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हिमाचल प्रदेश : सामान्य वर्ग आयोग की कवायद का औचित्य

हिमाचल प्रदेश में सवर्ण समुदाय न तो सामाजिक रूप से पिछड़े हैं और ना ही राजनीतिक और आर्थिक रूप से। इसके अलावा सूबे में आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए दस फीसदी का आरक्षण भी लागू है। ऐसे में राज्य सरकार द्वारा सामान्य वर्ग आयोग के गठन के औचित्य पर सवाल उठा रहे हैं अनिल स्वदेशी

हाल ही में हिमाचल प्रदेश सरकार ने प्रदेश में सामान्य वर्ग आयोग का गठन करने को मंजूरी प्रदान की हैI सरकार का कहना है कि सामान्य वर्ग आयोग का गठन अनुसूचित जाति आयोग, अनुसूचित जनजाति आयोग और पिछड़ा वर्ग आयोग की तर्ज पर किया जाएगाI अब प्रश्न उठता है कि हिमाचल प्रदेश में इस समय सामान्य वर्ग आयोग का गठन करने की जरूरत क्यों पड़ी?

हिमाचल प्रदेश के संदर्भ में उल्लेखनीय है कि यहां वर्तमान भाजपा सत्तासीन है। दूसरी बात यह कि 2011 की जनगणना के अनुसार हिमाचल प्रदेश में मुसलमानों की जनसंख्या कुल जनसंख्या का 2.18 प्रतिशत है जो कि इतनी कम है कि हिमाचल की राजनीति में कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभा सकतीI इसलिए हिंदू-मुस्लिम के ध्रुवीकरण के आधार राजनीति की संभावना नहीं बनती दिखती है। तो क्या यहां चुनावी राजनीति के लिहाज से सामान्य वर्ग आयोग का गठन किया जा रहा है? यह सवाल इसलिए भी उल्लेखनीय है क्येांकि इसी साल के अंत में यहां विधानसभा चुनाव होने हैं। 

सनद रहे कि जिस आंदोलन के प्रभाव में आकर हिमाचल प्रदेश सरकार सामान्य वर्ग आयोग का गठन करने के लिए मजबूर हुई है, उस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम और आरक्षण को खत्म करना था। 

जयराम ठाकुर, मुख्यमंत्री, हिमाचल प्रदेश

ध्यातव्य है कि हिमाचल प्रदेश देश के उन राज्यों में है, जहां ऊंची जातियों के लोगों की आबादी सबसे अधिक करीब 50.72 प्रतिशत है। इसमें भी 32.72 प्रतिशत राजपूत और 18 प्रतिशत ब्राह्मण है। यह हिमाचल प्रदेश के सामाजिक ताने-बाने को स्पष्ट करते हैं। यही वजह भी है कि प्रदेश की सत्ता पर ऊंची जातियों का वर्चस्व रहा है। यह कहना भी अतिश्योक्ति नहीं कि यहां राजनीतिक संग्राम मुख्यत: राजपूत और ब्राह्मण के बीच रहता है। इसका एक निहितार्थ यह भी कि यहां ऊंची जातियों के लोगों का राजनीतिक दबदबा रहा है। ऐसे में अगर हिमाचल प्रदेश सरकार चाहती कि वास्तव में सामान्य वर्ग यानी ऊंची जातियों के लोगों का उत्थान किया जाए तो वह सबसे पहले एक सर्वे करवाती, जिससे यह पता चलता कि सामान्य वर्ग के लोगों में शिक्षा का प्रसार कहां तक पहुंचा है और सामान्य वर्ग के कितने लोग गरीबी रेखा से नीचे रह रहे हैंI इसके साथ यह भी पता करवाती कि सामान्य वर्ग के लोगों में बेरोजगारी की क्या स्थिति हैI लेकिन सरकार ने ऐसा कुछ भी नहीं किया है। जबकि प्रदेश में आर्थिक रूप से कमजोर (सामान्य वर्ग) के लिए 10 फीसदी आरक्षण 2019 से ही लागू है जो कि जाति के आधार पर दिया जाने वाला अपनी तरह का पहला आरक्षण है। महत्वपूर्ण यह भी कि इसे बिना किसी आयोग की सिफारिश के आनन-फानन में तत्कार प्रभाव से लागू किया गया हैI 

हिमाचल प्रदेश में गौर करने योग्य बात यह है कि सामान्य वर्ग के लोग इसके बाद भी अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को दिए जा रहे आरक्षण का विरोध कर रहे हैं। वे एक तरफ तो आरक्षण का खुद लाभार्थी बनने के लिए तत्पर हैं, लेकिन वंचित वर्गों के साथ हक़मारी करना चाहते हैं।

राज्य सरकार का तर्क है कि एससी, एसटी और पिछड़ा वर्ग आयोग के आधार पर सामान्य वर्ग आयोग का गठन किया जाएगा। जबकि यह बिल्कुल भी तर्कसंगत बात नहीं है, क्योंकि एससी, एसटी और पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप है जबकि सामान्य वर्ग आयोग को यह मान्यता प्राप्त नहीं होगी। मसलन, संविधान के अनुच्छेद 338 के अंतर्गत अनुसूचित जाति आयोग बनाने का प्रावधान हैI वहीं 338 ए के तहत अनुसूचित जनजाति आयोग और 338 बी के तहत पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन करने का प्रावधान किया गया है I इन प्रावधानों का मकसद स्पष्ट रहा है कि जो सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन का शिकार रहे हैं, जिनका सदियों से लगातार शोषण किया गया है और प्रतिनिधित्व से वंचित रखा गया है, उन्हें समुचित भागीदारी मिले।  

हिमाचल प्रदेश में सवर्ण समुदाय न तो सामाजिक रूप से पिछड़े हैं और ना ही राजनीतिक और आर्थिक रूप से। यहां तक कि अपराध के मामले में भी यहां सबसे असुरक्षित दलित हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रपट के अनुसारहिमाचल प्रदेश में 2018 में अनुसूचित जाति के व्यक्तियों के खिलाफ किए गए अपराधों की संख्या 103 थी, जो कि 2019 में 189 हो गई और बढ़ते बढ़ते 2020 में 251 तक पहुंच गईI यह संख्या दर्ज किए हुए मामलों की हैI आप देख सकते हैं कि हिमाचल प्रदेश में इस तरह के अधिकतर मामले दब कर रह जाते हैं या दबा दिए जाते हैं। 

अब प्रश्न यह उठता है कि हिमाचल प्रदेश सरकार अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों के खिलाफ होने वाले अपराधों के प्रति उदासीन क्यों हैं और इस समस्या को स्वीकार क्यों नहीं करना चाहता है?

हिमाचल प्रदेश सरकार को इसका खुलासा करना चाहिए कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों के विकास के लिए उन्होंने कौन-कौन सी योजनाओं में कितने बजट का प्रावधान किया था और इन योजनाओं के अंतर्गत क्या क्या हासिल किया जा चुका हैI होना तो यह चाहिए कि हिमाचल प्रदेश सरकार आयोगों के गठन के चक्कर में न पड़कर सभी वर्गों का विकास सुनिश्चित करना चाहिए और तत्काल प्रभाव से जातिगत आधारित जनगणना करवाने पर बल दे ताकि सभी वर्गों की सामाजिक, आर्थिक और शेक्षणिक स्थिति सामने आ सके। 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

अनिल स्वदेशी

हिमाचल प्रदेश के प्रो. अनिल स्वदेशी दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्राध्यापक हैं। अंग्रेजी के साथ ही, हिंदी में इन्होंने लेखन किया है। इनकी अनेक कहानियां प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं

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