h n

उत्तर प्रदेश में प्रस्तावित महागठबंधन की राह पथरीली, लेकिन जीत की संभावनाएं भी

भाजपा और बसपा के वोट प्रतिशत को स्थिर इसलिए कहा जाना चाहिए क्योंकि दोनों पार्टियों का अपना कैडर वोट है। हालांकि बसपा 2017 के मुकाबले 2022 में अपना 9.35 प्रतिशत वोटबैंक गंवा चुकी थी; परंतु वह इससे और नीचे जा सकती है, इसकी संभावना अभी कम है। बता रहे हैं ओमप्रकाश कश्यप

आगामी 23 जून, 2023 को बिहार की राजधानी पटना में गैर-भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की अहम जुटान होगी। इसे अगले वर्ष 2024 में होनेवाले आम चुनाव के मद्देनजर महत्वपूर्ण माना जा रहा है। चूंकि यह आयोजन हिंदी प्रदेश के एक बड़े राज्य बिहार में हो रहा है तो सबकी निगाहें इस बात पर टिकी हैं कि हिंदी प्रदेशों में क्या प्रस्तावित महागठबंधन भाजपा को केंद्रीय सत्ता से बेदखल कर सकेगा।

इस संभावना पर विचार करने से पहले वर्तमान हालात पर नजर डालें। कर्नाटक में बीते महीने मिले समर्थन से कांग्रेस के नेता उत्साहित हैं। खासकर राहुल गांधी। मल्लिकार्जुन खड़गे के कांग्रेस का अध्यक्ष चुने जाने के बाद यह पार्टी की बड़ी जीत है। कांग्रेस के लिए अच्छी बात यह रही कि प्रदेश में उसे 1989 के बाद सबसे ज्यादा वोट हासिल हुए हैं। फिर भी इस हकीकत को नजरंदाज कर पाना कठिन है कि है कि राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ और मल्लिकार्जुन खड़गे का कांग्रेस अध्यक्ष बनने का असर भाजपा को प्राप्त मत-प्रतिशत पर बहुत अधिक नहीं पड़ा है। जहां 2018 के विधानसभा चुनावों में भाजपा को 36.20 प्रतिशत मत प्राप्त हुए थे, तो इस बार उसे 36 प्रतिशत मत मिले हैं। यह स्थिति लगभग उन सभी प्रदेशों में है, जहां वह अकेले अथवा अपने सहयोगी दलों के साथ सत्ता में है। इन प्रदेशों में देश की लगभग 47 प्रतिशत आबादी रहती है। 

उत्तर प्रदेश : हालात और चुनौतियां

जब हम हिंदी प्रदेशों की बात करते हैं तो उत्तर प्रदेश का जिक्र सबसे पहले आता है। बीते दो लोकसभा और विधानसभा चुनावों में भाजपा ने प्रदेश में बड़ी जीतें हासिल की हैं। इसलिए नहीं कि उसने समाज के बहुसंख्यक वर्गों का दिल जीत लिया है और लोग सिवाय भाजपा के किसी और दल के बारे में सोचना ही नहीं चाहते। वस्तुत: यह इसलिए कि वह विरोधी जनमत को छोटे-छोटे कई हिस्सों में बांटकर निप्रभावी करने में कामयाब रही है। ठीक ऐसे ही जैसे वर्ण-व्यवस्था में ऊपर के तीन वर्ण, अल्पसंख्यक होने के बावजूद, हितों की एकता के कारण, बंटे हुए बहुसंख्यक निचले वर्ण (शूद्र/दलित) पर शासन करते रहते हैं। 

यह छिपी बात नहीं कि लक्ष्य को हासिल करने के लिए भाजपा जिस तरह मुद्दे बनाती-बिगाड़ती है, बाकी दलों में कोई उसका मुकाबला नहीं कर सकता। बीते कुछ वर्षों में हिंदी प्रदेशों में भाजपा का वोट बैंक लगभग स्थिर रहा है। यदि कुछ घटत-बढ़त हुई है तो भाजपा विरोधी दलों के वोटों में। हालात को समझने के लिए आगे हम बीते दो विधानसभा चुनावों में भाजपा और तीन प्रमुख विपक्षी दलों को प्राप्त मतों पर विचार करेंगे–

उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव परिणाम 2022 और 2017 : तुलनात्मक स्थिति

पार्टी का नामवर्ष 2022 में प्राप्त मत प्रतिशत व सीटेंवर्ष 2017 में प्राप्त मत प्रतिशत व सीटें
भाजपा 41.29 प्रतिशत, 255 सीटें39.67 प्रतिशत, 312 सीटें
सपा32.60 प्रतिशत, 111 सीटें21.82 प्रतिशत, 47 सीटें
बसपा12.88 प्रतिशत, 1 सीट22.23 प्रतिशत, 19 सीटें
कांग्रेस2.33 प्रतिशत, 2 सीटें6.25 प्रतिशत, 7 सीटें

इस सारणी से कई चौंकाने वाले परिणाम सामने आते हैं। भाजपा के बारे में बात करें तो 2017 की अपेक्षा, 2022 में उसे 2.38 प्रतिशत वोट ज्यादा मिले थे। बावजूद इसके उसे बीते वर्ष की तुलना में 67 सीटें कम मिली थीं। दूसरी ओर तीनों प्रमुख विपक्षी पार्टियों को 2017 की तुलना में 2022 में 3.03 प्रतिशत वोट कम मिले थे। मगर उनकी उनकी कुल सीटों में इजाफा हुआ। वे 73 से बढ़कर 114 हो गईं। कारण था विपक्ष के मतों का संकेंद्रण। 2022 के चुनावों में सपा को 10.24 प्रतिशत मतों का लाभ हुआ था, जिससे उसकी सीटें 47 से उछलकर 111 तक पहुंच गई थीं। यह ऐसा उतार-चढ़ाव है जो गठबंधन की राजनीति में अकसर दोहराया जाता है। आगे हम यह भी देखेंगे कि गठबंधन चुनावी दृष्टि से हर पार्टी के लिए सदैव और समान रूप से लाभकारी सिद्ध हो, यह जरूरी नहीं है।

अखिलेश यादव, मायावती व प्रियंका गांधी

गठबंधन से किसका हित और क्यों

अक्सर यह देखा गया है कि चुनावी गठबंधन छोटे दलों की अपेक्षा बड़े दलों के लिए अधिक लाभकारी सिद्ध होते हैं। इसे मामूली गणित के सहारे समझा जा सकता है। बीते वर्षों में राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो’ यात्रा से कांग्रेस की लोकप्रियता में वृद्धि हुई है। उसे दलित अध्यक्ष का लाभ भी मिल सकता है। मान लीजिए कि कांग्रेस अपने मत-प्रतिशत में तीन-से चार प्रतिशत की वृद्धि करने में कामयाब हो जाती है, तथा भाजपा और बसपा का मत-प्रतिशत वहीं टिका रहता है, तो तीनों पार्टियों के सकल वोट प्रतिशत में भले ही अंतर न आए, परंतु सपा को मिलने वाली सीटें बहुत कम हो जाएंगी। यह अंतर कांग्रेस को मिले अतिरिक्त मत-प्रतिशत का तीन से चार गुना हो सकता है। यानी चार-पांच प्रतिशत अधिक मत प्राप्त कर कांग्रेस, संभव है कि चार-पांच विधानसभाएं सीटें ज्यादा जीत ले, लेकिन उससे समाजवादी पार्टी के हाथ से 15 से 20 सीटें फिसल सकती हैं। वे उस दिशा में जाएंगीं, जहां वोटों का संकेंद्रण होगा। 

भाजपा और बसपा के वोट प्रतिशत को स्थिर इसलिए कहा जाना चाहिए क्योंकि दोनों पार्टियों का अपना कैडर वोट है। हालांकि बसपा 2017 के मुकाबले 2022 में अपना 9.35 प्रतिशत वोटबैंक गंवा चुकी थी; परंतु वह इससे और नीचे जा सकती है, इसकी संभावना अभी कम है। सच यह भी है कि दलित मतदाताओं को बसपा अध्यक्ष की चुप्पी और मनमानी दोनों खल रही हैं। बीते कुछ वर्षों में उन्होंने खुद को मजबूत करने के बजाय भाजपा को लाभ पहुंचाने का काम किया है। फिर भी इन चुनावों में गठबंधन को बसपा से न केवल किसी प्रकार की उम्मीद छोड़ देनी चाहिए, बल्कि उनके वोटों को कब्जाने का इरादा भी छोड़ना होगा। यदि वह बसपा का तीन-चार प्रतिशत मतदाता अपनी ओर खींचने में सफल हो जाता है तब भी, उसकी यह मामूली सफलता भविष्य की बहुजन राजनीति के हिए अहितकारी सिद्ध होगी। 

इस मामले में उसे भाजपा से सीखना होगा। प्रतीक के सहारे कहा जाए तो भाजपा ऐसा संगठन है जो समानांतर खड़ी रेखाओं में अपनी रेखा की लंबाई बढ़ाने के बजाए, दूसरी रेखाओं की लंबाई कम करने पर ज्यादा ध्यान देता है। जैसा कि पीछे कहा गया, भाजपा का अपना प्रतिबद्ध मतदाता वर्ग है। उसकी सहायक पार्टियां अपना दल, निषाद पार्टी वगैरह हैं। भाजपा के साथ आने से उन पार्टियों को भले ही आठ-दस सीटें मिल पाएं, लेकिन जैसा हमने पीछे देखा, उतना ही मत-प्रतिशत यदि किसी बड़े दल की ओर खिसक जाए तो उसे मिलने वाली सीटों में उन दलों को मिलने वाली कुल सीटों की अपेक्षा तीन से चार गुना अधिक सीटों का लाभ होता है, क्योंकि प्रतिबद्ध मतदाताओं और विपुल संसाधनों के बल पर बड़ी पार्टियां पहले से ही चुनौती की अवस्था में होती है। ऐसे में गठबंधन से प्राप्त एक-दो प्रतिशत वोट भी उनकी उन सीटों पर जीत को आसान बना देता है, जहां वे मतों के मामूली अंतर के साथ संघर्ष को अवस्था में हों। ऐसा चुनावों में अक्सर होता है। 

2024 में विपक्ष के लिए चुनौती 

आगे बढ़ने से पहले उचित होगा कि बीते लोकसभा चुनावों का भी जायजा ले लिया जाय। उत्तर प्रदेश में 2019 का आम चुनाव एनडीए बनाम महागठबंधन लड़ा गया था। महागठबंधन में सपा, बसपा, और राष्ट्रीय लोकदल शामिल थे। जबकि एनडीए में भाजपा का प्रमुख साथी अपना दल, निषाद पार्टी आदि थे। कांग्रेस ने अकेले चुनाव लड़ा था। लेकिन राहुल गांधी की तमाम आभासी सक्रियता के बावजूद कांग्रेस को 2014 के चुनावों के मुकाबले सीट और वोट दोनों का नुकसान उठाना पड़ा था। 

उत्तर प्रदेश आम चुनाव : 2014 की तुलना में 2019

गठबंधनपार्टीमत प्रतिशत (2019)मत प्रतिशत में बदलावसीटें (2019)सीटों में बदलाव
एनडीएभाजपा49.98+7.3562-9
अपना दल1.21+0.220
कुल51.19+7.3764-9
महागठबंधनबसपा19.43-0.3410+10
सपा18 11-4.245-9
राष्ट्रीय लोक दल1.69-0.8300
कुल39.23-5.4115-1
यूपीएकांग्रेस6.41-1.171-1

उन चुनावों में सपा को 9 सीटों का नुकसान हुआ था और बसपा को 10 सीटों का फायदा। कदाचित यही उत्साह था या और कोई दबाव कि 2019 के चुनावों के तुरंत बाद, बसपा की ओर से मायावती ने भविष्य में अकेले दम पर चुनाव लड़ने का फैसला कर लिया। बाद में उन्होंने 2022 का विधानसभा चुनाव अकेले लड़ीं और पहली सारणी से साफ है कि उससे पिछले विधानसभा चुनावों के मुकाबले अपना 9.35 प्रतिशत वोट गंवा बैठीं। जाहिर है कि मायावती के अपने ही मतदाताओं को उनका निर्णय स्वीकार नहीं था। वर्तमान हालात में अकेले चुनाव लड़ने पर बसपा के वोट प्रतिशत में वृद्धि तो मुश्किल है। लेकिन यदि नाराज मतदाताओं में से एक-दो प्रतिशत भी महागठबंधन की तरफ चल दिए तो वर्तमान लोकसभा में उनकी पार्टी की उपस्थिति एकदम सिमट सकती है। 

प्रस्तावित महागठबंधन की चुनौती 

हाल में एक चैनल पर इंटरव्यू देते हुए अखिलेश यादव ने कहा था कि जिस प्रदेश में जिस पार्टी का वर्चस्व है, चुनाव उसी के नेतृत्व में लड़ा जाना चाहिए। सवाल है कि यह तय कैसे होगा? हालांकि मायावती किसी गठबंधन में शामिल होने से इंकार कर चुकी हैं। फिर भी इस तरह का बयान देने से पहले अखिलेश को ध्यान रखना चाहिए कि 2022 के विधानसभा चुनावों में भले ही उनकी पार्टी प्रदेश में दूसरी बड़ी पार्टी रही हो, मगर 2019 के लोकसभा चुनावों में बसपा को मिला मत-प्रतिशत उनसे अधिक था; और 2024 में लोकसभा का ही चुनाव होना है। अखिलेश का दावा मान्य होता अगर यही पिछले चुनावों के बाद उन्होंने अपना समय सड़क पर जनता के लिए जूझते हुए बिताया होता या यदि विधानसभा में सपा के 111 सदस्यों ने अपनी उपस्थिति सही मायने में दर्ज कराई होती। 

जबकि बीते नौ वर्षों में मुद्देां की कमी नहीं रही है। सर्वविदित है कि बेरोजकारी बेतहाशा बढ़ी है। भारत सरकार ने कल्याण योजनाओं, जो गरीबों को राहत पहुंचाने का काम करती थीं, से पूरी तरह हाथ खींच लिया है। गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली जनता का प्रतिशत बढ़ा है। बेतहाशा आयात ने छोटे उद्यमों की कमर तोड़ दी है। यदि अखिलेश या उनकी पार्टी के किसी नेता ने इन वर्गों के पक्ष में सड़कों पर आंदोलन चलाया होता तो बाकी दल खुद-ब-खुद उनके पीछे चले आते। 

प्रस्तावित महागठबंधन में आखिर होगा कौन? उत्तर प्रदेश के लिहाज से देखें तो ज्यादा से ज्यादा कांग्रेस, राष्ट्रीय लोकदल, कुछ वामपंथी जो अपना प्रभाव गंवा चुके हैं; और दो-चार छिटपुट पार्टियां। 2019 के आम चुनावों में उत्तर प्रदेश में सपा, राष्ट्रीय लोकदल और कांग्रेस (यूपीए) को केवल 26.1 प्रतिशत वोट मिले थे, जबकि एनडीए को मिले थे 51.19 प्रतिशत वोट। अखिलेश यादव और महागठबंधन के नेताओं के सामने चुनौती यह है कि बगैर बसपा के साथ आये वे 25.09 प्रतिशत वोटों की कमी को कैसे दूर करेंगे? यदि आगामी चुनावों में जीत उनका लक्ष्य है तो समाधान सिर्फ गठबंधन बनाने से नहीं निकलेगा। गठबंधन सफल हो, इसकी रणनीति भी बनानी होगी। नरेंद्र मोदी के प्रति जो आकर्षण बीते चुनावों में था, उसमें तेजी से कमी आई है। विपक्ष कोशिश करे तो इन हालात का फायदा उठा सकता है।

एक बात और है जिसपर राजनीति को विरासत की तरह संभाल रहे नेताओं को ध्यान देना चाहिए। मीडिया ने मोदी की छवि अंतरराष्ट्रीय नेता के रूप में विकसित की है, जबकि अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव सहित गठबंधन के कई नेता ऐसे हैं, जिन्होंने इस डर से कि बाहर निकले तो प्रदेश हाथों से निकल जाएगा, कभी अपने प्रदेश से बाहर निकलकर छवि निर्माण करने की कोशिश नही की। हालांकि नीतीश कुमार और एम.के. स्टालिन जैसे नेताओं ने कुछ प्रयास अवश्य किये हैं, जिनके कारण प्रस्तावित महागठबंधन एक रूप लेता प्रतीत हो रहा है। लेकिन कहना गैर-मुनासिब नहीं कि अभी लंबी दूरी तय करनी है।  

कुल मिलाकर यह कि प्रस्तावित गठबंधन यदि चुनाव जीतना चाहता है तो उसे मतों के बिखराव से होने वाले नुकसान को भी रोकना होगा। उन्हें उन छोटे मगर प्रभावशाली दलों को भी सम्मान देना चाहिए, जो जातीय दमन का शिकार रहे वर्गों की अस्मिता की लड़ाई को ईमानदारी से अंजाम देने को निकले हैं।

(संपादन : नवल/अनिल)

लेखक के बारे में

ओमप्रकाश कश्यप

साहित्यकार एवं विचारक ओमप्रकाश कश्यप की विविध विधाओं की तैतीस पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। बाल साहित्य के भी सशक्त रचनाकार ओमप्रकाश कश्यप को 2002 में हिन्दी अकादमी दिल्ली के द्वारा और 2015 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के द्वारा समानित किया जा चुका है। विभिन्न पत्रपत्रिकाओं में नियमित लेखन

संबंधित आलेख

हरियाणा चुनाव : भाजपा को अब धर्मांतरण के मुद्दे का आसरा
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के बयान के विपरीत आरएसएस दशकों से आदिवासियों को हिंदू बनाने का प्रयास करता रहा है, वहीं भगवा ताकतें ईसाई मिशनरियों...
उत्पीड़न के कारण आत्महत्या की कोशिश से पीएचडी तक एक दलित शोधार्थी की संघर्ष गाथा
“मेरी कोशिश है कि गोरखपुर यूनिवर्सिटी में ही मेरा चयन हो जाए और मैं वहां अध्यापक बनकर वापस जाऊं। वहां लौटकर मैं वहां का...
हरियाणा विधानसभा चुनाव : ‘दलित-पिछड़ों को बांटो और राज करो’ की नीति अपना रही भाजपा
भाजपा वर्षों से ‘दलित-पिछड़ों को बांटो और राज करो’ की राजनीति का एक बहुत ही दिलचस्प खेल सफलतापूर्वक खेल रही है। जिस राज्य में...
रेणु साहित्य पर कब्ज़ा : मंडल पर कमंडल का हमला, खलनायक कौन है?
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव के नाम रेणु साहित्य के अध्येता अनंत का खुला पत्र
हरियाणा विधानसभा चुनाव : कुमारी शैलजा के विरोध के मायने
कहा जा रहा है कि दलित समुदाय की कुमारी शैलजा को मुख्यमंत्री पद का चेहरा न बनाए जाने की वजह से वह कांग्रेस पार्टी...