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राहुल-मायावती विवाद में आख़िर नुक़सान किसका है?

मायावती की परेशानी यह है कि वह अभी भी अपना विरोधी तय नहीं कर पा रही हैं। उनकी पार्टी 2012 के बाद से लगातार तमाम चुनाव हार रही है, लेकिन उनका विरोध अभी भी विपक्ष के दलों से है। इस दौरान उन्होंने 2019 के लोक सभा चुनाव में समाजवादी पार्टी से गठबंधन ज़रूर किया लेकिन अपने वोटरों को समाजवादी पार्टी उम्मीदवारों के लिए वोट करने को मनाने में नाकामयाब रहीं। बता रहे हैं सैयद जै़गम मुर्तजा

बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की मुखिया मायावती और कांग्रेस नेता राहुल गांधी के बीच इन दिनों दिलचस्प आरोप-प्रत्यारोप का दौर चल रहा है। राहुल गांधी का दावा है कि मायावती भाजपा के ख़िलाफ लड़ना ही नहीं चाहती हैं। दूसरी तरफ मायावती कह रही है कि राहुल पहले अपना घर ठीक करें तब उनके उपर इलज़ाम लगाएं। इस बहस को शुरु करने की राहुल गांधी की नीयत क्या है, यह कोई नहीं जानता। लेकिन यह बात तय है कि इस बहस से नुक़सान मायावती को ही होना है।

राहुल गांधी का इल्ज़ाम है कि मायावती ईडी और सीबीआई से इतना घबराई हुई हैं कि वह अब दलितों की लड़ाई नहीं लड़ना चाहतीं। राहुल दावा कर रहे हैं कि उनकी पार्टी ने मायावती के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश चुनाव लड़ने की मंशा ज़ाहिर की थी, लेकिन मायावती ख़ामोश हो गईं। इससे पहले भी कांग्रेस के तमाम नेता इलज़ाम लगाते रहे हैं कि मायावती भाजपा के दबाव में हैं और सत्ताधारी पार्टी के इशारे पर अपने तमाम फैसले लेती हैं। पंजाब में भी इसी तरह के आरोप मायावती पर लगाए गए। जिस तरह मायावती उत्तर प्रदेश चुनाव  के दौरान चुनावी सभाओं से कई दिन तक दूर रहीं, उससे इन इल्ज़ामों को मज़बूती मिली।

सिर्फ कांग्रेस नहीं, बल्कि समाजवादी पार्टी, और बसपा छोड़कर गए तमाम बड़े नेता मायावती पर निष्क्रिय होने, डरे होने, और सरकारी एजेंसियों के दबाव में होने जैसे आरोप लगाते रहे हैं। हालांकि मायावती लंबे अरसे से इन तमाम बातों का सीधे तौर पर जबाव देने से बचती भी रही हैं। बीच-बीच में उनके ट्वीट और लिखित बयान आते रहे हैं, जिनमें कांग्रेस पर बहुजनों की अनदेखी, दलित हितों के ख़िलाफ काम करने, के आरोप वह लगाती रही हैं। लेकिन इस बार जिस तरह मायावती ने पलट कर राहुल गांधी के आरोपों का जवाब दिया है, उससे उनके समर्थक भी शायद संतुष्ट नहीं दिख रहे हैं।

उत्तर प्रदेश और पंजाब के चुनावी नतीजे बताते हैं कि बसपा को भारी नुक़सान हुआ है। इन दोनों ही राज्यों में बसपा का मज़बूत जनाधार रहा है। हालांकि पंजाब में पार्टी की कभी सरकार नहीं बनी, लेकिन फिर भी वहां नतीजों पर बसपा की छाप महसूस की जाती रही है। इस बार ऐसा हुआ कि यूपी और पंजाब में बसपा और कांग्रेस, दोनों को ही भारी हार का मुंह देखना पड़ा। कांग्रेस जहां दोनों जगह अकेले चुनाव लड़ी, वहीं पंजाब में बसपाने भाजपा की पूर्व सहयोगी शिरोमणि अकाली दल के साथ गठबंधन किया। एक बात तय है। अगर दोंनों पार्टियों का इन दो राज्यों में गठबंधन हुआ होता तो हार के बावजूद नतीजे शायद इतने बुरे नहीं होते।

राहुल गांधी और मायावती

ख़ासकर उत्तर प्रदेश में जिस तरह दलित और अति-पिछड़े अंत तक विकल्पहीन रहे, उसका असर चुनावी नतीजों पर पड़ा। मायावती के लंबे अरसे तक प्रचार से दूर रहने, और बसपा के सिर्फ समाजवादी पार्टी के बाग़ियों पर निर्भर रहने से नतीजा यह हुआ कि भाजपा एक बार फिर ब़ड़ी जीत दर्ज करने में कामयाब रही। अगर कांग्रेस और बसपा का गठबंधन होता तो मुसलमान, दलित, ओबीसी, और कुछ अगड़ी जातियों का गठबंधन बनता जो शायद भाजपा को समाजवादी पार्टी से ज़्यादा मज़बूत चुनौती भी दे सकता था। समाजवादी पार्टी के पक्ष में मुसलमान और कुछ ओबीसी जातियों की गोलबंदी ज़रुर हुई, लेकिन दलितों ने अखिलेश यादव पर भरोसा नहीं किया। 

इसी तरह भाजपा से नाराज़ कई वोटर थे, जिनमें ब्राह्मण भी शामिल थे, विकल्पहीनता में वापस भाजपा में गए। अगर बसपा मज़बूत दिखती तो शायद वह वोटर जो बीजेपी और समाजवादी पार्टी दोनों से दूरी बनाना चाहता था, वह बसपा के साथ होता और नतीजे अलग होते। ऐसे में राहुल गांधी का बयान कि मायावती मौक़ा चूक गईं, एक हद तक सही नज़र आता है। यूपी में कांग्रेस पिछले पांच सात साल के दौरान सरकार विरोधी संघर्ष की अगुवा रही है, लेकिन संगठन न होने की वजह से वोटर उसपर भरोसा नहीं कर पा रहा है। ऐसे में मायावती साथ आतीं तो यक़ीनन राज्य की चुनावी तस्वीर बदल सकती थी।

इधर मायावती की परेशानी यह है कि वह अभी भी अपना विरोधी तय नहीं कर पा रही हैं। उनकी पार्टी 2012 के बाद से लगातार तमाम चुनाव हार रही है, लेकिन उनका विरोध अभी भी विपक्ष के दलों से है। इस दौरान उन्होंने 2019 के लोक सभा चुनाव में समाजवादी पार्टी से गठबंधन ज़रूर किया लेकिन अपने वोटरों को समाजवादी पार्टी उम्मीदवारों के लिए वोट करने को मनाने में नाकामयाब रहीं। उनकी पार्टी से तमाम दलित और ओबीसी चेहरे इसी हताशा में जा चुके हैं कि पार्टी अब चुनाव जीतने के लिए नहीं लड़ना चाहती। यही सोच अब उनके कोर वोटर की भी बनती जा रही है।

अब मायावती कह रही हैं कि राजीव गांधी ने भी बसपा को बदनाम और कमजोर करने के लिए कांशीराम को सीआईए का एजेंट बता दिया था। वह राहुल गांधी के बयान को इसी का विस्तार बता रही हैं। लेकिन मायावती यह नहीं बता पा रही हैं कि उनको गंभीरता से चुनाव लड़ने से रोक कौन रहा है? यूपी में अगर समाजवादी पार्टी से टिकट कटने के बाद बीएसपी से चुनाव लड़े मुसलमान उम्मीदवारों का वोट निकाल दिया जाए तो पार्टी को मिला वोट कांग्रेस जितना ही रह जाएगा। वह ऐसी पार्टी से लड़ रही हैं जो हार में तक़रीबन उनके बराबर है लेकिन जीत में सहायक हो सकती है।

मायावती भूल जाती हैं कि हाल के बरसों में चंद्रशेखर आज़ाद जैसे नए नेता सामने आ रहे हैं जो सक्रियता के बल पर उनके लिए चुनौती बन रहे हैं। इधर उनकी पार्टी का वोट भाजपा के अलावा आम आदमी पार्टी और चंद्रशेखर आज़ाद की आज़ाद समाज पार्टी की तरफ तेज़ी से जा रहा है। ऐसे में सिर्फ बाग़ियों के सहारे, अपने संगठन की अनदेखी करके, और विपक्ष के नेताओं से बहस करके मायावती कितने दिन प्रासंगिक बनी रह पाएंगीं? बेहतर है विपक्षी पार्टियों से उलझना छोड़कर वह अपना संगठन मज़बूत करें और दलितों के मुद्दों पर वापस सड़क का रुख़ करें। उनका वोटर भी चाहता है कि शब्बीरपुर, हाथरस या उन्नाव जैसे मसले हों तो मायावती उनके बीच आएं। 

लेकिन मायावती वोटरों तक अपनी पहुंच बनाए रखने और सत्ता को चुनौती देने में दिलचस्पी दिखा ही कब रही हैं? ऐसे में जब वह राहुल गांधी या किसी अन्य विपक्षी नेता के साथ बहस में उलझती हैं तो नुक़सान उनका ही होता है। उनका वोटर उन्हें सत्ता से उलझते देखना चाहता है और वह हारे हुए विपक्ष पर अपनी ऊर्जा व्यर्थ कर रही हैं।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सैयद ज़ैग़म मुर्तज़ा

उत्तर प्रदेश के अमरोहा ज़िले में जन्मे सैयद ज़ैग़़म मुर्तज़ा ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से लोक प्रशासन और मॉस कम्यूनिकेशन में परास्नातक किया है। वे फिल्हाल दिल्ली में बतौर स्वतंत्र पत्रकार कार्य कर रहे हैं। उनके लेख विभिन्न समाचार पत्र, पत्रिका और न्यूज़ पोर्टलों पर प्रकाशित होते रहे हैं।

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