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मध्य प्रदेश : ओबीसी आरक्षण पर भाजपा-कांग्रेस आमने-सामने

मामले की गंभीरता आकलन ऐसे भी किया जा सकता है कि खुद मुख्यमंत्री को ओबीसी आरक्षण को बरकरार रखने सदन में संकल्प लाना पड़ा। और वे इतने पर नहीं रूके। उन्होंने खुद विधानसभा में एक प्रस्ताव पेश किया कि ओबीसी के आरक्षण के बगैर त्रि-स्तरीय पंचायत चुनाव नहीं कराए जाएंगे। मनीष भट्ट मनु की रपट

मध्य प्रदेश के प्रस्तावित पंचायत चुनाव में ओबीसी आरक्षण को लेकर सर्वोच्च न्यायालय का हालिया फैसला राज्य के दोनों प्रमुख सियासी दलों, भाजपा और कांग्रेस, के गले की फांस बनता नजर आ रहा है। राज्य विधानसभा का सत्र प्रारंभ होने के दो दिन पूर्व आए फैसले की राजनीतिक महता इस बात से जानी जा सकती है कि पांच दिवसीय शीतकालीन सत्र में इसी को लेकर गर्माहट बनी रही। मामले की गंभीरता आकलन ऐसे भी किया जा सकता है कि खुद मुख्यमंत्री को ओबीसी आरक्षण को बरकरार रखने सदन में संकल्प लाना पड़ा। और वे इतने पर नहीं रूके। उन्होंने खुद विधानसभा में एक प्रस्ताव पेश किया कि ओबीसी के आरक्षण के बगैर त्रि-स्तरीय पंचायत चुनाव नहीं कराए जाएंगे। उनके द्वारा पेश इस प्रस्ताव को सर्वसम्मति से पारित किया गया। 

उल्लेखनीय है कि गत शुक्रवार को सर्वोच्च न्यायालय ने मध्य प्रदेश के पंचायत चुनावों में यह कहते हुए रोक लगा दी थी कि आरक्षण अधिकतम 50 प्रतिशत सीटों पर दिया जा सकता है। जबकि मध्य प्रदेश में औसतन 60 प्रतिशत आरक्षण इन पंचायत चुनावों में लागू कर दिया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने सख्त रुख अपनाते हुए राज्य निर्वाचन आयोग से कानून के दायरे में ही रहकर चुनाव करवाने का निर्देश देते हुए कहा था, “आग से मत खेलिए।” न्यायालय ने ‘ट्रिपल टेस्ट’ का पालन किए बिना आरक्षण के फैसले को स्वीकार नहीं किए जाने की बात भी कही। बेहद कड़े शब्दों में न्यायालय ने ओबीसी के लिए निर्धारित सीटों को सामान्य सीटों में तब्दील करने की अधिसूचना जारी करने की बात भी कही थी। चेतावनी देते हुए कानून का पालन नहीं होने पर चुनाव रद्द किए जाने की बात भी न्यायालय कह चुका है। 

दिलचस्प यह है कि सर्वोच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी जिस मामले में की है, वह मामला असल में आरक्षण के रोटेशन और परिसीमन से संबंधित था। मामला भोपाल जिला पंचायत के अध्यक्ष व कांग्रेस नेता मनमोहन नागर ने दायर किया था। 

उल्लेखनीय है कि प्रदेश में ओबीसी के लिए जिला पंचायत सदस्य के 155, जनपद पंचायत सदस्य के 1273, सरपंच के 4058 और पंच के 64 हजार 353 पद आरक्षित किए गए थे। 

ओबीसी समाज के कई नेताओं ने कहा है कि यदि सर्वोच्च न्यायालय की आपत्ति आरक्षण की सीमा पचास प्रतिशत से अधिक होने को लेकर थी तो राज्य सरकार और राज्य निर्वाचन आयोग को पूर्व में ओबीसी को दिए 14 प्रतिशत आरक्षण को बरकरार रखे जाने का अनुरोध किया जाना था, जो किया नहीं गया।

भले ही राज्य शासन और भाजपा के सारे नुमांइदे कांग्रेस पर ओबीसी आरक्षण का विरोधी होने का आरोप लगा रहे हों। मगर, कांग्रेस का कहना है कि उनकी आपत्ति इस पूरी प्रक्रिया में परिसीमन और रोटेशन का पालन नहीं किए जाने तक सीमित थी। उन्होंने कभी भी आरक्षण को लेकर न्यायालय में सवाल नहीं उठाए। कांग्रेस का कहना है कि राज्य सरकार ने 2019 के परिसीमन को निरस्त कर जो अध्यादेष जारी किया था वह असंवैधानिक है। और इसी तरह अधिसूचना जारी करते समय रोटेशन की प्रक्रिया का भी पालन नहीं किया गया। इस मामले में भाजपा और कांग्रेस के मध्य तल्खी इस कदर बढ़ चुकी है कि इस मामले की पैरवी करने वाले और कांग्रेस के राज्यसभा सांसद विवके तन्खा मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, उनके विश्वस्तों में शुमार मंत्री भूपेंद्र सिंह और भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष विष्णुदत्त शर्मा को मानहानि के नोटिस भेज चुके हैं। 

मगर, इन सब आरोप और प्रत्यारोप के मध्य राज्य का ओबीसी समुदाय बेहद आक्रोशित नजर आ रहा है। उसका मानना है कि इस समुदाय को उसका हक न देने के लिए ही यह सब किया गया। उसकी सबसे ज्यादा नाराजगी खुद भी ओबीसी समुदाय से आने वाले शिवराज सिंह चौहान के प्रति स्पष्ट तौर महसूस की जा सकती है। ओबीसी समाज के कई नेताओं ने कहा है कि यदि सर्वोच्च न्यायालय की आपत्ति आरक्षण की सीमा पचास प्रतिशत से अधिक होने को लेकर थी तो राज्य सरकार और राज्य निर्वाचन आयोग को पूर्व में ओबीसी को दिए 14 प्रतिशत आरक्षण को बरकरार रखे जाने का अनुरोध किया जाना था, जो किया नहीं गया। उनका कहना है कि भाजपा और कांग्रेस इस पूरे प्रकरण में यह महत्वपूर्ण तथ्य छिपा रहे हैं कि परिसीमन और रोटेशन की जिस आपत्ति को लेकर कांग्रेस सर्वोच्च न्यायालय गई थी, उस विषय पर अभी तक कोई खास बहस नहीं हो सकी है और ना ही न्यायालय का हालिया निर्णय उस पर केंद्रित है।

ओबीसी महासभा की राष्ट्रीय कोर टीम के महेन्द्र सिंह लोधी तो प्रदेश सरकार द्वारा राज्य निर्वाचन आयोग को ओबीसी आरक्षण को बरकरार रख पंचायत चुनाव करवाए जाने की बात पर ही प्रश्न चिन्ह उठाते हैं। उनका सवाल है कि आखिर किस तरह सरकार के द्वारा राज्य निर्वाचन आयोग को निर्देशित किया जा सकता है। राज्य विधान सभा में शिवराज सिंह चौहान द्वारा प्रस्तुत संकल्प के बारे में पूछने पर वे कहते हैं कि जब मामला न्यायालय में विचाराधीन है तो क्या ऐसा कोई कदम उठाया जा सकता है? क्या यह न्यायपालिका में विधायिका के हस्तक्षेप की श्रेणी में नहीं आएगा? जब खुद राज्य सरकार के वकील द्वारा ओबीसी आरक्षण पर प्रभावी पक्ष प्रस्तुत न किए जाने के चलते इसे समाप्त किया जा चुका है तो इसे सिवाए राजनीतिक नौटंकी के और कुछ नहीं कहा जा सकता।

इस मुद्दे पर ओबीसी महासभा के साथ मिलकर दो जनवरी को भोपाल में प्रदर्शन करने जा रही भीम आर्मी और आजाद समाज पार्टी के पूर्व प्रदेश प्रभारी सुनील आस्तेय इसे भाजपा और कांग्रेस की बड़ी साजिश मानते हैं। वे आशंका जाहिर करते हैं कि आने वाले दिनों में इसी तरह आदिवासियों और अनुसूचित जाति के लिए संविधान में दिए गए आरक्षण को भी कमजोर किए जाने के प्रयास किए जा सकते हैं। आल इंडिया सफाई मजदूर कांग्रेस की युवा इकाई के प्रदेश अध्यक्ष सुधीर कौड़े भी इसे एक साजिश मानते हैं। उनका आरोप है कि आरएसएस और भाजपा प्रारंभ से ही आदिवासी, अनुसूचित जाति और ओबीसी विरोधी रही है। वे कहते हैं कि अदालतें तो संविधान में दायरे में रह कर निर्णय देंगीं। मगर सरकार और राजनीतिक दलों को तो व्यवहारिकता अपनानी चाहिए। 

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उल्लेखनीय है कि सर्वोच्च न्यायालय में पूर्व से हीे महाराष्ट्र के स्थानीय निकाय चुनाव की याचिका लंबित थी। इसके साथ ही मध्य प्रदेश पंचायत चुनाव की याचिका को शामिल कर लिया गया था। न्यायालय पूर्व में ही ओबीसी आरक्षण रद्द करने का आदेश महाराष्ट्र राज्य निर्वाचन आयोग को दे चुका था। 

क्या है ‘ट्रिपल टेस्ट’?

  1. राज्य के भीतर स्थानीय निकायों में पिछड़ेपन की प्रकृति और निहितार्थ की कठोर जांच करने के लिए एक आयोग की स्थापना।
  2. आयोग की सिफारिशों के मुताबिक स्थानीय निकायवार प्रावधान किए जाने के लिए आवश्यक आरक्षण के अनुपात को निर्दिष्ट करना, ताकि अधिकता का भ्रम न हो।
  3. किसी भी मामले में ऐसा आरक्षण अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/अन्य पिछड़ा वर्ग के पक्ष में आरक्षित कुल सीटों के कुल 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होगा।

अब आगे की राह

संविधान और विधि मामलों के जानकार स्पष्ट तौर पर कुछ भी कहने से बच रहे हैं। हालांकि वे मानते हैं कि इस फैसले के दूरगामी परिणाम होंगे। आगे चलकर नगरीय निकायों के निर्वाचन की प्रक्रिया कानून के दायरे में 

उलझ सकती है। वे कहते हैं कि सरकार को ओबीसी के संबंध में महज अपने राजनैतिक फायदे के लिए कदम उठाने से बचना चाहिए। ओबीसी संबंधी नीति को घ्यान से बनाए जाने की जरुरत है ताकि इसे चुनौती ना दी जा सके। इसके लिए सरकार को न्यायालय में सामाजिक, आर्थिक, जनसंख्या की भागीदारी संबंधी विस्तृत और तथ्यात्मक रिपोर्ट पेश करनी चाहिए।

राज्य सरकार की मुश्किलें

इस पूरे प्रकरण में सबसे ज्यादा परेशानी मध्य प्रदेश राज्य निर्वाचन आयोग को होती दिख रही है। महाराष्ट्र के स्थानीय निकाय चुनावों में ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण के अध्यादेश को रद्द करने के अपने 6 दिसंबर के आदेश के परिप्रेक्ष्य में ही मध्य प्रदेश में न केवल आरक्षण रद्द किया गया वरन् ओबीसी की सीटों को सामान्य में परिवर्तित करने के निर्देश भी जारी किए गए। मगर, राज्य सरकार द्वारा आरक्षण बरकरार रखते हुए ही निर्वाचन करवाने के फैसले ने आयोग के समक्ष भी संकट खड़ा कर दिया है। यदि वह न्यायालय का निर्णय नहीं मानता तो उस पर अवमानना का प्रकरण चल सकता है। वहीं इस आदेश का अनुपालन करने पर उसके विरुद्ध राज्य विधान सभा में पारित संकल्प को न मानने के आरोप लगेंगे। यही नहीं, न्यायालय ने भले ही ओबीसी आरक्षण पर रोक लगा दी हो, मगर सभी सीटों का परिणाम एक साथ जारी करने के निर्देश भी दिए हैं। 

बहरहाल इतना तो तय है कि कड़ाके की सर्दी का सामना कर रहे मध्य प्रदेश में ओबीसी आरक्षण का मुद्दा आने वाले दिनों में और गर्माएगा। ओबीसी महासभा को भीम आर्मी, आजाद समाज पार्टी, आल इंडिया सफाई मजदूर कांग्रेस व जयस का साथ मिलने और राज्य में अपनी राजनीतिक जमीन तलाश रहे अन्य दलों को इसमें अवसर दिखाई पड़ने से आने वाले दिनों में सत्तारूढ़ भाजपा और प्रमुख विपक्षी दल कांगेस की मुसीबतें बढ़ने वाली हैं।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

मनीष भट्ट मनु

घुमक्कड़ पत्रकार के रूप में भोपाल निवासी मनीष भट्ट मनु हिंदी दैनिक ‘देशबंधु’ से लंबे समय तक संबद्ध रहे हैं। आदिवासी विषयों पर इनके आलेख व रपटें विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से प्रकाशित होते रहे हैं।

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