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उत्तर प्रदेश चुनाव : इन कारणों से आवश्यक था सपा-बसपा गठबंधन 

सवाल यह है कि यदि सपा और बसपा एक साथ होते तो इस बार के चुनाव में क्या होता? निस्संदेह मायावती की नेतृत्व वाली बसपा सन् 2007 में अपने बल पर उत्तर प्रदेश में सत्ता के आने के बाद से चुनावों में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पा रही है। परंतु वह अब भी राज्य में एक बड़ी राजनैतिक ताकत है। पढ़ें, रुपेश रंजन का विश्लेषण

जाति प्रथा और उससे जनित भेदभाव के सवाल हमेशा से संघ परिवार और उसकी राजनैतिक शाखा भाजपा के लिए चुनौती रहे हैं। सन् 1980 में भाजपा के गठन के समय से ही पार्टी में उच्च जातियों का बोलबाला रहा है और यही जातियां उसकी प्रमुख समर्थक रही हैं। बल्कि यह बात पार्टी के पूर्व अवतार जनसंघ के बारे में भी सही थी। जनसंघ और भाजपा दोनों ने ही जाति के मुद्दे से दूरी बनाये रखी, क्योंकि उन्हें लगता था कि यह मुद्दा हिन्दुओं को राजनैतिक दृष्टि से एक करने के उनके प्रयासों में बाधक होगा। परन्तु सन् 1990 में राष्ट्रीय मोर्चा की विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार द्वारा मंडल आयोग की सिफारिशें लागू किये जाने के बाद भाजपा के लिए इस मुद्दे को नज़रअंदाज़ करना असंभव हो गया, विशेषकर इसलिए क्योंकि ओबीसी की ओर से उन्हें राजनैतिक प्रतिनिधित्व दिए जाने की मांग जोर पकड़ने लगी। उस समय ओबीसी जातियां उत्तर भारत की राजनीति में हाशिये पर थीं। यह इस तथ्य के बावजूद कि वे आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा थीं। 

मंडल आंदोलन का मुकाबला करने के लिए भाजपा ने अयोध्या में स्थित एक मध्यकालीन मस्जिद के स्थान पर राममंदिर के निर्माण की मांग को लेकर रामजन्मभूमि आंदोलन शुरू किया। इस आंदोलन को हिन्दुओं के सभी वर्गों का समर्थन प्राप्त हुआ। परन्तु 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने के साथ इस आंदोलन ने अपना राजनैतिक महत्व खो दिया। लोगों को राम मंदिर के निर्माण के नाम पर उस हद तक गोलबंद करना संभव नहीं था, जिस हद तक उन्हें बाबरी मस्जिद को ढहाने के नाम पर एकजुट किया जा सकता था। हिन्दुत्ववादी नेताओं ने बाबरी मस्जिद को हिन्दुओं पर मुसलमानों के सदियों लंबे वर्चस्व के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया था। 

रामजन्मभूमि आंदोलन के कमज़ोर पड़ने के बाद भाजपा नेतृत्व को यह अहसास हो गया कि अब भारतीय राजनीति के बढ़ते मंडलीकरण से स्वयं को अछूता नहीं रखा जा सकता। यद्यपि यह दिलचस्प है कि जिस समय बाबरी मस्जिद ढहाई गई, उस समय उत्तर प्रदेश सरकार के मुखिया कल्याण सिंह थे, जो ओबीसी वर्ग से आते थे।  

वहीं, बिहार में भाजपा ने समता पार्टी, जिसका नाम बाद में जनता दल (यूनाइटेड) हो गया, से गठबंधन कर मंडल की राजनीति में अप्रत्यक्ष रूप से कदम रखा। परन्तु उत्तर प्रदेश में पार्टी के तत्कालीन महासचिव (संगठन) के.एन. गोविन्दाचार्य के सोशल इंजीनियरिंग फार्मूला के तहत भाजपा ने अपनी राजनीति का प्रत्यक्ष मंडलीकरण करने का विकल्प चुना। उसने पिछड़ी जातियों के नेताओं जैसे कल्याण सिंह, विनय कटियार और उमा भारती को उत्तर प्रदेश में पार्टी के चेहरे के रूप में प्रस्तुत किया और इन्हीं नेताओं ने राम जन्मभूमि आंदोलन का राज्य स्तर पर नेतृत्व भी किया। परंतु विडंबना यह है कि इन नेताओं को, जिन्होंने राज्य में पार्टी को एक महत्वपूर्ण राजनैतिक शक्ति के रूप में स्थापित करने में महती भूमिका का निर्वहन किया, उन्हें वह दर्जा कभी हासिल न हो सका, जो ऊंची जातियों के नेताओं जैसे– कलराज मिश्रा, लालजी टंडन व राजनाथ सिंह को हासिल था। कल्याण सिंह को 1999 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से हटा दिया गया और उन्हें पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से भी निलंबित कर दिया गया। वे 2004 में पार्टी में वापस लौटे, परंतु 2009 में उन्होंने फिर पार्टी छोड़ दी। अंततः 2014 में उन्होंने अपनी जन क्रांति पार्टी का भाजपा में विलय कर दिया। परंतु तब तक पार्टी में उनकी हैसियत बहुत कमज़ोर हो गई थी और उन्हें राज्यपाल के अपेक्षाकृत अमहत्वपूर्ण पद से संतुष्ट रहना पड़ा। 

बाबरी मस्जिद के ढ़हाए जाने के बाद से कल्याण सिंह ने स्वयं को भाजपा में पिछड़ी जातियों के नेता के रूप में प्रस्तुत करना शुरू कर दिया था। यह पार्टी में उनके हाशियाकरण का मुख्य कारण बना। लगभग इसी तरह की हालत तेजतर्रार नेता उमा भारती की भी हुई। उन्हें 2004 में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने पर मजबूर किया गया। बाद में उन्हें पार्टी से भी निष्कासित कर दिया गया। कल्याण सिंह की तरह वे भी पार्टी में लौटीं, परंतु उन्हें कभी आगे बढ़ने नहीं दिया गया और अब वे गुमनामी में अपने दिन व्यतीत कर रही हैं। 

यह कहना गलत नहीं होगा कि भाजपा सन् 2002 से लेकर 2014 तक उत्तर प्रदेश में विधानसभा और लोकसभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन इसलिए नहीं कर पाई, क्योंकि पार्टी में पिछड़ी जातियों का ऐसा कोई नेता नहीं था, जो इस वर्ग में लोकप्रिय हो और पिछड़ी जातियों को भाजपा के पक्ष में गोलबंद कर सके। 

सन् 2014 के बाद से क्या बदला?

नरेंद्र मोदी और उनके विश्वस्त सिपहसालार अमित शाह के भाजपा के शीर्ष व सबसे शक्तिशाली नेताओं के रूप में उभरने के बाद से भाजपा ने उत्तर प्रदेश की राजनीति का अत्यंत सूक्ष्म और गहन जातिगत विश्लेषण किया। सन् 2014 और 2019 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनाव में पार्टी के शानदार प्रदर्शन के पीछे था पार्टी को गैर-यादव ओबीसी जातियों का समर्थन, जो उत्तर प्रदेश की कुल आबादी का 32 से 35 प्रतिशत हैं। परंतु प्राणपन से भाजपा का साथ देने के बाद भी पिछड़ी जातियों को सत्ता और भाजपा में समुचित हिस्सेदारी नहीं मिली। सच तो यह है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा के शक्तिशाली होने के साथ वहां ऊंची जाति के विधायकों का दबदबा और उनकी संख्या बढ़ी ही है। भाजपा के वर्तमान विधायकों में से 48.3 प्रतिशत ऊंची जातियों के हैं। केशव प्रसाद मौर्य, जो 2017 में उत्तर प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष थे और जिन्होंने गैर-यादव जातियों को पार्टी के झंडे तले लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, को पार्टी ने मुख्यमंत्री नहीं बनाया। भाजपा ने शीर्ष पद पर योगी आदित्यनाथ को बिठाया, जो अपनी राजपूत पहचान को प्रदर्शित करने में पीछे नहीं हटते और जिनके शासनकाल में उत्तर प्रदेश में बढ़ता ठाकुरवाद राजनैतिक गलियारों में चर्चा का विषय रहा है। 

पिछड़ी जातियों के प्रति भाजपा के उपेक्षापूर्ण नजरिये का एक अन्य उदाहरण है जाति-आधारित जनगणना के मसले पर उसकी चुप्पी। परंतु पार्टी के ओबीसी नेता खुलकर जाति-आधारित जनगणना की मांग का समर्थन कर रहे हैं। संघमित्रा मौर्य, जो बदायूं से भाजपा की लोकसभा सदस्य हैं और हाल में भाजपा छोड़कर सपा में शामिल हुए स्वामी प्रसाद मौर्य की पुत्री हैं, ने पार्टी की आधिकारिक नीति के विपरीत जाति-आधारित जनगणना की मांग की है। 

सन् 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले सपा और बसपा के बीच गठबंधन की घोषणा का जश्न मनाते पार्टी कार्यकर्ता

इसी तरह, कई बार वायदे करने के बावजूद भाजपा सरकार ने सामाजिक न्याय समिति की सिफारिशों को लागू करने में कोई तत्परता नहीं दिखाई। भाजपा सरकार ऐसे कार्यक्रम और योजनाएं शुरू करने में हिचकिचाती रही है, जिनसे निम्न पिछड़ी जातियों जैसे निषाद, राजभर, मौर्य, शाक्य, सैनी, पाल या प्रजापति को कोई वास्तविक लाभ मिले। इसका कारण है पार्टी के पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की विचारधारा, जो जीवन के हर क्षेत्र में ऊंची जातियों के वर्चस्व की हामी है।

आरएसएस का नेतृत्व जाति-आधारित जनगणना या आरक्षण जैसी नीतियों और कार्यक्रमों को एक खतरे के रूप में देखता है। उसे डर है कि ये हिन्दुओं को एकजुट कर एक राजनैतिक शक्ति के रूप में संगठित करने के उसके प्रयासों में बाधक होंगे। 

चुनावी राजनीति की मजबूरियों के चलते भाजपा को पिछड़ी और दलित जातियों के प्रति अपनी नीतियों में कुछ व्यावहारिकता लानी पड़ी है। उसे अपने विधायक दल और पार्टी संगठन में इन जातियों को प्रतिनिधित्व देना पड़ा है और कई जाति-आधारित पार्टियों जैसे अनुप्रिया पटेल के अपना दल (सोनेलाल) और संजय निषाद की निषाद पार्टी से समझौते भी करने पड़े हैं। परंतु इन निम्न पिछड़ी जातियों के नेताओं को भाजपा के भीतर कोई खास स्वतंत्रता हासिल नहीं है। ओबीसी और दलित प्रतिनिधियों को ऊंची जातियों के वर्चस्व और दबदबे वाले ढ़ांचे के भीतर रहकर काम करना पड़ता है। आरएसएस की ब्राह्मणवादी विचारधारा के चलते भाजपा पिछड़ों और दलितों को विशेष सहूलियतें देने या उनके कल्याण के लिए महत्वपूर्ण निर्णय लेने में सक्षम नहीं है। 

भाजपा की राजनीति में इन्हीं कमियों और विभाजक रेखाओं के मद्देनजर समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव इस बात का प्रयास कर रहे हैं कि राज्य में हो रहा चुनाव ओबीसी-दलितों और भाजपा शासनकाल में ऊंची जातियों के वर्चस्व के बीच मुकाबले में परिवर्तित हो जाए। इस चुनाव में समाजवादी पार्टी का एक लोकप्रिय नारा है ‘सामाजिक न्याय का इंकलाब होगा, 22 में बदलाव होगा’। अखिलेश ने कई जाति-आधारित पार्टियों जैसे जयंत चौधरी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय लोकदल और ओमप्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के साथ समझौते किए हैं। जयंत चौधरी का पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट समुदाय पर गहरा प्रभाव है। राजभर जाति के लोग उत्तरप्रदेश की कुल आबादी का चार प्रतिशत हैं और पूर्वी उत्तरप्रदेश की लगभग दो दर्जन सीटों पर परिणाम प्रभावित करने में सक्षम हैं।

परन्तु यदि सपा और बसपा एक साथ होते तो यह चुनाव अधिक दिलचस्प बन जाता। मायावती की नेतृत्व वाली बसपा सन् 2007 में अपने बल पर उत्तर प्रदेश में सत्ता के आने के बाद से चुनावों में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पा रही है। परंतु वह अब भी राज्य में एक बड़ी राजनैतिक ताकत है। सन् 2017 में उसे 22 प्रतिशत मत प्राप्त हुए थे, जो कि सपा से थोड़े ज्यादा थे।  

मेरे विचार से सन् 2019 के चुनावों में हार के बावजूद दोनों पार्टियों को अपना गठबंधन समाप्त नहीं करना चाहिए था। इस गठबंधन की हार के पीछे दो कारण थे। पहला यह कि गठबंधन चुनाव के ठीक पहले किया गया था, जिससे दोनों पार्टियों के कार्यकर्ताओं और स्थानीय नेताओं को एक-दूसरे से जुड़ने का पर्याप्त समय नहीं मिला। दोनों पार्टियों को अपने आलोचकों के सवालों का जवाब देने का समय नहीं मिला। दूसरे, इस गठबंधन के पास नरेंद्र मोदी, जो अब भी देश के सबसे लोकप्रिय नेता बने हुए हैं, के मुकाबले राष्ट्रीय स्तर पर कहने को कुछ विशेष नहीं था।

सन 2014 के बाद से भारत में मतदाता राज्य और राष्ट्रीय चुनावों में अलग-अलग ढंग से मतदान करते आये हैं। राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा का मुकाबले में कोई नहीं है, परन्तु राज्यों में चुनावों में उसे अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। सन् 2015 में बिहार विधानसभा चुनावों में उसे मुंह की खानी पड़ी। यही उसके बाद झारखण्ड, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ और हाल में पश्चिम बंगाल में हुए चुनावों में हुआ। यह साफ़ है कि राज्यों में चुनावों में भाजपा अपराजेय नहीं है। अगर सपा और बसपा एक साथ मिलकर उत्तरप्रदेश में चुनाव लड़ते तो इससे भाजपा मुसीबत में फंस जाती, क्योंकि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने के हर संभव प्रयासों के बाद भी, राज्य के मतदाता बेरोज़गारी, महंगाई और कोविड महामारी के कुप्रबंधन को भूले नहीं हैं। अखिलेश यादव के लिए बसपा को साथ लिए बिना चुनाव जीतना आसान नहीं होगा। 

(अनुवादः अमरीश हरदेनिया, संपादन : नवल)

लेखक के बारे में

रुपेश रंजन

लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के राजनीति शास्त्र विषय के पीएचडी शोधार्थी हैं

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