गत 20 अक्टूबर, 2023 को सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेश की सरकारों को पूरी तरह से मैनुअल स्कैवेंजिंग यानी हाथ से मैला ढोने/साफ करने की प्रथा को खत्म करने का आदेश दिया है। अदालत ने कहा है कि यह दुखद है कि आज भी देश में मैनुअल स्कैवेंजिंग हो रही है और सीवर सफाई के दौरान सफाईकर्मियों की मौत की घटनाएं सामने आ रही हैं।
जस्टिस एस.आर. भट और जस्टिस अरविंद कुमार की पीठ ने गहरी नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा कि सरकारों/सक्षम प्राधिकारों को सीवर सफाई के दौरान मरने वाले कर्मचारियों के परिजनों को अब 30 लाख रुपए मुआवजा देना होगा। पहले यह राशि 10 लाख रुपए निर्धारित थी। इसी प्रकार पीठ ने सीवर की सफाई के दौरान स्थायी विकलांगता का शिकार होने वाले कर्मचारियों को कम-से-कम 20 लाख रुपए और अन्य तरह के विकलांगता का शिकार होने पर 10 लाख रुपए मुआवजा देने आदेश दिया।
पीठ ने उपरोक्त न्यायादेश डॉ. बलराम सिंह की ओर से दाखिल जनहित याचिका पर विचार करते हुए दिया। याचिका में मैनुअल स्कैवेंजर के रूप में रोजगार पर प्रतिबंध और सफाईकर्मियों के पुनर्वास अधिनियम-2013 के प्रभावी कार्यान्वयन की मांग की गई थी। न्यायादेश सुनाते हुए जस्टिस भट ने कहा कि सरकारी महकमों/निकायों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सीवर सफाई के दौरान किसी की मौत न हो। उन्होंने यह भी कहा कि उच्च न्यायालयों को सीवर में होने वाली मौतों से संबंधित मामलों की निगरानी करने से नहीं रोका जाए।
निस्संदेह सुप्रीम कोर्ट का न्यायादेश स्वागत योग्य है, लेकिन यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा पिछले तीस वर्षों से अलग-अलग मामलों में इस तरह के न्यायादेश दिए जाते रहे हैं। ऐसे में कार्यपालिका पर यह सवाल उठता है कि वह सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का अनुपालन क्यों नहीं करता?
इसके बरक्स हुकूमतें 2 अक्टूबर को यानी गांधी जयंती के मौके पर स्वच्छ भारत का राग अलापती रहें, नेता और अफसर सफाई करते हुए फोटो खिंचवाते और भाषण देते रहें, लेकिन सच यही है कि आज भी सफाईकर्मी समुदाय सरकारी उपेक्षा का शिकार हैं। सरकारों को छोड़ भी दें और आमजनों की बात करें तो सच्चाई यही है कि लोग खुद सफाई करने में रूचि नहीं रखते हैं और मानते हैं कि यह काम तो सफाईकर्मियों का है। वे उन सफाईकर्मियों से कोई अपनापन नहीं रखते। इसकी वजह जातिवादी मानसिकता है, जिसके कारण सफाई करने वालों को तुच्छ और निम्न श्रेणी का समझा जाता है।
यही कारण है कि जब किसी सफाईकर्मी की सीवर या सेप्टिक टैंक साफ करते हुए मौत हो जाती है तो समाज इसे सामान्य घटनाओं की तरह लेता है। यह विडंबना नहीं तो क्या है कि सरहद पर मरने वाले को तो शहीद का दर्जा दिया जाता है और सीवर या गटर में मरने वाले को संज्ञान में भी नहीं लिया जाता।
बता दें कि सफाई कर्मचारी आंदोलन को सीवर और सेप्टिक टैंकों में सफाई कर्मचारियों की मौतों के खिलाफ आवाज उठाते-उठाते 500 से भी अधिक दिन हो गए हैं। लेकिन सरकार की तरफ से कोई पहल नहीं की जा रही है। यहां बात राजनीतिक उदासीनता की भी है।
क्या कहते हैं कानून?
मैला ढोने की प्रथा का निषिद्ध करने वाला सबसे पहला कानून आज से 30 साल पहले 1993 में बना था। इस कानून के अनुसार मैला ढोने की प्रथा प्रतिबंधित कर दी गई थी। जबरन कोई मैला ढुलवाने का कार्य करवाए तो उसके लिए दंड का प्रावधान था।
सफाई कर्मचारी आंदोलन और ऐसे ही समान सोच के संगठनों और व्यक्तियों ने जब 2003 में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की तो सुप्रीम कोर्ट का 2005 में अंतरिम आदेश आया था, जिसके अनुसार भी मैला ढुलवाने का कार्य दंडनीय अपराध था। पर मैला प्रथा फिर भी जारी रही।
अन्य संगठनों व सफाई कर्मचारी आंदोलन ने मैला प्रथा उन्मूलन के लिए केंद्र सरकार से हस्तक्षेप करने को कहा तो पहले कानून के बीस साल बाद एक दूसरा कानून बना– मैला ढोने के रोजगार का निषेध और उनका पुनर्वास अधिनियम-2013। आज इस कानून को बने हुए भी दस साल हो गए। इस बीच सफाई कर्मचारी आंदोलन की याचिका पर 27 मार्च 2014 को सुप्रीम कोर्ट का आदेश आया, जिसमें सीवर और सेप्टिक टैंक की मैनुअली सफाई पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इसके साथ यह भी आदेश दिया गया कि वर्ष 1993 से लेकर अब तक देश भर में जितनी सीवर या सेप्टिक टैंकों में मौतें हुई हैं, उनका सर्वे किया जाए। इसके अलावा मृतकों के परिजनों को 10 लाख रुपए का मुआवजा दिया जाए। इस आदेश के अनुसार किसी सफाईकर्मी को सीवर या सेप्टिक टैंक में बिना सेफ्टी उपकरणों के घुसाना दंडनीय अपराध है। इसके लिए दो लाख रुपए का जुर्माना या दो साल की जेल का प्रावधान है। पर सत्य यह भी है कि आज तक इस कानून का उल्लंघन करने वाले किसी को सजा नहीं हुई।
बहरहाल, कानून चाहे कितने भी बन जाएं और उच्चतम न्यायालय के कितने भी न्यायादेश आ जाएं, जब तक कार्यपालिका कानूनों का कठोरता से कार्यान्वयन नहीं करेगी, तब तक स्थिति में कोई बदलाव नहीं होगा। एक सवाल यह भी है कि कानूनों का पालन क्यों नहीं होता? क्या इसकी प्रमुख वजह है यह नहीं है कि सफाईकर्मियों के जाति भारतीय सामाजिक व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर हैं और तथाकथित उच्च समाज उन्हें दोयम दर्जे का भी नहीं समझता?
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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