उत्तर प्रदेश के कासगंज में पुलिस हिरासत में पसमांदा समाज के एक युवक की मौत के बाद यह सवाल फिर उठ खड़ा हुआ है कि पुलिस ही अगर अपराध करने पर आमादा हो जाए तो कानून व्यवस्था कौन सुधारेगा? पुलिस हिरासत में किसी आरोपी या उसके रिश्तेदार की मौत की यह पहला मामला नहीं है, लेकिन सवाल यह है कि आज़ादी के 75 साल बाद भी हम एक ऐसा पुलिस तंत्र क्यों नहीं विकसित कर पा रहे हैं जिसमें जनता के प्रति ज़िम्मेदारी का भाव हो न कि लोगों में उसके नाम से डर फैले? महत्वपूर्ण यह कि यूपी पुलिस की हिरासत में जान गंवाने वाले बहुलांश दलित और पसमांदा ही होते हैं। ऐसे में सवाल यह भी कि आखिर कितनों के खून से यूपी पुलिस की प्यास बुझेगी?
उल्लेखनीय है कि कासगंज सदर कोतवाली के लॉकअप में अल्ताफ नाम के एक 22 वर्षीय युवक की संदिग्ध हालत में मौत हो गई। कासगंज के नगला सैयद गांव का रहने वाला अल्ताफ फर्श की टाइल लगाने का काम करता था। हाल ही में उसने एक घर में टाइल लगाईं और कुछ दिन बाद उस घर से एक लड़की लापता हो गई। लड़की के परिजनों ने आरोप लगाया कि अलताफ उसे भगा ले गया है। बीते 8 नवंबर की शाम को पुलिस ने पूछताछ के लिए अलताफ को हिरासत में लिया। 9 नवंबर को उसकी मौत की ख़बर उसके घर पहुंची। पुलिस ने दावा किया कि अलताफ ने लॉकअप के टॉयलेट में अपने पायजामे के नाड़े से फांसी लगा ली। उसके परिजनों ने आरोप लगाया कि अलताफ की हत्या हुई है। हालांकि बाद में परिजन अपने आरोप से पीछे हट गए।
अल्ताफ की हत्या हुई या आत्महत्या, यह सच शायद ही अब कभी सामने आए लेकिन जो लोग पुलिस की कार्यप्रणाली पर नज़र रखते हैं उनके लिए मामला साफ है। यह भी सच है कि हत्या हुई या आत्महत्या लेकिन मौत पुलिस हिरासत में हुई है। पुलिस इस मामले में या अपनी हिरासत में हुई किसी भी अन्य मौत के मामले में अपनी ज़िम्मेदारी से बच नहीं सकती है।

अलताफ की पुलिस हिरासत में मौत अपनी तरह का पहला या आख़िरी मामला नहीं है। ख़ुद सरकार इस बात को मानती है कि पुलिस हिरासत में न सिर्फ लगातार मौतें हो रही हैं, बल्कि देश भर में इनका आंकड़ा लगातार बढ़ रहा है। केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने बीते 30 जुलाई, 2021 को लोक सभा में एक प्रश्न के जवाब में बताया थ कि पुलिस या न्यायिक हिरासत में हर रोज़ तक़रीबन 5 लोगों की मौतें 2019-20 के दौरान हुई हैं। पिछले तीन साल में देश भर में कुल 5221 लोगों को हिरासत को अपनी जान गंवानी पड़ी है। इनमें सबसे ज़्यादा 1308 उत्तर प्रदेश के हैं।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ सिर्फ 2019-20 के दौरान ही हिरासत में देश की अलग-अलग जगहों पर 1731 लोगों की जान गई। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का कहना है कि, 2018 में पुलिस हिरासत में 136 लोगों की मौत हुई। 2019 में 112 और 2020 में 100 लोगों की जान पुलिस हिरासत के दौरान गई। हिरासत में होने वाली मौत के मामलों में उत्तर प्रदेश और गुजरात पुलिस का रिकॉर्ड सबसे ज़्यादा ख़राब है। इसके बाद मध्य प्रदेश, बंगाल और तमिलनाडु का नंबर आता है। कुल मिलाकर देश भर के थाने आरोपियों की मौत का गवाह बन रहे हैं और इस तरह के मामलों में कोई जवाबदेही तय कर पाने में हम या हमारा तंत्र नाकाम रहे हैं।
पुलिस सुधार और मानवाधिकारों के प्रति पुलिस तंत्र को सजग करने की तमाम बातें हम आज़ादी के बाद से करते रहे हैं। 1977 राष्ट्रीय पुलिस आयोग का गठन किया गया था। फरवरी 1979 से मई 1981 बीच इस आयोग ने कुल आठ रपटें दाख़िल कीं। इसके बाद 2000 में पुलिस सुधारों पर पद्मनाभैया समिति का गठन हुआ। 2006 में सोली सोराबजी समिति ने मॉडल पुलिस अधिनियम का प्रारूप तैयार किया। इसके अलावा भी तमाम कोशिशें हुईं लेकिन हालात जस के तस हैं। न तो राज्यों ने इनपर दिलचस्पी दिखाई और न पुलिस तंत्र ने। इस दौरान तमाम राज्यों में पुलिस कानून व्यवस्था बनाए रखने के बजाय डर फैलाने के राजनीतिक अस्त्र, हिरासत में मौत, दंगों में संदिग्ध भूमिका और भ्रष्टाचार में डूबी संस्था के तौर पर ज़्यादा बदनाम हुई है।
इस तरह के मामलों में अदालतें समय-समय पर सख़्त रुख़ दिखाती रही हैं, लेकिन 1947 के बाद से अभी तक इस तरह के आपराधिक मामलों में पुलिस को सबक़ देने लायक़ सज़ा शायद ही किसी मामले में सुनाई गई है। इसी साल फरवरी 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हिरासत में हिंसा के कारण किसी व्यक्ति की मौत की घटना ‘घृणित’ है और सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं है। लेकिन हमारे ‘सभ्य समाज’ में इस तरह की घटनाओं से लोग तब तक उद्वेलित नहीं होता जब तक हिंसा का शिकार ख़ुद न बन जाएं।
चूंकि न तो ऐसे मामलों में कभी जनदबाव बनता है और ना ही अदालतों से सज़ा होती है, इसलिए पुलिस पर अपनी कार्यप्रणाली बदलने का दबाव अभी तक नहीं बन पाया है। लोग मानवता का और अदालतें संविधान के अनुच्छेद 21 का वास्ता देती रहती हैं और सियासी संरक्षण में पुलिस इन दोनों की अनदेखी करती रहती है। इस लिहाज़ से हम सभ्य समाज और ज़िम्मेदार पुलिस की अवधारणा से अभी वर्षों दूर हैं।
(संपादन : नवल )
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