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सावित्रीबाई फुले और मौजूदा दौर में लड़कियों की शिक्षा

सावित्रीबाई फुले के प्रयासों के कारण महिलाओं को शिक्षा मिलने की शुरुआत हुई। लेकिन इतने सालों के बाद भी लड़कियां शिक्षा के मामले में पिछड़ी और वंचित हैं। इसके पीछे कई कारण हैं, जो आज भी कम-ज्यादा रूप में अनवरत जारी हैं। बता रही हैं उपासना बेहार

सावित्रीबाई फुले (3 जनवरी, 1831-10 मार्च, 1897)

सावित्रीबाई फुले अब अपरिचित नाम नहीं है। वह भारत की प्रथम महिला शिक्षिका, समाज सुधारक और साहित्यकार थीं। उन्होंने उन्नीसवीं सदी में अपने पति जोतीराव गोविंदराव फुले के साथ मिलकर शिक्षा के क्षेत्र के साथ साथ स्त्री अधिकारों, छुआछुत, सतीप्रथा, विधवा विवाह, बाल विवाह और अंधविश्वास के खिलाफ संघर्ष किया। यह सब उन्होंने आज से करीब डेढ़ सौ साल पहले किया था, जब कोई यह सोच भी नहीं सकता था कि लड़कियों को भी शिक्षा पाने का अधिकार है।

सावित्रीबाई का जन्म 3 जनवरी, 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले के नायगांव नामक गांव में हुआ था। केवल 9 साल की आयु में उनकी शादी करीब 13 साल के जोतीरावबा फुले के साथ हुई। जब विवाह हुआ था उस समय तक उन्हेंस्कूली शिक्षा नहीं मिली थी। उनके पिता का मानना था कि शिक्षा का अधिकार केवल उच्च जाति के पुरुषों को ही था। जबकि उनके पति की सोच थी कि दलित और महिलाओं की आत्मनिर्भरता, शोषण से मुक्ति और विकास के लिए शिक्षा सबसे जरुरी है। उन्होंने इसी सोच को जमीनी हकीकत में उतारने की शुरुआत सावित्रीबाई फुले को शिक्षित करने से की।

सावित्रीबाई ने जोतीराव के साथ मिल कर 1848 में पुणे में बालिका विद्यालय की स्थापना की, जिसमें दबीपिछड़ी जातियों के बच्चे, विशेषकर लड़कियों की संख्या ज्यादा थी। सावित्रीबाई का रोज घर से विद्यालय जाने का सफ़र बहुत मुश्किलों से भरा होता था। जब वह घर से निकलतीं तब लोग उनके ऊपर गोबर और पत्थर फेंकते थे। लेकिन इसके बावजूद उन्होंने हार न मानी और 1 जनवरी, 1848 से लेकर 15 मार्च, 1852 के दौरान फुले दंपत्ति ने लड़कियों के लिए 18 विद्यालय खोले। उस दौर में ऐसा सामाजिक क्रांतिकारी पहल पहले किसी ने नही की थी। सावित्रीबाई अपने विद्यार्थियों से कहा करती, “कड़ी मेहनत करो, अच्छे से पढ़ाई करो और अच्छा काम करो”  

सावित्रीबाई फुले ने स्त्री की दशा सुधारने के लिए 1852 में ‘महिला मंडल’, जोतीराव फुले के साथ मिलकर 1853 में ‘बालहत्या प्रतिबंधकगृह’, 1855 में मजदूरों के लिए ‘रात्रि पाठशाला’ खोला। वह विधवाओं के सिर मुंडन प्रथा के खिलाफ भी खड़ी हुईं और इसमें भी उनके पति ने आगे बढ़कर उनका साथ दिया। इसके अलावा उन्होंने अपने घर का कुआं भी अछूत समझी जानेवाली जातियों के लोगों के लिए खोल दिया। आगे चलकर 24 सितंबर, 1873 को फुले दंपत्ति ने सत्यशोधक समाज की स्थापना कर विधवा विवाह की परंपरा शुरू की। पुणे में अकाल के दौरान इन्होनें बच्चों और गरीब जरूरतमंद लोगों के लिये मुफ्त भोजन की व्यवस्था की। 1897 में पुणे में प्लेग की भयंकर महामारी के दौरान सावित्रीबाई ने अपने दत्तक पुत्र डॉ. यशवंत की मदद से एक हॉस्पिटल खोला। वे बीमार लोगों के पास जाती, सेवा और देख-भाल करती, हॉस्पिटल लातीं थीं। इस क्रम में वह भी महामारी की चपेट में आ गयीं और 10 मार्च, 1897 को सावित्रीबाई फुले का निधन हो गया। सावित्रीबाई ने अनेक लेखों और कविताओं के माध्यम से सामाजिक चेतना जगायी। इनकी प्रमुख रचनाएं हैं– ‘काव्य फुले’, ‘बावन्नकशी सुबोध रत्नाकर’, ‘मातुश्री के भाषण’ आदि।

सावित्रीबाई फुले (3 जनवरी, 1831-10 मार्च, 1897)

सावित्रीबाई फुले के प्रयासों के कारण महिलाओं को शिक्षा मिलने की शुरुआत हुई। लेकिन इतने सालों के बाद भी लड़कियां शिक्षा के मामले में पिछड़ी और वंचित हैं। इसके पीछे कई कारण हैं जो आज भी कम-ज्यादा रूप में अनवरत जारी हैं। हमारा समाज अब भी पितृसत्तात्मक सोच से ग्रसित है, जिसके कारण बालिका शिक्षा को लेकर आज भी परिवार और समाज की सोच है कि बालिका पराया धन है, इसे आगे चल कर ससुराल जाना है, घर परिवार की देखभाल/चूल्हा चौका ही करना है, इसलिए वे इतनी ही शिक्षा प्राप्त कर ले, जिससे उसे हिसाब-किताब, थोडा पढ़ना-लिखना आ जाए। परिवार का जोर उसे घर के कामों को सिखाने में ज्यादा होता है। आज भी बाल विवाह होना जारी है, जिसके कारण लड़कियों की शिक्षा प्रभावित होती है।

स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा न होना, स्कूलों का लगातार बंद होना, अधोसंरचना-पर्याप्त शिक्षक/स्टाफ की कमी, शौचालय का न होना, ताला लगा होना, पानी न होना और अगर है तो उसकी साफ़-सफाई न होना भी बच्चियों के स्कूल न जाने के कारण हैं। यूनेस्को द्वारा ‘स्टेट ऑफ द एजुकेशन रिपोर्ट 2021 : नो टीचर नो क्लास’ नामक रिपोर्ट के अनुसार भारत में लगभग 1.10 लाख ऐसे स्कूल हैं, जो केवल एक शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं। वहीं शिक्षकों के 11.16 लाख पद खाली पड़े हैं, इनमें से ज्यादातर 69 प्रतिशत ग्रामीण इलाकों के स्कूल हैं। 

स्कूल न जाने/छोड़ने का एक अहम् कारण सुरक्षा भी हैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की रिपोर्ट देखें तो लड़कियों के प्रति हिंसा लगातार बढ़ रही है। यह बड़ी विडंबना है कि ज्यादातर बड़ी कक्षा के स्कूल या तो गावं के बाहर या दूसरे गावं में होते हैं, जिसके कारण बच्चियों को पढ़ने के लिए दूर जाना पड़ता है और रास्ते में लड़के खड़े हो कर लड़कियों के साथ छेड़छाड़, गंदी बातें/हरकतें करते हैं। इसी कारण परिवार वाले बच्चियों को स्कूल में भेजना नहीं चाहते हैं और यह भी देखने में आता है कि अगर स्कूल जाते समय किसी बच्ची के साथ लैंगिक हिंसा होती है तो उसका असर आसपास के कई गांवों की बच्चियों की शिक्षा पर पड़ता है। 

श्रमिक परिवारों में मां और पिता रोजगार के लिए पलायन या कमाने जाते हैं तो बड़ी बच्ची स्कूल न जा कर अपने छोटे भाई-बहनों की देखभाल करती हैं और थोड़ी बड़ी होने पर खुद भी काम पर लग जाती है। आर्थिक रूप से कमजोर परिवार निशुल्क शिक्षा के चलते बच्चियों को कक्षा 8 तक पढ़ाते हैं, लेकिन कक्षा 9 से लगने वाली फ़ीस देने में असमर्थ रहते हैं, जिसके कारण वे बच्चियों को आगे नहीं पढ़ाते हैं। 

किशोरावस्था में बच्चियों के साथ कई बार स्कूलों में ऐसी स्थिति बन जाती है कि उन्हें किसी महिला की जरुरत होती है। कई सारी बातें ऐसी होती हैं, जिन्हें बच्चियां अपने घर में भी नहीं बताना चाहती हैं। ऐसे समय में महिला शिक्षक उन्हें सहयोग और उचित सलाह दे सकती हैं, लेकिन गांवों के स्कूलों में महिला शिक्षकों की संख्या कम या होती ही नहीं है। अगर बालिका को स्कूल में माहवारी हो जाए तो सेनेटरी पैड उपलब्ध नहीं होता है। सामाजिक संस्था दसराद्वारा 2019 में जारी रिपोर्ट के अनुसार 2.3 करोड़ लड़कियों के हर साल स्कूल छोड़ने का कारण माहवारी के दौरान स्वच्छता के लिए जरूरी सुविधाओं जैसे सैनिटरी पैड्स और जानकारी का उपलब्ध नहीं होना हैं। हाल ही में यूनिसेफ ने एक अध्ययन में बताया है कि भारत में 71 फीसदी किशोरियों को माहवारी के बारे में जानकारी नहीं है। उन्हें पहली बार माहवारी होने पर इसका पता चलता है। और ऐसा होते ही उन्हें स्कूल भेजना बंद कर दिया जाता है।

देखने में आता है कि कई आदिवासी परिवारों में उनके लड़के/लड़कियां फस्ट लर्नर हैं और इन्हें घर से किसी भी तरह का सहयोग नहीं मिल पाता है, जिससे ये धीरे-धीरे अन्य बच्चों से पिछड़ जाती हैं और पढ़ाई छोड़ देती हैं। मसलन, पारधी जनजाति के प्रति पूर्वाग्रह होने के कारण इनके साथ स्कूलों में भेदभाव होता हैकही भी कोई क्राइम होता है तो पुलिस इन्ही पर शक करती है, जिसके कारण पुरुष ज्यादा घर से बाहर नहीं निकलते हैं और महिलाओं और बच्चियों को काम करना पड़ता है। इसी तरह एक बेडिया जनजाति में बच्चियों को स्कूल के बदले उनके पारंपरिक काम (वेश्यावृत्ति) में लगा दिया जाता है। 

देश में बालिका शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाओं का लाभ सही समय पर नहीं मिल पाता है। अगर इन विभिन्न योजनाओं का लाभ समय पर मिले तो बालिकाओं के शिक्षा ग्रहण करने में बढ़ोतरी होगी। नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में बालिकाओं और महिलाओं की शिक्षा में भागीदारी बढ़ाने के लिए जेन्डर-समावेशी कोष बनाने की बात की हैं। इस कोष से राज्यों को महिला सम्बन्धी नीतियों, योजनाओं, कार्यक्रमों आदि को लागू करने में सहायता मिलेगी, जिससे बालिकाओं की शिक्षा को बढ़ावा, विद्यालय परिसर में अधिक सुरक्षापूर्ण और स्वस्थ वातावरण मिल सकेगा। सावित्रीबाई फुले का यह सपना था कि देश की हर बच्ची/महिला शिक्षित हो। लेकिन इसके लिए पहले परिवार और समाज में यह समझ बनानी होगी कि बालिका शिक्षा का महत्व क्या है और अगर बच्चियों को मौका दिया जाए तो वे जीवन में आगे बढ़ सकती हैं। 

(यह लेख पूर्व में वेब पत्रिका ‘गांव के लोग’ द्वारा प्रकाशित है। यहां हम लेखिका की सहमति से प्रकाशित कर रहे हैं।)

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

उपासना बेहार

भोपाल निवासी उपासना बेहार सामाजिक कार्यकर्ता हैं और स्वतंत्र रूप से बच्चों व महिलाओं के विषय में नियमित लेखन करती हैं

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