उत्तर प्रदेश में अब सिर्फ दो दौर का चुनाव और बचा है। चुनाव के इस आख़िरी दौर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरह पूर्वांचल में लगातार प्रचार करने और जनसंपर्क कार्यक्रमों में हिस्सा लेने का फैसला किया, उसके मद्देनज़र तमाम तरह के सवाल उठ रहे हैं। क्या मान लिया जाए कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) राज्य में सत्ता की दौड़ में पिछड़ रही है या फिर पार्टी अंतिम दौर में सत्ता पाने के लिए ज़रुरी 202 सीटों की सीमारेखा को पार करने के लिए किसी भी क़ीमत पर लालायित है?
उत्तर प्रदेश में सत्ताधारी भाजपा के चुनाव प्रचार की कमान बहुत हद तक मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और गृहमंत्री अमित शाह ही संभाले हुए हैं। हालांकि बीच-बीच में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी चुनावी सभाएं करते नज़र आते हैं, लेकिन उनकी सक्रियता अभी तक उस तरह की नहीं रही है, जिसके लिए वह जाने जाते हैं। जिस तरह शुरुआती दौर में प्रधानमंत्री चुनावी सभाओं से दूर रहे और बिजनौर में जिस तरह अंतिम समय में उनकी प्रस्तावित सभा रद्द की गई, उसे लेकर भी तमाम तरह के सवाल उठे। यह कहा गया कि पश्चिम उत्तर प्रदेश में भाजपा के विरोध और किसानों की नाराज़गी के मद्देनज़र प्रधानमंत्री किसी भी तरह वहां हार की ज़िम्मेदारी लेने से बच रहे हैं और पार्टी ने योगी आदित्यनाथ को बीच मझधार में अकेला छोड़ दिया है।
हालांकि कैराना, देवबंद और मथुरा में अमित शाह ने घर-घर जाकर पार्टी की स्थिति संभालने की कोशिश की। इसका फायदा भी कुछ जगह भाजपा को मिल सकता है। लेकिन प्रधानमंत्री पहले चार दौर के प्रचार अभियान में बहुत ज़्यादा सक्रिय नहीं रहे। इसके तमाम कारण हो सकते हैं, लेकिन सबसे बड़ी वजह शायद प्रधानमंत्री की वह छवि है, जो मीडिया, पीआर और पार्टी संगठन के ज़रिए लोगों के बीच गढ़ी गई है। लोगों के बीच प्रधानमंत्री को तक़रीबन अपराजेय साबित कर दिया गया है। ज़ाहिर है इसके लिए उन तमाम जगहों पर प्रचार से उनको दूर रखा जाता है जहां उनकी इस गढ़ी गई छवि को चोट पहुंचे।
भले ही चुनावी सभा रद्द करनी पड़े या चुनाव में नुक़सान उठाना पड़े, लेकिन भाजपा के रणनीतिकार इस बात का ख़्याल रखते हैं कि प्रधानमंत्री की छवि को नुक़सान न पहुंचे। ज़ाहिर है, जिन इलाक़ों में प्रधानमंत्री नहीं गए, वहां पार्टी की चुनावी संभावनाएं कमज़ोर रही होंगी या पार्टी को जीत का यक़ीन नहीं था। बिजनौर, मुज़फ्फरनगर, लखीमपुर खीरी, रामपुर, संभल, अमरोहा, जैसे ज़िलों में प्रधानमंत्री का चुनाव प्रचार से दूर रहने का अर्थ राजनीतिक विश्लेषकों ने यही निकाला। यानी जहां पार्टी हारे वहां ज़िम्मेदारी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की। जबकि चुनाव में इससे एक संदेश यह भी गया कि पार्टी का शीर्ष नेतृत्व योगी आदित्यनाथ को चुनाव बाद मुख्यमंत्री बनाए रखने के पक्ष में नहीं है।

अब जबकि प्रधानमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी समेत पूर्वांचल के तमाम ज़िलों में चुनाव बचा है तो वह चुनाव प्रचार में न सिर्फ नज़र आ रहे हैं, बल्कि तक़रीबन पूरी ताक़त झोंके हुए हैं। इसके तमाम निहितार्थ निकाले जा रहे हैं। एक तो यही है कि इस इलाक़े में भाजपा के रणनीतिकारों को बेहतर सफलता की उम्मीदें हैं। दूसरे, वह कह सकते हैं कि पूरे राज्य में जहां-जहां प्रधानमंत्री गए, वहां-वहां पार्टी को फायदा हुआ। यानी गढ़ी हुई धवि की चमकार लोगों को फिर से दिखाई जा सकती है। तीसरे, राज्य में किसानों की नाराज़गी, ख़राब आर्थिक नीतियों, सरकारी नौकरियों में भर्ती, कोरोना कुप्रबंधन, महंगाई समेत तमाम मुद्दों के बावजूद विफलता का ठीकरा राज्य नेतृत्व पर फोड़ा जा सके।
हालांकि इसे रणनीतिक तौर पर ऐसे दर्शाया जा रहा है मानो पहले पांच दौर के चुनाव में बराबरी का मुक़ाबला या फिर भाजपा को थोड़ी बहुत बढ़त हासिल है। अब प्रधानमंत्री के प्रचार में कूद पड़ने से बस पूर्वांचल में पार्टी सफाया कर देगी और स्लॉग ओवरों में भीषण बल्लेबाज़ी करके किसी भी तरह सत्ता हासिल कर लेगी। यानी प्रधानमंत्री ही पार्टी के असली संकटमोचक हैं। इसमें छिपा संदेश मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के लिए भी है कि प्रधानमंत्री की बराबरी का प्रयास न करें। हालांकि यह संदेश मुख्यमंत्री को अयोध्या की बजाय गोरखपुर से चुनाव लड़ा कर पहले ही दिया जा चुका है।
अब सवाल यह है कि प्रधानमंत्री के ज़रिए क्या भाजपा राज्य की सत्ता किसी भी तरह बचाए रखने की कोशिश कर रही है या फिर हार का फासला कम करके राज्य में सम्मान बचाए रखने के प्रयास में है? राज्य में सत्ता की प्रबल दावेदार और मुख्य विपक्षी दल, समाजवादी पार्टी का दावा है उसने पहले पांच दौर में ही सत्ता पाने लायक़ सीटें जीत ली हैं। हालांकि यह दावा अतिरेक भी हो सकता है और हवा बनाए रखने की कोशिश भी। लेकिन इतना कहा जा सकता है कि राज्य में चुनाव भाजपा के लिए उतना आसान नहीं है जितना दो महीने पहले पार्टी के रणनीतिकार मान रहे थे।
अब जबकि प्रधानमंत्री चुनाव प्रचार में कूदे हैं तो यह देखना ज़रूरी है कि वह किन इलाक़ों में सक्रिय हैं। वाराणसी, चंदौली, गोरखपुर, जौनपुर, बलिया जैसे ज़िलों में 2017 में भाजपा ने शानदार प्रदर्शन किया था। इस बार भी पार्टी को उम्मीद है कि जनता उसके पक्ष में वोट करेगी। लेकिन अगर नहीं किया तो? तब भी प्रधानमंत्री की छवि को ख़ास नुक़सान नहीं होगा, क्योंकि तब हार की ज़िम्मेदारी पूर्वांचल में पार्टी के बड़े चेहरों, यानी योगी आदित्यनाथ और राजनाथ सिंह के हिस्से आएगी, या उन विधायकों के ज़िम्मे आएगी जो हार का मुंह देखेंगे। और प्रधानमंत्री? बंगाल, महाराष्ट्र, दिल्ली, राजस्थान या मध्य प्रदेश में पार्टी के ख़राब प्रदर्शन के लिए किसी ने उनको ज़िम्मेदार ठहराया था क्या? वह अभी भी भाजपा में तमाम सवालों से परे हैं।
(संपादन : नवल/अनिल)
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