उत्तर प्रदेश में सात चरणों के मतदान के बाद हर किसी की दिलचस्पी यह जानने में है कि अगली सरकार कौन सा दल बना रहा है। इसे लेकर तमाम टीवी चैनल, पोर्टल अपने-अपने एक्ज़िट पोल दिखा रहे हैं। इन तमाम एक्ज़िट पोल का लब्बो-लुआब यह है कि राज्य में भारतीय जनता पार्टी की सरकार दोबारा बन रही है। हालांकि यह ऐसी कयासबाजी है, जिसपर न तो राज्य के मतदाता यक़ीन कर पा रहे हैं और न ख़ुद भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेतागण।
ख़ैर, अब सबकी नज़रें 10 मार्च को होने वाली वोटों की गिनती पर टिकी है। यह चुनाव तमाम दलों के अस्तित्व से जुड़ा है शायद इसलिए बाक़ी के चार राज्यों में हुई वोटिंग पर किसी का ज़्यादा ध्यान नहीं है। भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश बेहद अहम है क्योंकि अगर पार्टी अस्सी लोक सभा सीटों वाले इस राज्य में चुनाव हार जाती है तो फिर अगले आम चुनाव में सत्ता में वापसी उसके लिए आसान नहीं होगी। इसके अलावा पार्टी का प्रमुख चेहरा और देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसी राज्य की वाराणसी लोक सभा सीट से सांसद है। वहीं विपक्ष अगर यह चुनाव हार जाता है तो राज्य में दलित पिछड़ों की राजनीति के आयाम पूरी तरह बदल जाएंगे और सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले कई दलों का अस्तित्व हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएगा।
बहरहाल, अभी हार-जीत का विश्लेषण करने का समय नहीं है। इस पर 10 मार्च के बाद भी चर्चा हो सकती है कि कोई पार्टी क्यों चुनाव हारी और उसने कहां कमी छोड़ दी। हार-जीत से परे यह चुनाव कम से कम तीन बातों के लिए याद रखा जाएगा और लंबे अरसे में इसका असर देश की राजनीति पर महसूस किया जाता रहेगा। पहला, किसान जातियों की गोलबंदी, दूसरा पिछड़ों और दलितों की कुछ हद तक अपने मूल दलों की तरफ वापसी और शोषित वर्गों के आपस में धार्मिक वैमनस्य कम करके साथ आने की पहल। यह अभी अतिश्योक्ति लग सकती है लेकिन उत्तर प्रदेश के चुनाव ने दलित, पिछड़े और मुसलमानों के वापस एक दिशा में आने के रास्ते खोले हैं।

सातों दौर के मतदान में एक बात बहुत साफ है। मुसलमान, जाट, यादव, पासी, राजभर, कुर्मी, जाटव और मौर्य मतदाताओं के बीच दूरी बहुत हद तक घटी है। यूपी में 2014 के बाद हुए तमाम चुनावों में किसी न किसी कारण से यह वर्ग एक दूसरे के सामने खड़े नज़र आए। वर्तमान में हालांकि ऐसा नहीं है कि इन वर्गों ने अपने तमाम आपसी मतभेद ख़त्म कर लिए हैं या ज़मीन पर इनके आपसी गतिरोध मिट गए हैं या फिर इनमें एक दूसरे के लिए बहुत प्रेमभाव पनप गया है। लेकिन इतना कहा जा सकता है कि कहीं न कहीं सदभाव का बीज रोपा गया है, कहीं पर मेलजोल का बीज अंकुरित हुआ है और कहीं पर सामंजस्य का पौधा पनपता दिखा है। यह लंबे अरसे में काफी अहम साबित होने वाला है।
इस चुनाव में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय लोक दल (आरएलडी), सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी और अपना दल के मतादाताओं के बीच की दूरियां घटी हैं। यह तो परिणाम ही बताएगा कि समाजवादी पार्टी और उसके घटक दलों को इसका कितना लाभ मिला है।
ध्यातव्य है कि 2019 में यादव और जाटव मतदाता सपा-बसपा गठबंधन के बावजूद एक दूसरे को वोट देते नहीं दिखे थे। यही हाल पश्चिम में मुसलमान और जाट मतदाताओँ का था। इस बार एक दूसरे पर विश्वास करने वालों की तादाद 2019 के मुक़ाबले बहुत ज़्यादा है। इसका श्रेय बहुत हद तक किसान आंदोलन, और उससे जुड़े राकेश टिकैत जैसे नेताओं को भी जाता है।
दरअसल दलित और पिछड़ों की राजनीति कर रहे दलों की सबसे बड़ी कमी रही है कि वह चुनावी गठबंधन को ही सबकुछ मानते चले आ रहे हैं। मगर जिन वोटरों के बूते यह दल राजनीति कर रहे हैं उनके बीच के विवाद, मतभेद और लड़ाई के ऐतिहासिक कारणों को दूर करने में इन दलों की कोई दिलचस्पी नहीं रही है। लेकिन 2019 में लोक सभा चुनाव में हार के बाद अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी और जयंत चौधरी की राष्ट्रीय लोकदल ने दो अहम पहल की हैं। एक तो पश्चिम यूपी में मुसलमान और जाटों के 2013 के दंगों से जुड़े विवादों को आपसी सहमति से ख़त्म करना है और दूसरा अंबेडकरवादियों के मन में यादव, जाट, गूजर जैसी जातियों के प्रभुत्व को लेकर दलितों के मन से डर कम करना है।
उत्तर प्रदेश में ऐतिहासिक तौर पर जितना रोष ब्राह्मण और ठाकुरों के प्रभुत्व को लेकर दलितों के मन में रहा है उतना ओबीसी जातिओं में शामिल मज़बूत वर्गों के लिए भी है। सरकार से मिले पट्टों पर क़ब्ज़े को लेकर विवाद हों, छूआछूत हो और आपस में बराबरी का व्यवहार हो, सामान्यत: इस मामले में जाट, गूजर, यादव और मुसलमानों का भी बर्ताव दलितों के प्रति आम ठाकुर या ब्राह्मण से अलग नहीं रहा है। जब तक इन मसलों का हल नहीं खोजा जाएगा, आरएसएस और भाजपा की पकड़ कमज़ोर तबक़ों में कम नहीं की जा सकेगी। समाजवादी पार्टी ने देर से सही, लेकिन बहुत हद तक इस बात को समझा है। हालांकि बहुजन समाज पार्टी यह मौक़ा चूक गई। मायावती यह समझने में विफल रहीं कि अगर वह सत्ता से लड़ने का दिल दिखाती हैं और ख़ुद को मज़बूत विपक्षी दर्शाती हैं तो उनके पास सत्ता पाने का मौक़ा अखिलेश यादव से ज़्यादा था।
अब जबकि वोटिंग हो चुकी है और चुनाव का नतीजा बस आने ही वाला है तो क़यासबाज़ी या बहसबाज़ी का कोई मतलब नहीं रह जाता है। अब समय आगे की रणनीति और रास्ता तय करने का है। अगर चुनाव जीत जाते हैं तो दलित-पिछड़ों की राजनीति करने वालों को इस बुनियाद पर आपसी-समझबूझ की एक मज़बूत इमारत खड़ी करनी चाहिए। हार जाते हैं तो फिर यहीं से जो शुरुआत की है, उसे बीच रास्ते छोड़ने की बजाय मुहिम को अंजाम तक लेकर जाना चाहिए। जब तक देश के तमाम शोषित तबक़े आपस के विवाद ख़त्म करके एक दिशा में आगे नहीं बढ़ेंगे, उनकी और उनके वोट की अहमियत सिर्फ चुनावी महीने तक ही सीमित रहेगी। यह समझना ज़रूरी है कि चुनावी राजनीति में बदलाव लाने के लिए समाज में बदलाव लाना बेहद ज़रूरी है।
(संपादन : नवल/अनिल)
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