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पश्चिम यूपी में कैराना, गाय, जिन्ना और पाकिस्तान क्यों नहीं बन पा रहे चुनावी मुद्दा?

किसान नेता राकेश टिकैत कह ही चुके हैं कि जिन्ना, दंगा, कैराना सब इस इलाक़े में कुछ दिनों के मेहमान हैं। उनका दावा है कि 10 मार्च को चुनावी नतीजे आने के साथ ही न तो ये मुद्दे रहेंगे और ना ही इस इलाक़े में ऐसे मुद्दे उठाने वाले। पढ़ें, सैयद जै़गम मुर्तजा की जमीनी रपट

पश्चिम उत्तर प्रदेश में मुसलमान और जाटों की जुगलबंदी भाजपा के लिए गले की फांस बन चुकी है। हाल के दिनों में जिस तरह दंगों के ज़ख़्मों को दरकिनार करके दोनों समूह क़रीब आए हैं, वह भाजपा की सियासत के लिए किसी भी तरह मुफीद नहीं है। भाजपा पश्चिम यूपी में जाटों के वोट अहमियत जानती है, इसलिए उसकी कोशिश है कि पिछड़े, ख़ासकर जाट मुसलमानों के साथ न आने पाएं। यही वजह है कि पार्टी 2013 के दंगे और कैराना में कथित पलायन को ज़ोर शोर से चुनावी मुद्दा बनाने में लगी है।

भाजपा के रणनीतिकार मान रहे हैं कि जाट और मुसलमान मिलकर वोट करें तो पश्चिम यूपी में 20 सीट पाना भी पार्टी के लिए मुश्किल होगा। यही वजह है कि पार्टी का शीर्ष नेतृत्व जाट नेताओं के साथ संवाद क़ायम करने की कोशिश कर रहे हैं। भाजपाई सांसद प्रवेश वर्मा जाट नेता जयंत चौधरी को साथ आने का न्यौता दे रहे हैं और गृह मंत्री अमित शाह उस इलाक़े में घर-घर जाकर वोट मांग रहे हैं, जहां जाट वोटरों की अक्सरियत है। ऐसा इसलिए भी है कि भाजपा की 2014, 2019 लोकसभा और इस बीच 2017 के विधानसभा चुनाव में जाटों के वोटरों की अहम हिस्सेदारी रही है। 

आंकड़े बताते हैं कि 2012 में महज़ 7 फीसदी जाटों ने भाजपा के लिए वोट डाले थे। जबकि 2017 में भाजपा के पक्ष में मतदान करने वालों की संख्या कुल जाट वोटरों का क़रीब सत्तर फीसदी थी, जबकि 2019 में यूपी के लगभग 90 फीसदी जाट भाजपा के साथ थे। हालांकि यूपी के कुल वोटरों में जाट मतदाताओं की हिस्सेदारी क़रीब 2 फीसदी ही है। लेकिन जहां जाट वोटरों की अक्सरियत है, वहां कई और बिरादरियों के वोट उसी पार्टी को जाते हैं, जिधर जाट वोट करते हैं। इसकी एक वजह यह है कि जाट सबल बिरादरी है। बूथ पर जाटों के दबदबे की दूसरी बड़ी वजह है कि यह राजनीतिक तौर पर जागरुक बिरादरी है और जिस पार्टी के साथ जाट जुड़ जाते हैं, उसके समर्थन में जी-जान से लग जाते हैं। 

इस बार भाजपा के सामने अनेक परेशानियां हैं। महंगाई, बेरोज़गारी और किसान समस्याओं को लेकर पार्टी से तो लोग नाराज़ हैं ही, लेकिन स्थानीय विधायकों के ख़िलाफ भी उनमें ग़ुस्सा है। तीसरी परेशानी पिछड़ों का ध्रुवीकरण है, जो भाजपा के लिए किसी भी सूरत में मुफीद नहीं है। पिछले पांच साल में क़ानून व्यवस्था, दलित-पिछड़ों पर अत्याचार, गन्ना मूल्य भुगतान, फसलों के वाजिब दाम, डीज़ल, खाद, पानी, बिजली की बढ़ी क़ीमतें, नोटबंदी के बाद बरबाद हुए कुटीर उद्योग-धंधे, जीएसटी से जुड़ी परेशानियों का अब तक हल न होना और कोरोना काल में फैली अव्यवस्था और बड़े पैमाने पर हुई लोगों की मौत जैसे तमाम सवाल हैं, जो भाजपा के लिए परेशानी का सबब बने हुए हैं। ऐसे में भाजपा के पास अपना आज़माया हुआ हिंदू-मुस्लिम फार्मूला ही बचता है जो परेशानी से उबार सके। 

चुनावी सभा के दौरान राष्ट्रीय लोकदल के नेता जयंत चौधरी और समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव

समाजवादी पार्टी के नेता इमरान मसूद के मुताबिक़ “धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण भाजपा की सबसे बड़ी चुनावी पूंजी है।” इमरान मसूद के इस वक्तव्य का निहितार्थ  इससे समझा जा सकता है कि 2014 के चुनाव में दिए उनके एक बयान को भाजपा ने मुद्दा बनाया और वह लगातार चुनाव हारते गए। ध्रुवीकरण भाजपा के लिए कितना अहम है, इसे पार्टी के चुनाव प्रचार और उसके नेताओं के बयानों से समझा जा सकता है। हाल के दिनों में अस्सी बनाम बीस, जाट बनाम मुग़ल, कैराना में पलायन, नाहीद हसन, आज़म ख़ां, इमरान मसूद, जिन्ना, पाकिस्तान, गाय, गंगा, और मुज़फ्फरनगर दंगा समेत तमाम तीर जो बीजेपी के तरकश में हैं, वो चलाए गए हैं। लेकिन भाजपा की परेशानियां कम होने का नाम नहीं ले रहीं। 

लेकिन कैराना शामली में कितना बड़ा मुद्दा है? शामली निवासी सतेंद्र चौधरी कहते हैं कि “पलायन का धार्मिक एंगल सिर्फ भाजपा खोज सकती है।” उनके मुताबिक़ कैराना से बड़ी तादाद मे लोग शामली की तरफ इसलिए आए क्योंकि सितंबर 2011 में शामली नया ज़िला बना।

पश्चिम यूपी में लोग न तो राम मंदिर को मुद्दा मान रहे हैं और ना ही हिंदू-मुसलमान वाला कार्ड ही चल पा रहा है। इसकी एक वजह मुसलमान और जाटों के बीच बेहतर हो रहे रिश्ते भी है। किसान आंदोलन इस जुड़ाव की अहम कड़ी है। दोनों ही समुदायों ने समझा है कि दंगे में नुक़सान आख़िर किसका हुआ है। जब तक मुसलमान और जाट साथ मिलकर राजनीति करते रहे इस इलाक़े में न तो ब्राह्मण अपना बर्चस्व बना पाए और ना ही ठाकुर। इसके अलावा जब तक मुसलमानों की ज़मींदारियां रहीं, काश्तकारी जाटों के ही पास रही। सामाजिक तौर पर भी दोनों क़रीब रहे हैं। धर्म परिवर्तन कर चुके मुसलमान जाट, जिन्हें यहां मूला जाट कहा जाता है अभी भी खाप, और बिरादरी की पंचायतो का हिस्सा हैं। 2013 के दंगों ने दोनों के बीच विभाजन किया और दोनों ने ही इसका खामियाजा भुगता।

कैराना में प्रचार में उतरे केंद्रीय मंत्री अमित शाह

पश्चिम यूपी से भाजपा के विधायकों/उम्मीदवारों को दौड़ाए जाने की ख़बरें लगातार आ रही हैं। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह भी लोगों के ग़ुस्से का निशाना बने हैं। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह को बाग़पत मे प्रस्तावित अपना चुनावी कार्यक्रम टालना पड़ा है। हालांकि भाजपा नेताओं को अभी भी यक़ीन है कि वह वोटिंग की तारीख़ आते-आते नाराज़ वोटरों अपने पक्ष में वोट करने के लिए मना लेंगे। इस यक़ीन की एक वजह ध्रुवीकरण कर पाने में पार्टी नेताओं की महारत भी है। कैराना इस कोशिश में एक अहम पड़ाव है। गृह मंत्री अमित शाह ने चुनाव प्रचार की शुरुआत के लिए न सिर्फ कैराना को चुना, बल्कि पलायन के मुद्दे को फिर से हवा देने की कोशिश की है। 

यह भी पढ़ें – उत्तर प्रदेश चुनाव : इन कारणों से आवश्यक था सपा-बसपा गठबंधन

लेकिन कैराना शामली में कितना बड़ा मुद्दा है? शामली निवासी सतेंद्र चौधरी कहते हैं कि “पलायन का धार्मिक एंगल सिर्फ भाजपा खोज सकती है।” उनके मुताबिक़ कैराना से बड़ी तादाद मे लोग शामली की तरफ इसलिए आए क्योंकि सितंबर 2011 में शामली नया ज़िला बना। ज़ाहिर है ज़िला मुख्यालय होने की वजह से शामली में रोज़गार, कारोबार और शिक्षा के कैराना से ज़्यादा अवसर हैं, जो यहां से महज़ 14 किलोमीटर दूर है। कैराना निवासी पुष्पेंद्र सिंह कहते हैं कि पलायन के मुद्दे को मज़हबी रंग देने के लिए ख़ुद स्वर्गीय हुकुम सिंह खेद जता चुके हैं। यहां मुद्दा पलायन नहीं, डीज़ल, बिजली, खाद और दवाइयों की बढ़ती क़ीमत हैं। वह आगे कहते हैं, “कैराना की अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित है। लोगों को जिन्ना से क्या लेना देना, उनको ज़रुरत है कि सरकार गन्ने का वाजिब दाम दिला दे और मिलों पर बक़ाया पैसे का भुगतान करा दे।” 

तो क्या कैराना और मुज़फ्फरनगर दंगों को मुद्दा बनाने की तमाम क़वायद बेकार साबित होंगी? शामली के गढ़ी पुख़्ता निवासी नूर नवाज़ ख़ान कहते हैं कि “लोग मुज़फ़्फरनगर दंगों के ज़ख़्म नहीं भूले हैं, लेकिन बार-बार ज़ख्म कुरेदने से दर्द ख़त्म नहीं होगा। यह मिल-जुलकर आगे बढ़ने का समय है। दुनिया बहुत तेज़ी से बदल रही है और हम अतीत के गढ्ढ़ों में फंसे हैं।” वह आगे कहते हैं कि इलाक़े के जाट और मुसलमान आपस में मिल-बैठकर अपने मसले तय करने में सक्षम हैं। “स्थानीय लोग नहीं चाहते कि उनके घर के मामलों में बाहरी लोग अपनी सियासत चमकाने के लिए यहां आकर उनका जीवन नर्क बनाएं।” 

ख़ैर, किसान नेता राकेश टिकैत कह ही चुके हैं कि जिन्ना, दंगा, कैराना सब इस इलाक़े में कुछ दिनों के मेहमान हैं। उनका दावा है कि 10 मार्च को चुनावी नतीजे आने के साथ ही न तो ये मुद्दे रहेंगे और ना ही इस इलाक़े में ऐसे मुद्दे उठाने वाले।

(संपादकीय : नवल/अनिल)

लेखक के बारे में

सैयद ज़ैग़म मुर्तज़ा

उत्तर प्रदेश के अमरोहा ज़िले में जन्मे सैयद ज़ैग़़म मुर्तज़ा ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से लोक प्रशासन और मॉस कम्यूनिकेशन में परास्नातक किया है। वे फिल्हाल दिल्ली में बतौर स्वतंत्र पत्रकार कार्य कर रहे हैं। उनके लेख विभिन्न समाचार पत्र, पत्रिका और न्यूज़ पोर्टलों पर प्रकाशित होते रहे हैं।

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