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वन संरक्षण नियम, 2022 के पीछे केंद्र की मंशा

वन संरक्षण नियम, 2022 के लागू हो जाने के बाद केंद्र सरकार द्वारा गठित कमेटी एक निश्चित समय सीमा के भीतर वन भूमि को गैर-वानिकी कार्य के लिए उपयोग करने के प्रस्ताव को स्वीकार करने या अस्वीकार करने के लिए अधिकृत हो गई है। साथ ही ग्राम सभाओं के अधिकारों में कटौती की गई है। बता रहे हैं मनीष भट्ट मनु

आजादी के तथाकथित अमृतकाल में एक बार फिर आदिवासी समाज सरकार की नजरों में उपेक्षित नजर आ रहा है। इस बार कारण बना है केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा लाया गया वन संरक्षण नियम, 2022। वन संरक्षण अधिनियम, 1980 के तहत बनाए गए इन नियमों की अधिसूचना केंद्र सरकार द्वारा अध्यादेश के जरिए गत 28 जून, 2022 को जारी की गई है। जानकारों का मानना है कि देश में आदिवासियों के विस्थापन और शेष बचे सघन वनों के उजड़ने की प्रक्रिया अब और तेज हो जाएगी। वे इसे आजादी का अमृतकाल के मौके पर देश के लगभग बीस प्रतिशत भूभाग, जो प्राकृतिक और खनिज संस्थानों से भरपूर है, को औद्योगिक घरानों को भाजपा नीत सरकार का एक तोहफा की संज्ञा देते हैं।

गौर तलब है कि गत 8 अगस्त, 2022 को समाप्त हुए संसद के मानसून सत्र के दौरान केंद्र सरकार द्वारा वन संरक्षण संशोधन विधेयक-2022 लाया जाना प्रस्तावित था। परंतु, इसे लाया नहीं गया।

इन नियमों के तहत कोई भी देश में कहीं भी मनचाही वन भूमि पर कोई प्रोजेक्ट लगाने या खनन करने के लिए आवेदन कर सकता है। वन संरक्षण नियम, 2022 के लागू हो जाने के बाद केंद्र सरकार द्वारा गठित कमेटी एक निश्चित समय सीमा के भीतर वन भूमि को गैर-वानिकी कार्य के लिए उपयोग करने के प्रस्ताव को स्वीकार करने या अस्वीकार करने के लिए अधिकृत हो गई है। इन नियमों में इस बात का प्रावधान भी किया गया है कि किसी भी योजना के लिये स्थानीय आदिवासी और वनाश्रित समाज से मंजूरी लेने की जवाबदेही अब राज्य सरकारों की होगी। हालांकि केंद्रीय वन, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय का तर्क है कि उसने वर्ष 2003 में लाए गए वन संरक्षण अधिनियम के स्थान पर इन नए नियमों का प्रावधान रखा है।

जंगलों पर समुदाय के नियंत्रण को समाप्त करने का पहला प्रयास ब्रिटिश शासनकाल में हुआ था। वर्ष 1862 में सर्वप्रथम परती भूमि अधिनियम लागू कर इमारती प्रजाति के वृक्षों की कटाई के लिए उपायुक्त से अनुमति आवश्यक कर दी गई। वर्ष 1864 में इसी नियम के तहत लेफ्टिनेंट डाकरन को भारत का पहला उप वन संरक्षक बनाया गया। वर्ष 1865 में जंगलों को पहली बार आरक्षित वन और अनारक्षित वन के तौर पर वर्गीकृत किया गया। वर्ष 1872 में देश में वन संरक्षण अधिनियम लागू किया गया। इस अधिनियम के तहत ही वन आश्रित समुदाय की बस्तियों को भी जंगल की भूमि में शामिल किया गया और उनके निवासियों पर वन विभाग की अनेक शर्तें लागू कर दी गईं। 

नये नियमों से जंगलों पर बढ़ेगा सरकार का अधिकार

वर्ष 1862 से ही जंगलों पर अपने अधिकार और नियंत्रण को समाप्त किए जाने को लेकर विभिन्न समुदाय देश के अलग अलग क्षेत्रों में आंदोलनरत थे। वर्ष 1872 के बाद इस आंदोलन ने और प्रचंड रूप ले लिया। इससे घबराकर वर्ष 1878 में तत्कालीन शासकों द्वारा आदिवासी बहुल क्षेत्रों में द शेडल्यूल्ड डिस्ट्रिक्ट एक्ट पारित कर यहां स्वविधीय कानून लागू किया गया। इसमें कहा गया था कि इन क्षेत्रो में केंद्र और राज्य के कोई भी कानून लागू नहीं होंगे। इसका अर्थ यह था कि आदिवासी क्षेत्र तत्कालीन शासन में लागू तमाम कानूनों से मुक्त थे। यह वर्ष 1778 में छोटानागपुर में आदिवासी समाज द्वारा अंग्रेजी शोषण और अत्याचार के विरुद्ध हुए प्रथम विद्रोह के 100 वर्ष बाद की बात है।

वर्ष 1927 में भारतीय वन अधिनियम लागू किया गया। इसमें जंगलों का नियंत्रण वन विभाग को स्पष्ट तौर पर दे दिया गया। मगर द शेड्यूल्ड डिस्ट्रिक्ट एक्ट के तहत समुदाय को प्राप्त अधिकार काफी हद तक इस अधिनियम के लागू होने के बाद भी बरकरार रखे गए। इसी अधिनियम के तहत वन विभाग द्वारा जंगलों में बसी बस्तियों में कृषि का अधिकार भी वहां के निवासियों को दिया गया। तब वन विभाग अधिनियम की धारा 28 और 29 के तहत निस्तार व वनोपज पर समाज के अधिकारों को मान्यता देता था। 

वर्ष 1935 में पारित और संविधान के मूल आधार गवर्नमेंट अॅफ इंडिया एक्ट के चैप्टर 5 में एक्सक्लूडेड एंड पार्सियली एक्सक्लूडेड एरियाज करके दो क्षेत्र बनाए गए। यह दोनों ही आदिवासी बहुल क्षेत्र थे। देश आजाद होने के बाद संविधान के अनुच्छेद 244 में यह प्रावधान किया गया कि भारत के आदिवासी क्षेत्रों को पांचवी और छठी अनुसूची में बांट दिया जाय। जहां आदिवासी समाज की आबादी का प्रतिशत कम था, उन राज्यों के आदिवासी बहुल क्षेत्रों को पांचवी अनुसूची में शामिल कर उन्हें शेड्यूल्ड एरिया कहा गया जबकि आदिवासी आबादी बहुल राज्यों को ट्राइबल एरिया कहकर उन्हें छठी अनुसूची में शामिल किया गया। इन दोनों अनुसूचियों में शामिल क्षेत्रों का प्रबंधन आदिवासी समाज की परंपराओं/रुढ़ियों/रीतियों/रिवाजों का संरक्षण करते हुए स्वविधीय कानून के तहत किया जाना भी तय किया गया। मगर वास्तव में आदिवासी क्षेत्रों में इस प्रावधान को कभी लागू नहीं होने दिया गया। इसके अतिरिक्त संविधान का अनुच्छेद 13 के 3 (क) में भी बेहद स्पष्ट तरीके से लिखा गया है कि विधि के अंतर्गत भारत के राज्यक्षेत्र में विधि का बल रखने वाला कोई अध्यादेश, आदेश, उपविधि, नियम, विनियम, अधिसूचना, रूढ़ि या प्रथा है। मगर इसका भी पालन सरकार द्वारा आज तक नहीं किया गया है।

आजादी के तुरंत बाद से ही वन विभाग द्वारा भारतीय वन अधिनियम, 1927 के तहत जंगलो में और उससे सटकर बसी बस्तियों की राजस्व भूमि जिसमें कृषि भूमि और निस्तार के प्रयोजन की भूमि भी शामिल है, समेत समस्त भूमि को पांचवीं और छठी अनुसूची तथा अनुच्छेद 13 की भावना के विपरीत वन भूमि घोषित कर उन्हें अपने नियंत्रण में लिया जाने लगा। इसके साथ ही भारत सरकार वन महकमा इन बस्तियों में रहनेवालों के जंगल पर अधिकार को भी धीरे-धीरे समाप्त करने लगा। जबकि भारतीय वन अधिनियम, 1927 की धारा 29 में पहले से ही कायम अधिकारों को बनाए रखने के प्रावधान दिए गए थे।

वर्ष 1980 में लाए गए वन संरक्षण अधिनियम के बाद तो वन विभाग एक तरह से जंगलों का मालिक ही बन बैठा। इसके लागू होने के बाद से वन आश्रित समुदाय, जो सभ्यता के प्रारंभ से ही जंगलों को बचाता चला आ रहा है, को जंगलों का न केवल दुश्मन साबित करने का षड्यंत्र रचा गया, वरन् जंगल और उसकी उपज पर उसके अधिकारों को भी समाप्त किए जाने लगा। यह अधिनियम भी पांचवीं और छठी अनुसुची तथा अनुच्छेद 13 का पालन नहीं करता। यह अधिनियम दरअसल जंगलों के गैर-वानिकी उपयोग को नियंत्रित करने का एक माध्यम था। इसी अधिनियम के माध्यम से संविधान में मूलतः राज्यों को दिए गए निर्वनीकरण के अधिकारों को केंद्र ने हासिल कर लिये। दरअसल इस अधिनियम के माध्यम से आजादी के बाद से वर्ष 1980 तक वन विभाग द्वारा की गई समस्त असंवैधानिक गतिविधियों को वैधानिक जामा पहना दिया गया।

वर्ष 1996 में 73वां संविधान संशोधन कर पंचायत उपबंध (अधिसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम, 1996 (पेसा) लागू किया गया। कहने को तो इसमें भी सामुदायिक संपदाओं और प्राकृतिक संसाधनों पर परंपराओं और रूढ़ियों के दायरे में ग्रामसभा का नियंत्रण होने की बात कही गई है। मगर आज 24 साल बाद भी किसी भी राज्य ने भारतीय वन अधिनियम, 1927 और वन संरक्षण अधिनियम, 1980 में संशोधन नहीं किया है। भारत सरकार भी इस अधिनियम के तहत प्राप्त अधिकारों का पालनकर ग्राम सभा को पर्याप्त अधिकार दे सकती है। 24 दिसंबर, 1996 को लागू पेसा में ग्रामसभा को सर्वोच्च इकाई माना गया है, जिसे अपनी परंपराओं, रुढ़ियों और रिवाजों के अनुसार अपने विवाद को निपटाने तथा प्राकृतिक संसाधनों का परंपरागत तरीके से प्रबंधन करने का अधिकार प्राप्त है। पेसा में ग्रामसभा को मद्य निषेध, भूमि पर कब्जे की घटनाओं पर रोकथाम, भूअर्जन के पूर्व ग्रामसभा से सलाह, लघु वनोपज पर अधिकार, स्थानीय जल का प्रबंधन, गौण खनिज के खनन की अनुशंसा, गांव के बाजार का प्रबंधन, कर्ज के लेन-देन पर नियंत्रण, गांव के विकास की योजना का अनुमोदन, लाभार्थियों की पहचान करना, स्थानीय योजनाओं पर खर्च की राशियों पर नियंत्रण तथा सामाजिक क्षेत्र के कार्यकलापों पर नियंत्रण आदि के अधिकार दिए गए हैं। लेकिन आज तक किसी भी राज्य ने इस कानून को लागू करने की हिम्मत नहीं दिखाई है। वनाधिकार कानून के माध्यम से बहुत सारे अधिकारों को छीनने का ही काम किया गया। इसके अतिरिक्त वर्ष 2008 में पारित ग्राम न्यायालय अधिनियम ने भी पेसा एकट की मूल भावना को व्यापक क्षति पहुंचाई है।

अब इस बार मोदी सरकार वन संरक्षण नियम, 2022 लेकर आई है, जिसका लक्ष्य देश के जंगलों को पूंजीपतियों के हवाले करना है। देश की जमीनें, सार्वजनिक क्षेत्र की संपत्तियों, बैंक बीमा आदि के विनिवेश के बाद कॉरपोरेट व बहुराष्ट्रीय निगमों की गिद्ध दृष्टि अब जंगलों पर लग गई है। वे अब जंगलों को भी अपनी निजी मिल्कियत बनाना चाहते हैं, उनसे और अधिक मुनाफा अर्जित करना चाहते हैं। देश का लगभग 22 प्रतिशत भूभाग वनाच्छादित है। किसी भी वन के विकसित होने में हजारों वर्ष का समय लगता है। देश के वनों में केवल वृक्ष ही नहीं हैं, बल्कि इनमें विभिन्न किस्मों की वनस्पति व जीव-जंतु भी पाए जाते हैं। मोदी सरकार द्वारा लाए गये इन नये नियमों से देश के पर्यावरण, जंगलों, वनस्पतियों व जीव-जंतुओं की तबाही-बरबादी तय है। इसके साथ ही देश की एक बड़ी आबादी, जो जीविकोपार्जन के लिए जंगलों पर निर्भर है, का बरबाद होना तय है। 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

मनीष भट्ट मनु

घुमक्कड़ पत्रकार के रूप में भोपाल निवासी मनीष भट्ट मनु हिंदी दैनिक ‘देशबंधु’ से लंबे समय तक संबद्ध रहे हैं। आदिवासी विषयों पर इनके आलेख व रपटें विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से प्रकाशित होते रहे हैं।

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