपा सरकार, जहां विपक्षी नेताओं के पीछे ईडी, इनकम टैक्स, सीबीआई को लगा देती है। वहीं ओवैसी साहब को छूने से परहेज करती है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। जब सेक्युलर पार्टियों का खेल बिगाड़ने के ओवैसी साहब के ‘एक्शन’ से भाजपा की राजनीति को पोषण मिल रहा है, तो वह अपने ‘छापामार’ रिएक्शन से उस राजनीतिक पोषण में कटौती क्यों करे?  

यहीं पर हम याद दिलाते चलें कि 2019 का चुनाव जीतने के तुरंत बाद अपने सांसदों को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि देखो हमारी नीतियों–नेतृत्व की कामयाबी ही है कि विपक्षी दलों के नेताओं को अपने पूरे चुनाव कम्पेन में सेक्युलरिज्म शब्द जबान पर लाने की हिम्मत नहीं हुई। और, सही में वामपंथी दलों को छोड़ शायद ही किसी दल ने चुनाव प्रचार में सेक्युलरिज्म शब्द का इस्तेमाल किया!

सेक्युलरिज्म भारत के संविधान का सिर्फ एक शब्द नहीं है, बल्कि उसकी मूल भावना और आत्मा है। अगर यह शब्द गौण हो जाए तो इसका व्यवहारिक मतलब होता है– धर्म आधारित राज्य। आज की हकीकत यही है कि भारत कहने के लिए सेक्युलर रह गया है। मुसलमानों के साथ दोयम दर्जे के नागरिक जैसा व्यवहार हो रहा है। उन्हें खुलेआम निशाना बनाया जा रहा है। चूंकि मुसलमानों में 80 फीसदी आबादी पसमांदा मुसलमानों की है, इसलिए उसी अनुपात में यह तबका पीड़ित भी है। भारत में मॉब लिंचिंग में दर्जनों मुस्लिम मारे गये, मगर शायद ही कोई राष्ट्रीय नेता उनकी मातमपुर्सी के लिए पहुंचा होगा। दिल्ली में सुनियोजित तरीके से भयानक दंगा कराया गया, दर्जनों लोग मारे गये। कोई राष्ट्रीय नेता इस दौरान बचाव के लिए मैदान में नहीं उतरा। एनआरसी सीएए के खिलाफ आंदोलन में किसी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों के सुप्रीमो अपने लोगों के साथ मैदान में क्यों नहीं उतरे? कायदे से एनआरसी, सीएए की समस्या सिर्फ मुसलमानों की नहीं थी। सभी धर्मों के गरीब और पसमांदा लोग इससे पीड़ित होते। मगर, इस पर भी हल्की-फुल्की बयानबाजी और ट्वीट तथा संसद में कुछ शोर-शराबा कर ही दलीय नेताओं ने अपने कर्तव्य की इतिश्री मान ली।

दरअसल यह इन नेताओं का सैद्धांतिक दिवालियापन है। कई बार तो ये नेता भाजपा को मात देने के नाम पर “सॉफ्ट हिन्दुत्व” की राह पर चल निकलते हैं। मुसलमानों के परंपरागत नेतृत्व, धार्मिक हो या राजनीतिक में से अधिकांश ने इन सवालों पर भाजपा के सामने घुटने टेक दिए। कोई चुपके से अकेले जाकर दिल्ली के झण्डेवालान में संघ प्रमुख मोहन भागवत से मिलता है, तो कोई गृहमंत्री अमित शाह से। कोई कहीं ‘दीन (धर्म) बचाओ’ के नाम पर रैली कर एक मुर्गी के भाव दीन का सौदा कर लेता है। कहते हैं कि इन नेताओं की कमजोर नस उनके पास एफसीआरए का होना है, जिसका ठीक से हिसाब किताब इनके पास नहीं होता है। 1985 में जब 57 साल की शाहबानो को एक झटके में तलाक देकर पांच बच्चों के साथ लात मारकर उसके वकील शौहर ने घर से बाहर कर दिया तब ये मजहबी एदारे और इनके सियासी लीडर चुप रहे थे। जब निचली अदालत से लेकर हाईकोर्ट-सुप्रीम कोर्ट तक शाहबानो गुजारा भत्ता पाने की लड़ाई जीत जाती है तो ये मजहबी और सियासी लीडर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ देशभर में कोहराम मचा देते हैं। इनके दबाव में राजीव गांधी सरकार जहां एक तरफ संविधान में संशोधन कर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट देती है तो दूसरी तरफ बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाकर दूसरे पक्ष को भी खुश करने का काम करती है।

पसमांदा और दलित मुसलमान इस बात को बखूबी समझते हैं कि सच्चर कमिटी और रंगनाथ मिश्र कमीशन की सिफारिशों के बाद भी दलित मुसलमानों और ईसाइयों को अनुसूचित जाति का दर्जा नहीं दिया गया तथा छूटी हुई जातियों को अनुसूचित जनजाति में शामिल नहीं किया जा रहा है, तो इसके लिए यूपीए सरकार से लेकर पसमांदा मुसलमानों का परंपरागत नेतृत्व भी जिम्मेदार है। भाजपा अगर अपने को पसमांदा दलित मुसलमानों का हमदर्द बता रही है तो क्या वह दलित मुसलमानों को एससी में तथा मुसलमानों के छूटे हुए कबीलों को एसटी में शामिल करेगी? 

जाहिर वह ऐसा नहीं करेगी, ठीक उसी तरह जिस तरह जातीय आधारित जनगणना नहीं करा रही है। वह जानती है कि ऐसा कराने से उसके धार्मिक ध्रुवीकरण के गुब्बारे में छेद हो जाएगी।

क्या आज के भारत की यह एक तल्ख़ हकीकत नहीं है कि मुसलमानों के जान की कोई कीमत नहीं रही और ना हीं उनके वोट का कोई महत्व रह गया। मगर ऐसा सिर्फ मुसलमानों और दूसरे अल्पसंख्यकों के साथी ही नहीं, बल्कि दलित, आदिवासी एक हद तक तमाम पिछड़े और गरीबों के जान माल, इज्जत आबरू भी महफूज नहीं है। मंहगाई, बेरोजगारी, बीमारी- महमारी, बाढ़-सुखाड़, दंगा-फसाद में सबसे बुरा हाल तो सभी धर्मों के पसमांदा तबकों का ही होता है। इसलिए इन सबका इलाज सभी धर्मों के पसमांदा तबकों के बीच एकता ही है। धर्म आधारित राजनीति से तो देश और रसातल में ही चला जाएगा।

बहरहाल, राजनेता जो भी करें, हर दौर में अवाम हर तरह के जुल्म, ज्यादती, हकतल्फी के खिलाफ लड़ते रहते हैं। पसमांदा समाज को यह फख्र हासिल है कि उसने सावरकर के ‘हिंदू राष्ट्र’ और जिन्ना के दो कौमी नजरिए के खिलाफ मैदान में उतरकर लड़ाई की। आज भी यह समाज भाजपा, संघ परिवार और ओवैसी बंधुओं की नीतियों को देशहित के खिलाफ मानता है। पसमांदा समाज शुरू से हर तरह की सांप्रदायिकता तथा मज़हबी गोलबंदी के खिलाफ रहा है। साथ ही वह सेक्युलर नेताओं की गलतियों की भी निशानदेही करना अपना कर्तव्य मानता है, ताकि वे अपनी गलतियां सुधार सकें। जहां तक पसमांदा समाज का भाजपा या एआईएमआईएम जैसी किसी भी पार्टी या संगठन की तरफ मुखातिब होने का सवाल है, तो उसके अंदर इतनी तो तमीज होनी ही चाहिए कि अगर एक शैतान कुरआन की तिलावत करता दिखे और दूसरा गीता का पाठ तो खतरा और भी बढ़ जाता है।

यहां पर हम अजीम शायर मुनव्वर राणा के इस शेर के साथ अपनी बात खत्म करते हैं :

अमीर-ए-शहर की हमदर्दियों से बचके रहना,
ये सर से बोझ नहीं सर ही उतार लेते हैं।

(यह आलेख हिंदी में पूर्व में न्यूज चैनल आजतक के वेब पोर्टल पर प्रकाशित है तथा यहां इसे हम लेखक की अनुमति से प्रकाशित कर रहे हैं)

(संपादन : नवल)


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चिंतन के जन सरोकार

लेखक के बारे में

अली अनवर

लेखक पूर्व राज्यसभा सांसद तथा ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज के संस्थापक अध्यक्ष हैं

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