बीते 9 जनवरी, 2023 को फ़ातिमा शेख की जयंती पर एक सेमिनार बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, बनारस में भगत सिंह छात्र मोर्चा ने आयोजित किया। इस सेमिनार में न केवल स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में बल्कि औरतों के मुक्ति की दिशा में सावित्रीबाई फुले और फ़ातिमा शेख के उल्लेखनीय योगदान को रेखांकित किया गया। युवा छात्र-छात्राओं और शहर के बुद्धिजीवियों से खचाखच भरे हॉल में उत्साही चेहरों पर मानो इन दोनों पुरखिनों की दिखाई रोशनी जगमगा रही थी।
सेमिनार का विषय था– ‘21वीं सदी के भारत में महिलाओं की स्थिति और उनकी मुक्ति का रास्ता’। मोर्चा की सांस्कृतिक टीम द्वारा प्रस्तुत क्रांतिकारी गीतों से इस कार्यक्रम का आगाज हुआ। बोल थे– ‘आ गए यहां जवां कदम’; ‘तू जिंदा है, तू जिंदगी की जीत में यकीन कर’।
संचालक इप्शिता ने सावित्रीबाई फुले और फ़ातिमा शेख के जीवन के संघर्ष और उनके योगदान को विस्तार से बताया और यह भी रेखांकित किया कि छात्र मोर्चा ऐसे महान लोगों के बताये रास्ते पर आगे बढ़ रहा है और उनकी विरासत को संजोने का प्रयास कर रहा है। अपने संबोधन में बीएचयू में हिंदी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर प्रियंका सोनकर ने रेखांकित किया कि सावित्रीबाई फुले और फ़ातिमा शेख ने ही वह ज़मीन तैयार की थी, जिस पर चल कर उनके जैसे लोग आज यहां तक पहुंचे हैं। उन्होंने बताया कि किस तरह से अकादमिक जगत में दलित-बहुजन लोगों को भेदभाव और अपमानजनक व्यवहार का सामना करना पड़ता है। उन्होंने यह भी बताया कि स्वयं डॉ.आंबेडकर बंबई में जब एक कॉलेज में बतौर शिक्षक पढ़ाने गए तो सवर्ण छात्रों ने कैसे उनका मज़ाक बनाया। इसको दर्शाने के लिए उन्होंने डॉ. आंबेडकर पर जब्बार पटेल की फिल्म का एक अंश भी लोगों को दिखाया। उन्होंने यह बताया कि यह स्थिति कमोबेश आज भी जारी है। ‘अकादमिक जगत में जाति और जेंडर का प्रभाव’ विषय पर अपना वक्तव्य रखते हुए उन्होंने कहा कि कोई भी बदलाव समानता की बुनियाद पर ही हो सकता है। गैर–बराबरी के साथ हम कोई आमूलचूल बदलाव नहीं ला सकते। आज भी अकादमिक जगत में महिलाओं की संख्या काफी कम है। शिक्षण संस्थानों में प्रमुख पदों पर आज भी अधिकांश पुरुष ही विद्यमान है।
एक अन्य वक्ता महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ की सेवानिवृत्त प्रो. शाहीना रिज़वी तबियत खराब होने के कारण अनुपस्थित रहीं पर उन्होंने अपनी बात को वीडियो के माध्यम से भेजा जिसकी स्क्रीनिंग की गई। उन्होंने बताया कि हिदुस्तान में मुस्लिम और हिंदू औरत की दशा कमोबेश एक जैसी ही थी और है। उन्होंने ‘मुस्लिम व अल्पसंख्यक महिलाओं का समाज और राज्य द्वारा शोषण और इसके खिलाफ उनका प्रतिरोध’ विषय पर अपनी मुख्य बात रखी। उन्होंने कहा कि पहले ज़माने में हिंदू हो या मुस्लिम औरतों को तालीम का अधिकार नहीं था। पढ़ने के अधिकार के लिए एक लंबे संघर्ष के बाद समाज में शिक्षा का अधिकार मिल पाया।
लखनऊ विश्वविद्यालय की प्रोफेसर और पूर्व कुलपति रूपरेखा वर्मा ने ‘महिलाओं पर राजकीय दमन’ पर बात रखते हुए कहा कि भारत में ऐतिहासिक रूप से जातिगत ऊंच–नीच का अनंत विभाजन है। आज के दौर में जाति और धर्म के आधार पर हिंसा हो रही है। इसमें न्याय जाति और धर्म के ख़ाके में रखकर ही किया जाता है। उन्होंने बिलकिस बानो और उत्तर प्रदेश के हाथरस रेप मामले का उदाहरण दिया। गौरतलब है कि रूपरेखा जी ने लगभग तीन साल जेल में बंद पत्रकार सिद्दीक कप्पन की ज़मानत लेने का साहस किया और बिलकिस बानो के बलात्कार और उनके परिवार के 14 लोगों की हत्या करने वाले दोषियों को गुजरात सरकार द्वारा रिहा किये जाने के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में दी जाने वाली याचिका में भी वह शामिल हैं।
प्रोफ़ेसर रूपरेखा जी ने अपने संबोधन में कहा कि आज राज्य और देश को एक कर दिया गया है। राज्य की आलोचना देश की आलोचना हो गई है। कई बुद्धिजीवियों, कलाकारों, पत्रकारों को सरकार की आलोचना करने के लिए देशद्रोही बताकर जेल में डाल दिया गया है। हमारे देश में महिलाओं पर हिंसा के मामले अकल्पनीय रूप से बढ़े हैं। इन सब पर राज्य या केंद्र सरकार द्वारा कोई बयान नहीं आता, कभी इस तरह के मामलों से निपटने के लिए पुलिस को सचेत नहीं किया जाता। इसमें राज्य का चुप रहना हिंसा की सहमति है। उन्होंने ऐसे दौर में सावित्रीबाई फुले और फतिमा शेख के माध्यम से औरतों की मुक्ति की बात करने के लिए भगत सिंह छात्र मोर्चा की सराहना की।
राजनीतिक–सामाजिक कार्यकर्ता अमिता शीरीं ने महिलाओं की मुक्ति के सवाल पर अपना वक्तव्य रखा। उन्होंने सावित्रीबाई फुले और फ़ातिमा शेख के योगदान को सलाम करते हुए अपनी बात शुरू की। उन्होंने कहा कि आज के दौर में जब फासीवादी सत्ता दलितों को खुद में समायोजित कर रही है और दलितों को अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ होने वाले दंगों आदि में इस्तेमाल कर रही है। ऐसे में सावित्रीबाई और फ़ातिमा शेख की एकजुटता को बार बार रेखांकित करने की ज़रूरत है। उन्होंने बताया कि जब फुले दंपत्ति पर मुश्किलें पड़ीं तो मुस्लिम लोगों ने उनकी ओर सहायता का हाथ बढाया। जब फुले दंपत्ति को घर से और गांव से निकल दिया गया तो उनके मित्र उस्मान शेख ने उन्हें अपने घर में आश्रय दिया। इतना ही नहीं, जोतीराव फुले ने 1848 में अपना पहला स्कूल उनके घर में ही खोला। उस्मान शेख और उनकी बहन फ़ातिमा शेख ने फुले परिवार को हर संभव मदद की और उनके व्यक्तिगत और सामाजिक संघर्ष में उनके साथ–साथ चले।
उन्होंने कहा कि फ़ातिमा शेख उनके स्कूल की पहली छात्रा बनी। सावित्रीबाई के साथ उन्होंने टीचर्स ट्रेनिंग कार्यक्रम की पढाई की। फिर उनके साथ ही वे उनके स्कूल में ही शिक्षिका बनीं। ऐसा करते समय उन्हें समाज के विशेषकर सवर्णों के कोप का शिकार बनना पड़ा। लेकिन वे दोनों विचलित नहीं हुई और दृढ संकल्प के साथ आगे बढ़ती गईं। अमिता ने यह भी बताया कि फ़ातिमा शेख ने सावित्रीबाई की अनुपस्थिति में स्कूल की प्रधानाचार्या की भूमिका भी अदा की और सफ़लतापूर्वक स्कूल के प्रबंधन का काम देखा। इसका उल्लेख सावित्रीबाई द्वारा 1856 में जोतीराव को लिखे एक पत्र में मिलता है जब वह अस्वस्थ होकर अपने मायके चली गयी थीं।
अमिता ने आगे बताया कि भारत समेत पूरी दुनिया में औरतें प्रतिरोध कर रही हैं। उन्होंने कहा कि भारत में आज़मगढ़ के खिरियाबाग़ में ज़मीन के अधिग्रहण के ख़िलाफ़ औरतें, ख़ासतौर पर दलित औरतें आन्दोलन रत हैं। बस्तर के सिलेगर में आदिवासी औरतें जुल्म और शोषण के ख़िलाफ़ संघर्ष कर रही हैं। इसके पहले सीएए, एनआरसी के ख़िलाफ़ शाहीनबाग़ की मुस्लिम औरतों ने औरतों को लड़ाई की राह दिखाई।
कार्यक्रम का समापन भगत सिंह छात्र मोर्चा के गीत ‘बेख़ौफ़ आज़ाद जीना है हमें…’ से हुआ। कार्यक्रम में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर राहुल मौर्य व प्रोफेसर विवेक पांडे, भाषा विज्ञान के असिस्टेंट प्रोफेसर योगेश उमले, आर्य महिला पीजी कॉलेज की वंदना चौबे, पूर्व प्रधानाध्यापक भैयालाल यादव, एंग्लो बंगाली इंटर कॉलेज के अध्यापक पियूष दत्त सिंह, मोहम्मद अहमद अंसारी, समेत बड़ी संख्या में छात्र–छात्राएं मौजूद थीं।
(संपादन : नवल/अनिल)
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