दलित-बहुजन राजनीतिक विमर्श में यह सवाल बहुत समय से पूछा जाता रहा है कि कांग्रेस ने उनके लिए क्या किया है? यह सवाल तब से है जब कांग्रेस देश की राजनीतिक आज़ादी की लड़ाई में अग्रणी भूमिका में आ चुकी थी और कांग्रेस अधिवेशनों में – सामाजिक सुधार पहले या राजनीतिक सुधार पहले – की बहस काफी तीखी हो चुकी थी। इतिहास साक्षी है कि यह सवाल इतना महत्वपूर्ण बन गया था कि उसे स्वराज के लिए लड़ रहे अनेक नेताओं ने चुनौती के रूप में लिया। यह भी तथ्य है कि किस तरह एक कांग्रेस अधिवेशन में सामाजिक सुधार के पक्षधरों के शामियाने तक जला दिए गए और उसके पश्चात् राजनीतिक और सामाजिक सुधार की धाराएं अलग-अलग रास्तों पर चल पड़ीं। यह भी सच है कि कांग्रेस में महात्मा गांधी के आगमन ने सामाजिक सुधार के मुद्दों को गंभीरता से लेना शुरू किया और अस्पृश्यता निवारण को कांग्रेस के कार्यक्रमों का हिस्सा बनाना पड़ा।
राजनीतिक स्वराज की प्राप्ति और दलित-पिछड़ों के मुक्ति संग्राम की धाराएं साथ-साथ आगे बढ़ती रहीं। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि आपस में यदा-कदा टकराती भी रहीं। उसके बाद कम्युनल अवार्ड, गोलमेज सम्मलेन, पूना पैक्ट, हरिजन सेवक संघ का बनना, गांधी की देशव्यापी हरिजन यात्रा, विधान मंडलों के चुनाव और उनमें अछूत वर्ग की भागीदारी के जरिए सामाजिक गैर-बराबरी को ख़त्म करने का सवाल सबसे प्रमुख तरीके से सामने आते रहा। संविधान निर्माण की प्रक्रिया के प्रारंभ होने से ठीक पहले बाबासाहब डॉ. आंबेडकर ने एक किताब लिखकर इस सवाल को फिर से मुख्यधारा में ला दिया, जिसका शीर्षक है– ‘कांग्रेस और गांधी ने अछूतों के साथ क्या किया?’
के. संथानम ने इसके जवाब में एक किताब ‘आंबेडकर अटैक, ए क्रिटिकल एग्जमिनिशेन ऑफ़ डॉ. आंबेडकर्स बुक : व्हाट कांग्रेस एंड गांधी हैव डन टू द अनटचेबल्स’ ही लिख दी थी।
संविधान निर्माण के दौरान जब आरक्षण का मसला आया तब भी यह सवाल बना रहा। संविधान लागू होने से लेकर आज तक यह सवाल अलग-अलग स्थानों से अलग-अलग तरह से पूछा जाता रहा है और पूछा जाता रहेगा कि कांग्रेस ने दलितों-पिछड़ों के लिए क्या किया है? ऐसा सवाल कम्युनिस्टों, समाजवादियों और दक्षिणपंथियों से क्यों नहीं पूछा जाता है। आज सत्ता पर जो आरएसएस और उसका राजनीतिक दल भाजपा काबिज हैं, उनसे यह सवाल इस अंदाज़ में कभी क्यों नहीं पूछा गया? शायद इसलिए भी नहीं, क्योंकि कुछ तो घोषित तौर पर विरोधी हैं और कुछ से सवाल पूछने का अब कोई मतलब नहीं बचा है। लेकिन कांग्रेस से यह सवाल निरंतर पूछा जाता रहा है और पूछा जाता रहेगा।
इसकी वजह है कांग्रेस का इन वर्गों के साथ होने का दावा और इन वर्गों की कांग्रेस से अपेक्षा। यह अपेक्षा और उपेक्षा के मध्य कसमसाता सवाल है, जो कभी ख़त्म नहीं होगा।
पिछली शताब्दी में अस्सी के दशक में उभरी अस्मितावादी राजनीति ने इस सवाल को और तीखा किया। दलित पैंथर और बामसेफ आदि संगठनों से निर्मित हुई बहुजन राजनीति ने कांग्रेस से दलित-पिछड़ों के सवाल पर जवाबदेही मांगनी शुरू की। यह जानना रोचक हो सकता है कि जैसे-जैसे राजनीतिक परिदृश्य में बहुजन चेतना का उभार होने लगा, वैसे-वैसे कांग्रेस बहुजन विमर्श में खलनायक के तौर पर इसलिए भी स्थापित होने लगी, क्योंकि इसी दौरान उसका वैचारिक विचलन उसे दलित-पिछड़ों से और दूर ले गया।

डॉ. आंबेडकर को ‘भारत रत्न’ देने की बात हो अथवा पिछड़े वर्ग को मंडल कमीशन रिपोर्ट की सिफारिश के मुताबिक 27 फीसदी आरक्षण देने का फैसला हो, कांग्रेस यह श्रेय नहीं ले पाई। आरक्षण के मसले पर तो संसद में राजीव गांधी का वक्तव्य दृष्टव्य है, जिसमें उन्होंने आरक्षण के विरोध में खुलकर अपनी बातें कहीं। इसके बाद उदारीकरण का दौर आया, जिसने सार्वजनिक क्षेत्र में नौकरियों को ख़त्म करने में प्रमुख भूमिका निभाई। दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग में उभरे नौकरीपेशा मध्यमवर्ग ने इस खतरे को भांपा और इसके लिए भी कांग्रेस को ही जिम्मेदार माना। इस तरह कांग्रेस की अस्पृश्यता निवारण करने वाली, हक अधिकार देने वाली, इंदिरा गांधी की भूमि-बंदोबस्ती करके भूमि गरीबों के बीच बांटने वाली, दलित–पिछड़े वर्ग के स्वाभाविक मित्र होने की निर्मित छवि 1990 के बाद ध्वस्त होने लगी। इस तरह 1980 और 1990 के दशक में जो दलित-पिछड़ा कांग्रेस से दूर गया, वह आज तक वापस नहीं लौट पाया है।
इस सच्चाई पर कांग्रेस के अंदरखाने में बातें खूब हुई हैं। व्यक्तिगत बातचीत में भी अकसर यह स्वीकार किया जाता रहा कि कांग्रेस की कुछ भूलों की वजह से उसे परंपरागत रूप से समर्थन देने वाले वर्ग छिटक गए और उत्तर भारत के सबसे बड़ी आबादी वाले राज्यों में वह तीसरे अथवा चौथे स्थान पर चली गई। कांग्रेस पार्टी और उसके नेतृत्व ने कभी इस सच को नहीं माना कि कांग्रेस दलित-पिछड़े वर्गों से दूर हो गई थी। लेकिन दशकों बाद इस सत्य को स्वीकार करने का साहस कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने दिखाया है। बीते 30 जनवरी को दिल्ली में दलित इन्फ्लुएंसर्स की एक सभा में साफ तौर पर कहा कि “कांग्रेस ने दलितों और पिछड़ों का भरोसा बरक़रार नहीं रखा।” इसके साथ ही उन्होंने यह भी कह दिया कि “अगर कांग्रेस ने इन वर्गों का भरोसा बरक़रार रखा होता तो आज आरएसएस सत्ता में नहीं आती।”
यह बात देश भर में हर कोई कहता रहा है। यह एक ऐसी सच्चाई है, जिसे कांग्रेस में भी सब जानते हैं, लेकिन बोलने का साहस कोई नहीं करते, क्योंकि राजनीतिक दलों की अपनी सीमायें और पार्टी के भीतर के समीकरण और व्यक्तिगत लाभ हानि के गणित के चलते जानबूझ कर अनजान बने रहने की कला में राजनीतिक नेता माहिर हो चुके हैं। और वे केवल तभी मुंह खोलते हैं जब उनको निजी तौर पर नुकसान होता है। फिर भले स्वयं के वर्ग या दल का भी अहित होता हो। और जब उनका खुद का फायदा होता है तो वे ख़ामोशी का आवरण ओढ़ कर बैठे रहने को अच्छा मानते हैं।
भारत जैसे देश में जहां का समाज दोहरेपन को अपना धर्म समझता है और राजनीति जहां झूठ का पर्याय बन चली हो, सुबह बयान देकर शाम पलटी मार जाने को राजनीतिक महारत माना जाने लगा हो, वहां बेबाकी से सच को कहना और उसे सार्वजनिक रूप से स्वीकारना वर्तमान भारतीय राजनीति का दुर्लभ और विरल संयोग कहा जा सकता है।
राहुल गांधी अपनी बेबाकी और सपाटबयानी के लिए जाने जाते रहे हैं। जब मेरी उनसे वर्ष 2005 में हैदराबाद में पहली मुलाकात हुई तो मैं उनके संवाद करने के अंदाज़ को लेकर आश्चर्यचकित था और उनकी राजनीतिक सफलता को लेकर शंकित भी, क्योंकि वे लोकप्रिय झूठ का सहारा लेने के बजाय अलोकप्रिय सत्य को बोलने का साहस जुटा रहे थे और पब्लिक डोमेन में अप्रिय सत्य बोल रहे थे। हमारे समूह के साथ वे करीब 45 मिनट बात करते रहे। प्रतिप्रश्न करते रहे। कभी-कभी तो लगभग बहसनुमा वार्तालाप चला। मुझे लगा कि यह व्यक्ति वर्तमान राजनीति के स्थापित राजनेताओं से सर्वथा भिन्न है, जो केवल लोगों को अच्छी लगने वाली बातें नहीं बोलता है और न ही सिर्फ चापलूसी से भरी बातें सुनता है। उसमें गलत को गलत कहने और अपनी ही पार्टी के बड़े नेताओं को सबके सामने टोकने का अतिरिक्त साहस है। आम तौर पर कोई भी राजनेता यह जोखिम नहीं लेना चाहता है, लेकिन राहुल गांधी के स्वभाव में ही यह प्रवृति है कि वे सच को सच की भांति बोलना पसंद करते हैं। राजनीति में कटु सत्य बोलने वाले बेहद कम लोग होते हैं, क्योंकि सच बोलने की कीमत चुकानी पड़ती है। राहुल गांधी अपने सत्य की कीमत लंबे समय से चुका रहे हैं। अपने ताज़ा वक्तव्य में उन्होंने कहा भी है कि इस बयान से मुझे नुकसान हो सकता है, लेकिन मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि यह सच है।
अगर देखा जाये तो राहुल गांधी कांग्रेस का वह सच स्वीकार कर रहे हैं, जिसे स्वीकार किया जाना और पूरी दृढ़ता से बोला जाना जरूरी है। जैसा कि उन्होंने कहा– “उन्हें कोई गुरेज नहीं है कि 1990 के दशक से कांग्रेस वंचित वर्गों के हितों की उस तरह से रक्षा नहीं कर पाई, जैसे करनी चाहिए थी।” राहुल गांधी ने दलित समुदाय के लोगों से कहा कि वे अपनी पार्टी में आंतरिक क्रांति लाएंगे और संगठन में वंचित तबकों के लोगों को उचित प्रतिनिधित्व दिया जाएगा।
आलोचक कह सकते हैं कि राहुल गांधी कोई नई बात नहीं कह रहे हैं। ये बातें तो दलित संगठन और बहुजन दल बहुत पहले से कहते आ रहे हैं कि कांग्रेस दलित हितैषी नहीं है। और दूसरी आलोचना यह हो सकती है कि इतने बरसों बाद आप अगर इस सच्चाई को स्वीकार भी रहे हैं तो इससे दलित-पिछड़ों को क्या फायदा होगा? तीसरी बात यह कही जा सकती है कि अगर आपको अपनी पार्टी में आंतरिक बदलाव लाना है और वंचित वर्गों को उचित भागीदारी देनी है तो यह बात दलितों के मध्य कहने के बजाय अपने पार्टी के मंच पर कहिए और वहां लागू करके दिखाइए, तभी लोगों का भरोसा लौटेगा, अन्यथा केवल ज़बानी जमा खर्च से क्या होने वाला है?
इन आलोचनाओं को नकारा नहीं जा सकता है, लेकिन राहुल गांधी की मंशा को भी समझना होगा। नेताओं को जानने के लिए उनकी नीतियों से ज्यादा उनकी नीयत को देखना चाहिए। अगर वह ठीक है तो नीति और नेता दोनों ही ठीक माने जा सकते हैं। इस मापदंड पर अगर हम कसें तो राहुल गांधी ईमानदार और खरे उतरने वाले शख्स साबित होते हैं।
यदि हम कांग्रेस के राहुल काल का अवलोकन करें तो हम पाते हैं कि कांग्रेस पर काबिज क्षत्रपों और वर्चस्ववादी जाति समूहों के एकाधिकार को तोड़ने की शुरुआत राहुल गांधी की पहल से ही शुरू हुई, जिसमें युवा कांग्रेस और छात्र संगठन में आंतरिक लोकतंत्र को स्थापित करने तथा वंचित वर्गों की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए निर्वाचन प्रक्रिया शुरू की गई। पार्टी के भीतर महत्वपूर्ण पदों की जिम्मेदारी दलित-पिछड़ों को दी गई। यह सर्वविदित है कि पंजाब में चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनवाने का राहुल गांधी का फैसला कांग्रेस की भीतरी राजनीति में उनकी आलोचना का कारण बना। आज कांग्रेस अगर ‘जय बापू, जय भीम और जय संविधान’ के राष्ट्रव्यापी अभियान पर अग्रसर है तो कांग्रेस को भीतर से दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के अनुकूल बनाने के लिए राहुल गांधी को काफी जोर लगाना पड़ा है।
ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस पटरी पर लौट रही है। उसकी राजनीति सामाजिक न्याय की राजनीति बनती जा रही है तो इसका श्रेय राहुल गांधी को जाता है। जाति जनगणना की बात हो अथवा आरक्षण की सीमा पचास फ़ीसदी से आगे बढ़ाने की बात हो, संविधान हाथ में लेकर देश भर में हर वर्ग के मध्य जाकर खड़े होने और सच को उसके वास्तविक रूप में स्वीकारने का साहस राहुल गांधी में स्पष्ट परिलक्षित होता है।
मुझे याद है कि जब वे अपनी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के दौरान भयंकर ठंड के समय में राजस्थान से गुजर रहे थे तब यात्रा आयोजकों के बुलावे पर मैं दौसा जिले में आठ किलोमीटर तक उनके साथ चलते हुए वार्तालाप करता रहा। उस दौरान उन्होंने कमोबेश यही बातें कही थीं, जो अब उन्होंने दलित इन्फ्लुएंसर्स की सार्वजनिक सभा में कही है। तब उन्होंने कहा था कि कांग्रेस का स्टियरिंग वंचित वर्गों को अपने हाथ में ले लेना चाहिए। यह तब की बात है जब मल्लिकार्जुन खड़गे कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने वाले थे। मैं कांग्रेस के नए बनते स्वरूप और उसके वैचारिक रूप से प्रशिक्षित हो रहे प्रतिबद्ध कैडर को निर्मित होते हुए देखने के अनुभव से कह सकता हूं कि राहुल गांधी वंचित वर्गों की भागीदारी का सवाल ही नहीं उठा रहे हैं। वे सिर्फ कह नहीं रहे हैं, बल्कि सुनियोजित रूप से अपनी पार्टी के भीतर उसे क्रियान्वित भी कर रहे हैं, जिसका असर आने वाले दिनों में दिखाई देगा।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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