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अब युद्धबंदी नहीं हैं दलित-बहुजन (पहला भाग)

बीते चार-पांच दशकों में जो चालें मुलायम सिंह यादव, मायावती, लालू यादव, चौधरी चरण सिंह को खास जाति का नेता सिद्ध करने के लिए चली गईं, वही चालें कभी त्रिवेणी संघ सहित दूसरे आंदोलनों और नेताओं को बदनाम करने के लिए भी चली गई थीं। पढ़ें, ओमप्रकाश कश्यप के आलेख शृंखला का पहला भाग

बीते 9 वर्षों के दौरान भाजपा की एकमात्र उपलब्धि विपक्ष का मनोबल तोड़ने तथा देश का सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण करने की रही है। ऐसा नहीं है कि विपक्ष के पास नेताओं का अभाव हो; या फिर उनके अनुभव, चेतना और प्रतिबद्धता की कमी रही हो। सब जानते हैं कि भाजपा आरंभ से ही विभाजित विपक्ष का लाभ उठाती आ रही है। बीते ढाई-तीन वर्षों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में तेजी से गिरावट आई है। आज यदि वे कहीं लोकप्रिय हैं तो मीडिया की गढ़ी आभासी दुनिया में। ऐसे दौर में जब पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्थाएं दरकाव से जैसे-तैसे बच निकलने में लगी हैं, भारतीय मीडिया और सत्ता-प्रतिष्ठानों की दुरभिसंधि हालात को और खराब करने में लगी हैं। सरकारी और पूंजीवादी प्रचारतंत्र के अलावा भाजपा यदि उत्साहित है तो अपने 25-26 प्रतिशत स्थायी मान लिए गए मतदाताओं तथा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा देने शतरंजी चालों की वजह से, जिन्हें वह चुनावों से पहले अनायास तेज कर देती है। 

विपक्ष दिशाहीन हो सकता है, अशक्त नहीं

ये शतरंजी चालें धरी की धरी रह जाएं यदि विपक्षी दल अपनी ताकत को पहचानकर, सही मायने में राजनीति करने लगें। लोगों का विश्वास जीतें। वातानुकूलित कक्षों में मीडिया के सामने वक्तव्य देने के बजाय, जनता की समस्याओं को लेकर सड़कों पर उतर आएं। विडंबना है कि देश का नेतृत्व इन दिनों ऐसे लोगों के हाथों में है, जिन्हें राजनीतिक सत्ता विरासत में मिली है। पूर्वजों के संघर्ष को वे या तो पूरी तरह बिसरा चुके हैं, अथवा उनके विरुद्ध योजनाबद्ध तरीके से चलाए गए अभियान का शिकार हैं। कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल, बसपा जैसे कई दल हैं, जिनके बारे में हमें बताया जाता है कि वे जातिवादी संगठन हैं। केवल अपनी जाति के वोटों पर टिके रहते हैं। जब सत्ता में आते हैं, तो उन्हीं खास जाति/यों को बढ़ाने में लग जाते हैं। हमें यह नहीं बताया जाता कि अपने जाति समूहों, जिनमें निस्संदेह उनकी अपनी जाति भी है, को राजनीति के केंद्र में लाने के लिए लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, चौधरी चरण सिंह, कांशीराम, रामविलास पासवान आदि ने कितना जमीनी संघर्ष किया था। एक समय था जब पिछड़े, अतिपिछड़े और दलित मतदाताओं में से अनेक को मतदान केंद्रों पर जाने से रोक दिया जाता था। उनके मतों को ताकतवर जातियां आपस में बांट लिया करती थीं। ब्राह्मणवाद द्वारा तैयार की गई धर्म और संस्कृति की कुटिल-कठोर काराओं को तोड़कर आज यदि वे निर्भीक होकर मतदान केंद्र तक जाते हैं तो यह निस्संदेह उन नेताओं के लंबे संघर्ष का ही परिणाम है जिन्हें आज हम ‘यादवों’, ‘जाटवों’, ‘कुर्मियों अथवा ‘पटेलों’ का नेता मान लेते हैं। अपनी भड़ास निकालने के लिए अकसर उन्हें जातिवादी भी घोषित कर देते हैं।

राजनीति में जाति चल सकती है, जातिवाद नहीं 

किसी भी मतदाता क्षेत्र में एक भी जाति ऐसी नहीं है जो सिर्फ अपने मतों के बल पर अपने प्रतिनिधियों को संसद या विधायिका तक भेज सके। मुलायम सिंह यादव और लालू यादव ने कभी नहीं कहा था कि वे सिर्फ यादवों के लिए काम करने के लिए राजनीति में उतरे हैं। न चौधरी चरण सिंह केवल जाटों की राजनीति करते थे। इन नेताओं की कामयाबी की डगर त्रिवेणी संघ और अर्जक संघ जैसे आंदोलनों ने तैयार की थी। पेरियार ई.वी. रामासामी, डॉ आंबेडकर, बाबू जगदेव प्रसाद, रामस्वरूप वर्मा, बाबू रामचरण निषाद, स्वामी अछूतानंद, महाराज सिंह भारती जैसे नेताओं ने उनकी राजनीति को धार दी थी। इनके अलावा समय-समय पर चले किसान आंदोलन भी थे। 

(उपर बाएं से) पेरियार, डॉ. आंबेडकर, जगदेव प्रसाद, अछूतानंद, महाराज सिंह भारती; (नीचे बाएं से) चौधरी चरण सिंह, कांशीराम, लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, रामविलास पासवान

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में, जहां कृषि भूमि पर मंझोली जातियों की भी खासी हिस्सेदारी है– वहां लोकप्रियता का खतरा उठाकर जमींदारी उन्मूलन की मांग करने वाले प्रमुख नेता चौधरी चरण सिंह ही थे। उनकी पुस्तक ‘एबोल्यूशन ऑफ जमींदारी : टू अल्टरनेटिव्स’ जमीनी अनुभव और तीक्ष्ण मेधा के तालमेल से लिखी गई, अपने विषय की बेमिसाल पुस्तक है। बाबू जगदेव सिंह का नारा ‘सौ में नब्बे शोषित हैं, नब्बे भाग हमारा है’, लोहिया का ‘पिछड़े पावें सौ में साठ’ जैसे नारे समाज में बढ़ती समाजवादी चेतना के बीच से उभरे थे। 

मुश्किल यह हुई कि नब्बे के दशक में सोवियत संघ के बिखराव की घटना को, दुनिया-भर के पूंजीवादी मीडिया ने समाजवाद के अप्रासंगिक होने के रूप में प्रचारित किया। इससे जो संगठन प्रत्यक्ष या परोक्ष समाजवादी चेतना के चलते सत्ता के गलियारों में पहुंचे थे, उनका मनोबल टूटा। तब तक वे सत्ता का स्वाद चख चुके थे। इसलिए विचारधारा को बचाने या उसके समर्थन में तर्क देने के बजाए, वे जातिवादी राजनीति में ही अपना त्राण खोजने लगे। जाति-आधारित समीकरण बिठाए जाने लगे थे। 

पुनरुत्थानवादी षड्यंत्रों का पुराना इतिहास

देश में पुनरुत्थानवादी ताकतें अपना असर दिखाती रही हैं। विद्वेष छिपाकर मुस्कराने का हुनर उन्हें आता है। जिन्होंने ‘आनंदमठ’ को पढ़ा है, वे जानते हैं कि उपन्यासकार को ‘संतानों (संन्यासियों) की पराजय का उतना रंज नहीं था, जितनी खुशी मुसलमानों की हार और अंग्रेजों की जीत की थी– ‘अंग्रेज हमारे मित्र हैं, फिर अंग्रेजों से युद्ध में जीत जाएं, अभी ऐसी शक्ति किसी में नहीं है।’ आनंदमठ के एक पात्र ‘महाप्रज्ञ’ का यह कथन अंग्रेज शासकों की प्रशस्ति जैसा है। इसके साथ ही उपन्यास का अंत हो जाता है। यह पराजय ग्रंथि थी, जो मुसलमान शासकों की हार में अपनी जीत देख रही थी। उन्हें पता ही नहीं था कि अंग्रेज इस देश में नई राजनीति की नींव रखने वाले हैं, जिसमें केवल आर्थिक हित महत्वपूर्ण होंगे। जाति और धर्म अप्रासंगिक होने लगेंगे। 

प्रसंगवश बता दें कि ईस्ट इंडिया कंपनी के नीतिकार मंडल में जेम्स मिल, जॉन स्टुअर्ट मिल जैसे अपने समय के महानतम और विश्वख्यात उपयोगितावादी दार्शनिक शामिल थे। जेम्स मिल बैंथम का शिष्य था, जिसने धर्म और धर्म-पोषित नैतिकता की अपेक्षा कानून के राज को श्रेष्ठ माना था। ईस्ट इंडिया कंपनी में काम करते हुए, उपर्युक्त दोनों के अलावा समान वैचारिकी वाले लार्ड मैकाले ने भी भारत को आधुनिक राज्य बनाने में मदद की थी। हालांकि ब्राह्मणों के अंग्रेजों से मोह-भंग की शुरुआत 1813 में उस समय हो चुकी थी, जब कंपनी सरकार ने मनुस्मृति की व्यवस्था को किनारे करते हुए, सार्वजनिक शिक्षा के नाम पर 1 लाख रुपए की बजट-राशि का प्रावधान किया था। मैकाले की शिक्षा नीति और नई विधिसंहिता लागू होने के बाद तो अंग्रेज सरकार उनकी आंख की किरकरी बन चुकी थी। हालांकि कंपनीराज में भारतीयों के लिए निर्धारित नौकरियों में से अधिकांश पर वही विराजमान थे। ईस्ट इंडिया कंपनी सहित दूसरी व्यापारिक कंपनियों के साथ व्यापार में दिन-रात पूंजी बटोरने वाले भी उन्हीं के लोग थे। 

समान नागरिक संहिता की दिशा में कदम बढ़ाना सरकार की मजबूरी थी। यूरोप में वैचारिक क्रांतियों का दौर पूरा हो चुका था। आने वाला समय उन वैचारिकियों के अनुरूप शासन और समाज को गढ़ने का था। अंग्रेजों के अलावा डच, फ्रांसीसी जैसे कई देशों की कंपनियां भारत को अपना आर्थिक उपनिवेश बनाना चाहती थीं। सफलता अंग्रेजों को मिली जो धर्म और राजनीति में बेहतर तालमेल करना जानते थे। उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ में, देश पर काबिज होने के साथ ही, कंपनी ने जॉन स्टुअर्ट मिल की व्यक्ति-स्वातंत्र्यवादी नीति के अनुरूप शासन-प्रशासन को बदलना शुरू कर दिया। माध्यम बने मैकाले। उनके नेतृत्व में शिक्षा, कानून, न्याय के क्षेत्र में अनेक बदलाव हुए, जिनकी उम्मीद ‘आनंदमठ’ में अंग्रेजों की फतह पर संतोष जताने वाले ‘महाप्रज्ञों’ को कतई न थी। इन बदलावों के कारण अंग्रेजों के विरुद्ध प्रतिक्रियावादी ताकतों का उमड़ा आक्रोश 1857 के सैनिक विद्रोह में नजर आया। ‘आनंदमठ’ के अनुसार नौ दशक पहले जो वर्ग मुसलमानों की पराजय पर खुशी मनाकर, अंग्रेजों को अपना मित्र बता रहे थे, बदली परिस्थितियों में वे मुसलमानों की मदद से अंग्रेजों को खदेड़ देना चाहते थे। इसलिए गाय और सुअर की चर्बी के नाम पर हिंदू-मुस्लिम सैनिकों की सांप्रदायिकता को उभारने की कोशिश की गई!

सन् 1857 के सैन्य विद्रोह को स्वाधीनता संग्राम का दर्जा देने वालों को, अंग्रेजों द्वारा उसके पहले के तीस-चालीस वर्षों में, सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन की दिशा में उठाए जा रहे कदमों पर अवश्य ही विचार करना चाहिए। उन्हें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि भारत को जानने की कोशिश में यूरोपीय लेखकों ने उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दशकों में प्राचीन संस्कृत, पालि, प्राकृत साहित्य को यूरोपीय भाषाओं में लाने का जो अतुलनीय प्रयत्न किया था, क्या उसके बिना देश में बहुजन बुद्धिजीवियों, जिन्हें संस्कृत से दूर रखा गया था– का उभार संभव था?

1857 में अंग्रेजों के साथ-साथ हिंदू पुनरुत्थानवाद भी जीता था। ब्रिटेन की महारानी ने हिंदुओं के अंदरूनी मामलों में दखल न करने का भरोसा दिया। उस समय पिछड़ों-अतिपिछड़ों के बीच पढ़ा-लिखा, अपने अधिकारों के प्रति प्रतिबद्ध वर्ग पैदा हो चुका था, जो अपने बल पर अपने संघर्ष को आगे बढ़ाने का सामर्थ्य रखता था। उनके संगठित आंदोलनों के कारण ही अल्पसंख्यक पुनरुत्थानवादी ताकतें बहुत ज्यादा असर न दिखा सकीं। लेकिन जब इंदिरा गांधी ने समाजवाद अर्थव्यवस्था का पक्ष लेते हुए, प्रीवी पर्स की समाप्ति, बैंकों का राष्ट्रीयकरण, बड़े उद्योगों पर सरकारी नियंत्रण की दिशा में बढ़ते हुए, भूमिसुधार के इरादे को जगजाहिर किया तो जो नेता लोहिया के सुर में सुर मिलाकर समाजवाद के नारे लगाया करते थे, वही समाजवादी अर्थव्यवस्था की ओर चरणबद्ध तरीके से आगे बढ़तीं इंदिरा गांधी को निरंकुश बताकर, उनके विरुद्ध सड़कों पर उतरने लगे। संपूर्ण क्रांति की आड़ में हिंदू पुनरुत्थान को हवा दी गई। 

यानी बीते चार-पांच दशकों में जो चालें मुलायम सिंह यादव, मायावती, लालू यादव, चौधरी चरण सिंह को खास जाति का नेता सिद्ध करने के लिए चली गईं, वही चालें कभी त्रिवेणी संघ सहित दूसरे आंदोलनों और नेताओं को बदनाम करने के लिए भी चली गई थीं। फर्क इतना है कि मुलायम सिंह यादव, लालू यादव, चौधरी चरण सिंह आदि को बदनाम करने के लिए जो पुनरुत्थानवादी ताकतें आज भाजपा अथवा उसके अनुषंगी संगठनों के साथ हैं, पहले वे कभी कांग्रेस तो कभी किसी और दल के साथ हुआ करती थीं। 

कांग्रेस के अनुसार त्रिवेणी संघ जमींदारों का संगठन था, जबकि किसान सभा की दृष्टि में वह जातिवादी गठजोड़ था। इसलिए सब मिलकर त्रिवेणी संघ के नेताओं तथा उसे उम्मीद की तरह देख रही जनता को हतोत्साहित करने में जुटे थे। कांग्रेस खुद को भारत के सर्वजन की पार्टी बताती थी। जबकि हकीकत इसके उलट थी। यदुनंदन प्रसाद मेहता लिखते हैं– “पहले ऐलान किया गया कि योग्य व्यक्तियों को ही लिया जाएगा। जब इन बेचारों ने योग्य व्यक्तियों को ढूंढना शुरू किया तो कहा गया कि खद्दरधारी होना चाहिए। जब खद्दरधारी सामने लाए गए तो कहा कि जेल यात्रा कर चुका हो। जब ऐसे भी आने लगे तो कहा गया कि वहां क्या साग-भंटा बोना है … किसी को कहा जाता कि वहां क्या भैंस दुहनी हैं? तो किसी को व्यंग्य मारा जाता कि वहां क्या भेड़ें चरानी हैं? … .किसी को यह कहकर फटकार दिया जाता कि वहां क्या नमक-तेल तौलना है!” (त्रिवेणी संघ का बिगुल)

त्रिवेणी संघ को राजनीतिक सफलता नहीं मिल सकी। इसलिए कि त्रिवेणी संघ के नेता राजनीतिक चालों के मामले में कांग्रेसी नेताओं जितने चालाक नहीं थे।

न भाजपा अजेय है, न राजनीति विकल्पहीन

अनीश अंकुर ने अपने लेख ‘राजद के ‘सामाजिक न्याय’ का विचारधारात्मक स्टैंड है– भूमिहारवाद’ में लालू यादव के बारे में ‘त्रिवेणी संघ’ के एक वयोवृद्ध नेता की टिप्पणी उद्धृत की है। सहज देसज भाषा में की गई वह टिप्पणी बीती शताब्दी में सामाजिक न्याय की राजनीति की निरंतरता को स्थापित करती है। उनका कहना था–  “हमने जिस जीप को स्टार्ट किया था, लालू यादव उसका चौथा ड्राइवर है।” (सबलोग, 5 अप्रैल, 2019) यह बात जितनी तेजस्वी यादव पर लागू होती है, उतनी ही अखिलेश पर भी लागू होती है। इसके अनुसार ये दोनों त्रिवेणी संघ द्वारा शुरू किए गए सामाजिक न्यायवादी आंदोलन की पांचवीं पीढ़ी के नेता हैं। जरूरत इतनी है कि वे खुद को उस परंपरा से जोड़ें। लोगों को समझाएं कि हिंदू पुनरुत्थान का मतलब घोर जातिवाद की वापसी तथा संसाधनों एवं अधिकारों मुट्ठी भर लोगों में सिमट जाने जैसा है। जिस दिन विपक्ष एकजुट होकर इस बिखरे जनमत को संगठित करने में जुट जाएगा, भाजपा के पैरों के नीचे की जमीन खिसकने लगेगी। सांप्रदायिक राजनीति की हवा निकल जाएगी और मीडिया जो दक्षिणपंथ के साथ सुर से सुर मिला रहा है, अपना पाला बदलना शुरू कर देगा।

(क्रमश: जारी)

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

ओमप्रकाश कश्यप

साहित्यकार एवं विचारक ओमप्रकाश कश्यप की विविध विधाओं की तैतीस पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। बाल साहित्य के भी सशक्त रचनाकार ओमप्रकाश कश्यप को 2002 में हिन्दी अकादमी दिल्ली के द्वारा और 2015 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के द्वारा समानित किया जा चुका है। विभिन्न पत्रपत्रिकाओं में नियमित लेखन

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