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हिंदी में आदिवासी, अंग्रेजी में फर्स्ट नेशंस और उर्दू में कबायली शब्द के इस्तेमाल पर बनी सहमति

उद्घाटन सत्र को संबोधित करते हुए महाराष्ट्र के वरिष्ठ भील लेखक वाहरू सोनवणे ने कहा कि हम आदिवासी लोग कल्पना का नहीं, सच का साहित्य लिखते हैं। जम्मू-कश्मीर के डोडा जिले में आयोजित राष्ट्रीय स्तरीय आदिवासी लेखकों के सम्मेलन के बारे में पढ़ें अर्चना उरांव व मंजीत मीणा की रपट

देश का पहला आदिवासी साहित्यिक सम्मेलन ‘ऑल इंडिया फर्स्ट नेशंस राइटर्स कांफ्रेंस’ गत 10-11 जून, 2023 को संपन्न हुआ। जम्मू-कश्मीर के डोडा जिले के भादरवा में आयोजित इस दो दिवसीय कांफ्रेंस में जम्मू-कश्मीर और केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख सहित 12 राज्यों के 60 से अधिक वरिष्ठ और युवा आदिवासी रचनाकारों ने भागीदारी की। दो दिनों तक चले इस कांफ्रेंस के दौरान आदिवासी भाषाओं और ज्ञान-परंपरा के संरक्षण पर जोर दिया गया। साथ ही, पहचान के लिए अंग्रेजी में ‘ट्राइबल’, ‘एबोरिजिनल’ और ‘इंडीजीनस’ की बजाय ‘फर्स्ट नेशंस’शब्द स्वीकार किया गया। इस बात पर सहमति बनी कि हिंदी में ‘आदिवासी’, अंग्रेजी में ‘फर्स्ट नेशंस’ और उर्दू में ‘कबायली’ शब्द का उपयोग किया जाएगा। साथ ही विभिन्न आदिवासी भाषाओं और लिपियों में साहित्यिक विकास के लिए एक बहुभाषाई जर्नल ‘फर्स्ट नेशंस वॉयस’ के प्रकाशन का निर्णय और आदिवासी साहित्यकारों का अखिल भारतीय संगठन गठित किया गया। 

कांफ्रेंस का आयोजन झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा ने गुज्जर-बकरवालों की साहित्यिक संस्था अंजुमन-ए-तरक्की गोजरी अदब, डोडा के सहयोग से जम्मू विश्वविद्यालयके भादरवा कैम्पस स्थित लालडेड सभागार में किया था।

बीते 10 जून को उद्घाटन सत्र को संबोधित करते हुए महाराष्ट्र के वरिष्ठ भील लेखक वाहरू सोनवणे ने कहा कि यह कांफ्रेंस भारत के 20 करोड़ आदिवासियों की आकांक्षाओं को अभिव्यक्ति देने के लिए एकजुट और संकल्पबद्ध हुई है। हम आदिवासी लोग कल्पना का नहीं, सच का साहित्य लिखते हैं। अपने संघर्ष के साथ-साथ देश के सभी उत्पीड़ित मेहनतकशों की मुक्ति का गीत गाते हैं। आदिवासी साहित्य हर तरह के भेदभाव और गुलामी का नकार कर नैसर्गिक जीवन की स्थापना के लिए संघर्ष कर रहा है।

डोडा के वरिष्ठ गोजरी साहित्यकार खाकन सज्जाद ने अपने उद्घाटन वक्तव्य में कहा कि भादरवा में ऑल इंडिया फर्स्ट नेशंस राइटर्स कांफ्रेंस का होना जम्मू-कश्मीर के कबायली समुदायों के लिए फख्र की बात है। यह पहली बार है कि जब देश भर के अलग-अलग इलाकों से आदिवासी लोग यहां आए हैं। आजादी के सात दशक बाद जब हम उनसे मिल रहे हैं तो उन्हें मालूम हो रहा है कि जम्मू-कश्मीर में आदिवासी लोग भी रहते हैं। सांप्रदायिक सियासती खेल में यहां के जो कबायली लोग अब तक अलग-थलग पड़े हुए थे और खुद को अकेला महसूस कर रहे थे, उन्हें इस ऑल इंडिया कबायली राइटर्स कांफ्रेंस से बड़ी हिम्मत मिलेगी। इससे न केवल जम्मू-कश्मीर रियासत बल्कि समूचे देश की आदिवासी बुद्धिजीवियों की एकजुटता मजबूत होगी।

कांफ्रेंस के दौरान पुस्तक का विमोचन करते मंचासीन लेखक व अतिथिगण

ऑल इंडिया फर्स्ट नेशंस राइटर्स कांफ्रेंस के उद्घाटन सत्र में बीज वक्तव्य कर्नाटक विश्वविद्यालय, हम्पी के पूर्व कुलपति प्रो. के. एम. मेत्री ने दिया। गोंड आदिवासी समुदाय के प्रख्यात विद्वान डॉ. मेत्री ने अपने बीज वक्तव्य में कांफ्रेंस के आयोजन को ऐतिहासिक बताया। उन्होंने कहा कि इससे पहले आदिवासियों के स्वतंत्र नेतृत्व में कोई भी साहित्यिक आयोजन अखिल भारतीय स्तर पर नहीं हो सका। इस कारण आदिवासी भाषा और साहित्य से संबंधित जो चुनौतियां हैं, उनका समाधान नहीं खोजा जा सका। आज सबसे ज्यादा जरूरत ‘कोर आदिवासी लेंग्वेजेज और विजडम’ को बचाने की है, क्योंकि आदिवासी ज्ञान-परंपरा और आदिवासियत उसी में बची है। आधुनिक शिक्षा पाने और शहरों में रहने वाले आदिवासी समुदाय अपने पुरखा-ज्ञान-परंपरा को काफी हद तक खो चुके हैं। इसलिए हमें क्षेत्रवार शिक्षित और अशिक्षित आदिवासी कहानीकारों और लेखकों को संगठित कर आदिवासियत के मूल के दस्तावेजीकरण करने की पहल तुरंत करनी होगी।

बतौर नौजवान प्रतिनिधि उद्घाटन सत्र को जम्मू-कश्मीर के गुज्जर-बकरवाल आदिवासी समुदाय के कवि तारिक अबरार ने भी संबोधित किया। अबरार ने कहा कि नौजवान कबायली lलेखक अपनी जिम्मेदारी महसूस करते हैं। वे अपने हिसाब से अपनी मातृभाषाओं में लिख रहे हैं और इसके साथ ही दुनिया तक अपनी भावनाएं पहुंचाने के लिए अनुवाद का काम भी कर रहे हैं।  

डोडा जिला के विकास आयुक्त वी.पी. महाजन ने कांफ्रेंस में आए सभी प्रतिनिधियों का स्वागत किया। उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर में इसका आयोजन एक ऐतिहासिक घटना है। इससे न केवल कबायली लोग एक-दूसरे की जुबान और साहित्य का आदान-प्रदान कर पाएंगे, बल्कि वे इस खूबसूरत धरती के खूबसूरत लोगों की सस्कृति और रस्मो-रिवाज से भी परिचित होंगे।

उद्घाटन सत्र की शुरुआत में अंजुमन-ए-तरक्की गोजरी अदब डोडा के संयोजक और गोजरी के वरिष्ठ साहित्यकार जान मोहम्मद हकीम ने सबका स्वागत किया। अपने संबोधन में उन्हेंने कहा कि यह कांफ्रेंस एक ऐसा कार्यभार था, जिसे बहुत पहले ही हो जाना चाहिए था। अखिल भारतीय स्तर पर हम कबायली राइटर्स का कोई एक्टिव फोरम का नहीं होना, हमारी अदबी तरक्की के लिए एक बड़ी बाधा है। हमें फख्र है कि इस तारीखी जिम्मा को पूरा करने में जम्मू-कश्मीर के जुदा-जुदा कबीलों के बुद्धिजीवी और लेखक आगे आए हैं।

झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा की महासचिव और प्रख्यात आदिवासी लेखिका वंदना टेटे ने कहा कि यहां हम जितने लोग इकट्ठे हुए हैं, वे सब अलग-अलग कबीलों से हैं। भूगोल के अलग-अलग हिस्सों में रहते हैं। जुदा-जुदा भाषाएं बोलते हैं। रीति-रिवाज, खान-पान, रहन-सहन, रंग-रूप, और धार्मिक विश्वास भी एक जैसे नहीं हैं। फिर भी हम सबकी सोच एक जैसी है। दुनिया को समझने, देखने और अभिव्यक्त करने का तरीका एक है। समानता और सहभागिता पर टिकी हुई हमारी सामाजिक और सांस्कृतिक संरचनाएं एक जैसी हैं। हमारी वाचिक परंपराएं और विश्वदृष्टि एक समान हैं।

उन्होंने आगे कहा कि यह अफसोसजनक है कि भारत में 700 से ज्यादा आदिवासी समुदाय हैं जो देश की लगभग दस प्रतिशत आबादी का निर्माण करते हैं। पर इन सैंकड़ों कबायली समुदायों और करोड़ों आदिवासी आबादी की नुमाइंदगी करने या साहित्यिक तौर पर उनको अभिव्यक्त करने वाले लेखकों का कोई फोरम या फेडरेशन नहीं है। हालांकि समूचे देश में उत्तर-पूर्व से लेकर दक्षिण तक प्रायः सभी राज्यों में, और सभी समुदायों ने आजादी के पहले से ही लेखक संगठन बनाना आरंभ कर दिया था। उनमें से कई आज भी अपने राज्य और समुदाय के दायरे में मजबूत आवाज बने हुए हैं। फिर भी राष्ट्रीय स्तर पर हमारा कोई भी साहित्यिक संगठन नहीं है। यहां तक कि कोई राजनीतिक संगठन भी नहीं है। 

इसके पहले कांफ्रेंस के दौरान दो दिनों तक विभिन्न सत्रों में आदिवासी भाषा, साहित्य, संस्कृति और समसामयिक राजनीतिक मुद्दों पर विस्तार से चर्चा हुई। पहले दिन के पहले सत्र में ‘आदिवासी साहित्य का भारतीय परिप्रेक्ष्य’ पर उत्तर-पूर्व, पूर्व, पश्चिम, मध्य और दक्षिण भारत के प्रतिनिधियों ने जबकि इसी सत्र के दूसरे भाग में जम्मू-कश्मीर के आदिवासी साहित्यकारों ने ‘जम्मू-कश्मीर के आदिवासी समुदाय और उनका साहित्य’ विषय से अवगत कराया। दूसरे सत्र में ऑल इंडिया फर्स्ट नेशंस राइटर्स फोरम के गठन और अगले दिन के पहले सत्र में मल्टीलिंगुअल आदिवासी क्वार्टरली जर्नल ‘फर्स्ट नेशंस वॉयस’ के प्रकाशन पर सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया। 

इसके बाद के सत्र में तदर्थ कार्यकारिणी समिति गठित की गई और फरवरी 2024 में जयपुर में अगला कांफ्रेंस आयोजित करने का प्रस्ताव पारित हुआ। दूसरे दिन का आखिरी सत्र कहानियों की परंपरा का था, जिसमें देश भर से आए हुए आदिवासी लेखकों ने अपनी-अपनी मातृभाषाओं सहित हिंदी में कविता, गीत और कहानियां सुनाई।

कांफ्रेंस का उद्घाटन पुरखा स्मरण और महाराष्ट्र के पावरा आदिवासी समुदाय के युवा गीतकार संतोष पावरा के बांसुरी वादन से हुआ। मौके पर तीन नई किताबों– कांफ्रेंस से संबंधित और वंदना टेटे द्वारा संपादित बहुभाषाई पुस्तक ‘फर्स्ट नेशंस वॉयस’ के अलावा उनके द्वारा लिखित पुस्तक ‘संविधान सभा में जयपाल’ काजान मोहम्मद हकीम द्वारा उर्दू अनुवाद ‘आइन साज असेंबली मा जयपाल’ और डॉ. हीरा मीणा की ‘मीणा ब्याह गीत गाळ संसार’ का लोकार्पण किया गया। विभिन्न सत्रों का संचालन अर्चना उरांव, वेल्सिंग हेन्से, अब्दुल क्यूम ‘बेताब’ आदि युवा और वरिष्ठ आदिवासी रचनाकारों ने किया। कांफ्रेंस में कुल 18 आदिवासी समुदाय के 60 प्रतिनिधि शामिल हुए, जिनमें महिलाओं की संख्या एक तिहाई थी। समानता की परंपरानुसार महिलाओं ने सत्रों की अध्श्क्षता और संचालन भी किये।

(संपादन : नवल/अनिल)

लेखक के बारे में

अर्चना उरांव/मंजीत मीणा

झारखंड की निवासी अर्चना उरांव कुरूख भाषा की रचनाकार व शोधार्थी हैं। मंजीत मीणा सवाई माधोपुर, राजस्थान के निवासी हैं और पीएचडी शोधार्थी हैं।

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