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‘मंडल बनाम कमंडल’ की तर्ज पर ‘जातिगत जनगणना बनाम समान नागरिक संहिता’ तो नहीं?

सामाजिक न्याय की लड़ाई को लंबे समय तक जारी रखने के लिए यह ज़रूरी है कि बहुसंख्यक भारतीय अर्थात ओबीसी, दलित और आदिवासी एकजुट हों। लेकिन यह हो नहीं पा रहा है। ऊंची जातियां अपने वर्ण के आधार पर एकजुट हैं। उनकी सोच एक है और उनका लक्ष्य एक है

फारवर्ड थिंकिंग 

क्या दलित-बहुजन एक बार फिर देश के राजनैतिक विमर्श को गढ़ने, उसे व्यापक स्वरुप देने और उसमें अपने हितों से जुड़े मुद्दों का समावेश सुनिश्चित करने का संघर्ष में मात खा रहे हैं?

क्या बहुजनों को, जो शासन-प्रशासन के शीर्ष स्तर और विश्वविद्यालयों में अपने उचित प्रतिनिधित्व की और बुद्धिजीवी बनने की आकांक्षा रखते हैं, को अपनी इस पूर्णतः वैध और उचित मांग की पूर्ति के लिए और इंतज़ार करना होगा? फिलहाल लगता तो ऐसा ही है। 

शायद आमजनों की सदियों से चली आ रही वंचना जारी रहेगी, क्योंकि उनके नेता ब्राह्मणवाद के पिछलग्गू बन बैठे हैं। शायद सामाजिक अन्याय का यह दौर अभी जारी रहनेवाला है। 

जाति जनगणना की मांग को ले कर उठ रही आवाजें शांत हो चलीं हैं। बिहार सरकार ने जाति सर्वेक्षण का काम शुरू किया था, क्योंकि दिल्ली में बैठी केंद्र सरकार जाति जनगणना करवाने के लिए तैयार नहीं थी। लेकिन एक अदालती हुक्म ने इस प्रक्रिया पर विराम लगा दिया है। जाति सर्वेक्षण पर रोक लगाने के लिए जिन लोगों ने याचिकाएं दायर कीं थीं, उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि और विचारधारा पहले से ही जगजाहिर है। आख़िरकार, जब तक सामाजिक न्याय के रथ को थामा नहीं जाएगा, तब तक ब्राह्मणवाद का बोलबाला कैसे जारी रह सकेगा? 

अगर सामाजिक न्याय की ताकतों की राह में रोड़े नहीं अटकाए गए तो हमेशा से विशेषाधिकार प्राप्त जातियां किस प्रकार यह सुनिश्चित कर सकेंगी कि बहुसंख्यक जनता गरिमापूर्ण जीवन से वंचित रहे और वे उनके श्रम, उनकी रचनात्मकता और कठिनाइयों का मुकाबला करने की उनकी क्षमता का उपयोग अपना जीवन और ऐश्वर्यपूर्ण, और आरामदेह बनाने के लिए कैसे कर पाएंगी?

दूसरी ओर, सदियों से विशेषाधिकारों से लैस मुट्ठी भर ऊंची जातियों और उनके राजनैतिक आकाओं के अन्याय राजनैतिक विमर्श पर बहुत मामूली असर डालते हैं। एक खेल के महासंघ के ऊंची जाति के नेता (अध्यक्ष) पर महिला खिलाड़ियों द्वारा यौन शोषण का आरोप लगाया जाता है, लेकिन उनकी लाख गुहार के बावजूद आरोपी को जेल नहीं जाना पड़ता। उनकी लंपटता की शिकार महिलाएं सकते में हैं। लेकिन उस पर उठे शोर को तो अपनी मौत मरने दिया जा रहा हैं। एक ब्राह्मण विधायक का ब्राह्मण प्रतिनिधि, एक असहाय आदिवासी पर पेशाब करता है, लेकिन एक साल तक इसके बारे में हमें पता ही नहीं चलता, क्योंकि इस घटना का वीडियो जिसके पास है, वह इसे ऑनलाइन पोस्ट करने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाता।

खेल महासंघ के ऊंची जाति के मुखिया की खाल मगरमच्छ से भी मोटी है। वह यह दावा करता है कि अगर उसके खिलाफ लगाये जा रहे आरोप साबित हो जाते हैं तो वह खुद अपनी जान ले लेगा। अयोध्या का ब्राह्मण समाज उसके समर्थन में आगे आता है और उसके निष्कलंक होने की दुहाई देते हैं। ओबीसी वर्ग से आनेवाला एक मुख्यमंत्री अपनी उस विचारधारा, जिसमें आदिवासी व्यक्ति पर पेशाब करने वाला ब्राह्मण भी यकीन रखता है, के बचाव में कुछ भी करने को तैयार है। वह पीड़ित को करीब 600 किलोमीटर की दूरी से सूबे की राजधानी में बुलवाता है, उसे अपने घर में नाश्ता करवाता है, उसके पैर धोता है और वह यह सब प्रायश्चित के लिए करता है, जो कि ब्राह्मणवादी रीति-रिवाज का हिस्सा है। और वह इस सबका वीडियो बनवाकर उसे सोशल मीडिया पर डालना नहीं भूलता।  

क्या यह दुखद आश्चर्य नहीं कि दिवगंत प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रतपा सिंह की मंडल आयोग की रपट को लागू करवाने में भूमिका के उत्सव और ‘हिंदुत्व-मुक्त भारत की ओर’ का परिवर्द्धित हिंदी संस्करण जारी करने के समारोह में मुख्य अतिथि रहने के एक सप्ताह के भीतर, महाराष्ट्र के एक जाने-माने ओबीसी नेता, राजनैतिक दलों के एक ब्राह्मणवादी गठबंधन की शरण में चले जाते हैं?  

क्या जातिगत जनगणना की मांग को भुला दिया गया है?

सामाजिक न्याय की लड़ाई को लंबे समय तक जारी रखने के लिए यह ज़रूरी है कि बहुसंख्यक भारतीय अर्थात ओबीसी, दलित और आदिवासी एकजुट हों। लेकिन यह हो नहीं पा रहा है। ऊंची जातियां अपने वर्ण के आधार पर एकजुट हैं। उनकी सोच एक है और उनका लक्ष्य एक है। वे राजनैतिक सत्ता, संसाधनों और उसकी धन-संपत्ति पर अनंतकाल तक अपना कब्ज़ा बनाए रखता चाहते हैं। लेकिन जाति प्रथा के निर्मााता उच्च वर्ग द्वारा बनाई गई शूद्रों के बीच खाई अबतक बरकरार है। शूद्र आज भी स्वयं को यादव, माली, कुशवाह, कुर्मी आदि के रूप में ही देखते हैं।  

करीब डेढ़ सदी पहले जोतीराव फुले ने शूद्रातिशूद्र से आह्वान किया था कि वे गोलबंद हों। लेकिन आज फुले की ही माली जाति का एक राजनेता (जिसने निस्संदेह एक समय उस महामानव की विरासत को जिंदा रखने के लिए कदम उठाए थे), एक ब्राह्मणवादी गठबंधन का हिस्सा बन गया है। उसके लिए शूद्रातिशूद्र एकता का कोई महत्व ही नहीं है और ना ही उसे यह याद है कि इन वर्गों के बीच एकता व सशक्तिकरण करने के लिए फुले ने अपना पूरा जीवन खपा दिया था। 

सवाल है कि क्या वह सुबह कभी आएगी जब फुले के सपने सच होंगे? जिन्हें फुले की विरासत को आगे ले जाना था, उन्होंने ही फुले के साथ विश्वासघात किया है। यह उसी समय हुआ है जब समान नागरिक संहिता (यूसीसी) का मसला जोर पकड़ रहा है और उसे देखकर तो यही लगता है कि ब्राह्मणवादी ताकतों ने बहुत सोच-समझ कर एक धार्मिक समूह विशेष को निशाना बनाने के लिए इस समय उठाया है।

राममंदिर के बहाने जिस कृत्रिम मुद्दे को गढ़ा गया था, उसकी छवि शायद कुछ धूमिल पड़ चली थी। उसे फिर से धो-पोंछ पर चमकाना ज़रूरी था। आखिर सड़कों पर लड़ने वालों को गोलबंद करने के लिए एक काल्पनिक दुश्मन तो चाहिए ही। और इस काल्पनिक शत्रु का कद, और उसकी ताकत को इतना बढ़ा-चढ़ा कर दुष्ट दिखाना होगा ताकि बहुसंख्यक शूद्रातिशूद्र अपनी जातिगत खाई को भूलकर, उसी विचारधारा के अनन्य समर्थक बन जाएं, जिसने उन्हें विभाजित, अशिक्षित और निर्धन आजतक बनाकर रखा है और जिसने उन्हें कभी उचित प्रतिनिधित्व नहीं  दिया। ना कि वे जाति जनगणना के पक्ष में मतदान करने लगें – वह कवायद जो उन्हें एक करेगा, उन्हें शिक्षित और समृद्ध बनाएगी। कतई नहीं। 

इस विचारधारा के खिलाफ लड़नेवाले आपस में लड़ते रहें, इससे जाति जनगणना की मांग उड़न-छू हो जाएगी। वैसे भी, 2021 में होने वाले जनगणना को 2024 में होने वाले चुनाव तक टाल दिया गया है। और क्यों नहीं? ये चुनाव आखिर यह तय करेंगे कि कौन बचेगा और किसकी अंतिम यात्रा निकलेगी।  

(अंग्रेजी से अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, संपादन : नवल)

लेखक के बारे में

अनिल वर्गीज

अनिल वर्गीज फारवर्ड प्रेस के प्रधान संपादक हैं

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