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यात्रा संस्मरण : ‘सड़सी-कुटासी’ परब मनाते छोटानागपुर के असुर

होलिका दहन के मौके पर जहां एक ओर हिंदू एक स्त्री की प्रतिमा को जलाते हैं दूसरी ओर उसी दिन छोटानागपुर के असुर ‘सड़सी-कुटासी’ का परब मनाते हैं। इस दौरान वे लोहा गलाने के अपने पुरखों के कौशल और ज्ञान को दुहराते हैं। पढ़ें, झारखंड के सुदूर नेतरहाट के पोलपोल पाट गांव के असुरों के इस उत्सव के बारे में

वह तारीख थी 1 नवंबर, 2015 की, जब मैं पहली बार आदिम असुर जनजाति के लोगों की धरती पर गया। तब मेरे सामने जो कुछ था, वह वाकई में कल्पना के परे था। दूर-दूर तक छोटानागपुर के पठार का विस्तार और जगह-जगह पर हिंडाल्को के साइन बोर्ड। कहीं-कहीं कुछ लोग मिल जाते थे। जितने लोग, उतनी बातें। वे बातें, जिनके बारे में यकीन करना भी तब मुश्किल होता था। मसलन, यह कि गुमला के बिशुनपुर प्रखंड के सखुआपानी और जोभीपाट आदि गांवों में लोग अपने घरों के दरवाजे में ताला तो छोड़िए, कुंडी तक नहीं लगाते थे। उस दौरान सुषमा असुर के घर का यही नजारा था। घर का दरवाजा खुला था और स्वयं सुषमा असुर अपने गांव सखुआपानी से करीब 25 किलोमीटर दूर बिशुनपुर प्रखंड के आगे घाघरा नामक स्थान पर थीं। लेकिन इस बार जब 10 मार्च, 2025 को उनके घर पहुंचा तब वह अपने गांव में ही थीं और घर के मुख्य दरवाजे की कुंडी लगी हुई थी तथा घर के एक कमरे में ताला भी लगा था।

सुषमा असुर तब मेरी जानकारी में असुर समुदाय की पहली कवयित्री थीं, जिन्होंने आसुरी भाषा में अपनी कविताओं की रचना की थी। उनकी कविताएं हिंदी में अनुदित होकर मेरे संज्ञान में आई थीं। यह जानकारी भी स्वयं सुषमा असुर ने ही दी कि अब वे इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (इग्नू) से हिंदी में एम.ए. कर रही हैं और यह उनका पहला वर्ष है।

दरअसल, इस बार सुषमा असुर के मार्फत ही यह जानकारी भी मिली कि वे अपने ही गांव में झारखंड सरकार के कल्याण विभाग द्वारा संचालित राजकीय आवासीय उच्च विद्यालय (केवल छात्रों के लिए) में चपरासी की नौकरी करती हैं। उन्हें यह नौकरी संविदा पर एक आउटसोर्सिंग एजेंसी के जरिए मिली है, जिसका मुख्यालय रांची में है। पगार कितनी मिलती है, पूछने पर हंसते हुए सुषमा कहती हैं, मेरे हाथ में तो महीने के आठ हजार रुपए ही आते हैं, लेकिन पता नहीं एजेंसी को कितना मिलता होगा।

सखुआपानी स्थित आवासीय उच्च विद्यालय में दो शिक्षिकाओं के साथ सुषमा असुर (मध्य में)

खैर, इस बार जब सुषमा असुर से उनके कार्यस्थल पर मिला तब यह देखकर अच्छा लगा कि स्कूल के प्रिंसिपल व अन्य शिक्षक-शिक्षिकाएं उन्हें ‘सुषमा दीदी’ कहकर संबोधित करते हैं। और यह भी कि सभी उनकी प्रतिभा के कायल भी हैं कि तमाम विषमताओं के बावजूद सुषमा असुर ने अपनी पढ़ाई को जारी रखा है और साहित्यिक अभिव्यक्तियों के जरिए असुर समुदाय के अतीत व रोज-ब-रोज के संघर्षों को आवाज देना भी। अभी करीब डेढ़ साल पहले ही यह खबर आई थी कि उनके भाई अनिल असुर का असमय ही इंतकाल हो गया था। इस बार जब मैं उनके साथ उनके घर गया तब यह दिखा भी। सुषमा ने यह भी कहा कि एक पड़ोसी ने उनके घर के आगे की जमीन पर कब्जा कर लिया है।

सुषमा ने बताया कि झारखंड सरकार की ‘आबुआ आवास योजना’ के तहत उनके पड़ोसी को वित्तीय सहायता मिली है। अपने पड़ोसी के द्वारा कब्जा किए जाने के विरोध में सुषमा ने स्थानीय प्रशासन को आवेदन भी दिया है। सुषमा का कहना है कि उन्हें इस जमीन का वनपट्टा भारत सरकार, जनजाति कार्य मंत्रालय, अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) नियम, 2008 के तहत 2009 में दिया गया है। इसका रकबा 0.51 एकड़ है। क्या अब तक कोई कार्रवाई हुई, पूछने पर मुस्कुराते हुए कहती हैं कि मैंने आवेदन तो दे दिया है, अब सरकार जाने। लेकिन इसके बाद वह थोड़ी देर के लिए चुप्पी साध लेती हैं।

खैर, इस बार सखुआपानी तक पहुंचना आसान साबित नहीं हुआ, जैसा कि नवंबर, 2015 में हुआ था। तब वजह यह थी कि सखुआपानी के निवासी अनिल असुर (सुषमा असुर के भाई नहीं) हमें बिशुनपुर प्रखंड कार्यालय में ही मिल गए थे और हमारे मार्गदर्शक थे। इस बार तो खुद ही जाना था। बस इतनी जानकारी थी कि गुटदरी थाने के रास्ते में आगे बढ़ने पर सखुआपानी गांव जाने का रास्ता मिलेगा। और यह जानकारी स्वयं सुषमा असुर ने ही दूरभाष पर दी थी। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ रहे थे, लाल मिट्टी वाले खेतों का दायरा बढ़ता जा रहा था। कुछ जगहों पर खेतों में माचा देखने को मिले। माचा मतलब एक तरह का मचान, जिसके ऊपर पुआल सुरक्षित रखे गए थे। इन पुआलों का इस्तेमाल गर्मी के मौसम में तब किया जाता है, जब मवेशियों खासकर बैलों के लिए घास नहीं होता। झारखंड के गुमला, लातेहार और लोहरदगा आदि जिलों में अधिकांश आदिवासी किसान खेती के लिए बैलों का ही इस्तेमाल करते हैं। अब भी इन इलाकों में समृद्धि का मतलब यही है कि किसके घर के गोढ़नी में कितने बैल हैं।

नेतरहाट फील्ड फायरिंग रेंज हटाने के लिए चलाए गए आंदोलन की स्थली टूटूवापानी मोड़ पर स्थापित शिलालेख

मैं सखुआपानी गांव पहुंचने की बात कर रहा था। गुटदरी थाना के ठीक पहले ‘चोरमुंडा’ नामक एक गांव मिलता है। इस गांव से होकर राज्य सरकार की एक पक्की सड़क जाती है, जो सीधे बिशुनपुर, गुमला और रांची आदि से जुड़ी है। हमें यह बताया गया था कि चोरमुंडा के आगे ही गुटदरी थाना जानेवाली सड़क है और वही सड़क सखुआपानी तक जाती है। चोरमुंडा गांव के चौराहे के ठीक पहले एक यात्री शेड बनाया गया है, जिसके साइनबोर्ड पर लिखा था ‘हिंडाल्को’ द्वारा सीएसआर के तहत निर्मित। हिंडाल्को ने पूरे इलाके की जमीन को खोदकर बॉक्साइट निकाला और गड्ढे बना दिए, उसने इस तरह से अपनी कारपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलीटी को निभाया है। इतना भी नहीं कि यात्री शेड के पास पीने के पानी की उपलब्धता हो।

साइनबोर्ड पर ‘चोरमुंडा’ लिखा था। एक स्थानीय से पूछा तो उसने चोरमंडा कहा, लेकिन बाद में उसने मुस्कुराते हुए कहा कि ‘मुंडे चोर होते हैं’। दरअसल, आदिवासी इलाकों में विभिन्न समुदायों के बीच वैमनस्य की स्थिति ऐतिहासिक रूप से रही है। उरांव और मुंडा सबसे समृद्ध समुदायों में माने जाते हैं। इस बार जब रांची से नेतरहाट और सखुआपानी के लिए निकला, तब यह जानकारी भी मिली कि रांची के आसपास की अधिकांश जमीनें उरांवों के नाम से हैं। उनके बाद मुंडाओं की बारी आती है।

हम सखुआपानी की राह पर थे। सड़क के नाम पर हिंडाल्को के ट्रकों द्वारा बनी हुई लीक। कुछ जगहों पर प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के बोर्ड भी लगे थे और कहीं-कहीं कोलतार और महीन गिट्टी के निशान। कोलतार के ये अवशेष पिछली बार यानी 2015 की यात्रा से अलग थे। इसका मतलब यह कि बीते दस वर्षों के दाैरान सखुआपानी गांव जाने के लिए कुछ दूर तक सड़क का निर्माण किया गया। कोलतार के अवशेष एक-दो किलोमीटर के बाद ही गायब हो गए और हम ‘लाल’ लीक के सहारे आगे बढ़ते रहे। बीच-बीच में सामने से आते हिंडाल्को के ट्रक नजर आ रहे थे, जिनका आकार लीक की चौड़ाई के सापेक्ष भयानक लग रहे थे। मतलब यह कि हमें उन ट्रकाें से बचते हुए आगे बढ़ना था। इस बीच एक स्थानीय ने जानकारी दी कि इन ट्रकों के अधिकांश चालक स्थानीय आदिवासी हैं, जिनकी जमीनें हिंडाल्को ने ले लिये हैं। मतलब यह कि ड्राइवर की नौकरी उन्हें मुआवजे के रूप में दी गई है। और ये आदिवासी चालक अपने ही हाथों अपने-अपने खेतों के नीचे पड़े खजाने को लादकर हिंडाल्को की भट्ठियों तक पहुंचा रहे थे।

सखुआपानी से करीब दस किलोमीटर पहले लगा कि हम गलत रास्ते पर हैं। ऐसा इसलिए लगा क्योंकि लीक पर न तो मील के पत्थर थे और न ही कोई साइन बोर्ड, जिनसे हमें यह सूचना मिलती कि सखुआपानी की राह पर हैं। सुषमा असुर जी से फोन पर बातचीत हुई तब हमने अपने सामने दिख रहे नजारे से उन्हें वाकिफ कराया। जवाब मिला कि आप सही रास्ते पर हैं, आगे बढ़ते रहें। पहाड़ पार करने के बाद एक नदी मिलेगी और फिर एक स्कूल। और यह भी कि इस समय वह अपने स्कूल में ही मौजूद हैं।

नवंबर, 2015 की यात्रा में हमें वह स्कूल नहीं मिला था। वजह यही रही होगी कि तब हम दूसरे रास्ते से सखुआपानी गए थे। असल में हिंडाल्को ने खनन क्षेत्रों का भूगोल बदल दिया है। खासकर सड़कें तो लगातार ही बदलती रहती हैं। सही रास्ता कौन है, यह केवल स्थानीय लोग ही जानते हैं।

पोलपोल पाट गांव जाने के लिए बनाई गई कच्ची सड़क

हम घुमावदार रास्तों से पहाड़ को पार करते हुए आगे बढ़े तो एक नदी मिली। इसे झरिया भी कहते हैं। इस नदी और इसके आगे मिलनेवाली नदियों के बारे में सुषमा असुर ने कुछ खास जानकारियां दीं, जिनके बारे में आगे बात करते हैं। असल में सुषमा असुर जिस स्कूल में चपरासी के पद पर कार्यरत हैं, वह हमें पहाड़ को पार करते ही नजर आने लगा था। कुछ ही देर बाद हम सखुआपानी गांव में थे और सुषमा असुर अपने स्कूल के बाहर इंतजार करती हुई मिलीं। ‘जोहार’ कहते हुए उन्होंने स्वागत किया और हमें वह अपने स्कूल के अंदर ले गईं। स्कूल में पठन-पाठन बच्चों के बोर्ड एग्जाम के कारण बाधित थे। पूरे परिसर में शांति पसरी थी। दो शिक्षिकाएं भी मिलीं। वे भी अनुबंध के आधार पर कार्यरत थीं। उनमें से एक ज्योति लकड़ा थीं। उन्होंने बताया कि वह बच्चों को संस्कृत पढ़ाती हैं। सुषमा असुर ने विस्तार से बताया कि राज्य सरकार बच्चाें को तीन भाषाएं पढ़ाती है। इनमें एक हिंदी, दूसरी अंग्रेजी और तीसरी भाषा संस्कृत है। मुझे लगा कि यह ऐच्छिक भाषा होगी। लेकिन ज्योति लकड़ा ने कहा कि नहीं, यह अनिवार्य है और इस विषय में पास करना ही होता है।

स्कूल के प्रिंसिपल उपेंद्र सिंह मुंडा भी हमें मिले और कुछ देर तक हम उनके कक्ष में बैठे थे। उन्होंने बताया कि वे प्रसिद्ध आदिवासी विमर्शकार रहे प्रो. रामदयाल मुंडा के करीबी रिश्तेदार हैं। अपने रिश्ते को समझाते हुए उन्होंने कहा कि रामदयाल मुंडा उनके ननिया ससुर लगते थे। मतलब यह कि उपेंद्र सिंह मुंडा की पत्नी रामदयाल मुंडा की नातिन हैं। जितनी देर हम उपेंद्र सिंह मुंडा के कक्ष में बैठे रहे, सुषमा असुर किनारे पड़ी एक बेंच पर बैठी रहीं। शायद चपरासी होने की वजह से उन्हें वहीं बैठने के लिए कहा जाता हाेगा या फिर उन्होंने स्वयं अपना स्थान चुन लिया होगा। यह है असुर समाज की पहली बेटी, जिसने कविताएं लिखकर असुर समाज से जुड़े विमर्श को राष्ट्रीय फलक तक पहुंचाया और यह भी कि वह इस समुदाय की पहली बेटी है, जो एम.ए. की पढ़ाई कर रही है।

हम सुषमा असुर के घर जाने के लिए उनके स्कूल से निकले। इससे पहले ही मैंने उनसे पूछ लिया कि ‘सड़सी-कुटासी’ पर्व असुर आदिवासी कैसे मनाते हैं? जवाब मिला– “यह परब हम उसी दिन मनाते हैं, जिस दिन अन्य लोग होलिका जलाते हैं। इस दिन हम लोहा गलाते हैं और इसमें उपयोग किए जाने वाले सड़सी (एक बड़ा-सा चिमटा) और कुटासी (एक हथौड़ा) की पूजा करते हैं।” इसकी तैयारी कैसे की जाती है? इसके जवाब में उन्होंने कहा– “सामने उस पहाड़ के आगे एक गांव है– पोलपोल पाट। वहां इस बार यह परब मनाने की तैयारी की जा रही है।” क्या मैं भी देख सकता हूं? उन्होंने कहा– “हां, क्यों नहीं। आप भी देखिए कि हम असुर अपने पुरखों की इस परंपरा को जीवित रखने की कोशिशों में किस तरह जुटे हैं।”

दरअसल, इतिहास में बताया गया है कि पहले ताम्र और कांस्य युग आया तथा बाद में लौह युग आया। लेकिन यहां झारखंड के छोटानागपुर के पठारों पर जो सभ्यता थी, उसका वर्णन कहीं नहीं मिलता। मुमकिन है कि वहां लोहा पहले से ही अस्तित्व में रहा होगा, जिसे गलाने और उपयोगी औजारों में परिवर्तित करने का हुनर यहां के आदिम जनजाति के लोगों के पास रहा होगा, और जिसे बनाए रखने के लिए ‘सड़सी-कुटासी’ का पर्व असुर समुदाय के लोग मनाते हैं।

सखुआपानी से हम पोलपोल पाट की ओर बढ़े। बॉक्साइट के खनन के लिए बनाई गई कच्ची सड़क पर हमारी मार्गदर्शक सुषमा असुर थीं। फिर रास्ते में पहले एक नदी मिली। नाम था– पोलपोल नदी। और उसके बाद पहाड़। क्या कोई शार्टकट रास्ता भी होता है इस गांव तक जाने के लिए? सुषमा असुर ने मुस्कुराते हुए कहा कि “हम आदिवासियों के लिए ये पहाड़ ही रास्ते हैं। हमें सड़क मार्ग का उपयोग नहीं करना पड़ता।” आपको सखुआपानी से पोलपोल पाट जाने में कितना समय लगता है? सुषमा असुर ने कहा कि “बस दस से पंद्रह मिनट।” जबकि जिस रास्ते से हम कार से जा रहे थे, उससे हमें आधा घंटा से अधिक समय लगा।

हम पोलपोल पाट गांव में पहुंचे। एक झोपड़ा हमारे सामने था, जहां कोई भी नहीं था। सुषमा असुर ने इशारा करते हुए बताया कि “इसी झोपड़े में हम असुर ‘सड़सी-कुटासी’ का परब मनाएंगे। इसके ठीक बगल में हमारा सरना स्थल है, जहां हम प्रकृति की पूजा करते हैं।”

पोलपोल पाट गांव में सरना स्थल के समीप झोपड़े के पास सुषमा असुर व लेखक नवल किशोर कुमार। पार्श्व में सड़सी-कुटासी परब के लिए असुर समुदाय के लोगों द्वारा बनाई गई भट्ठी

झोपड़े में मिट्टी से बनाई गई एक संरचना थी। वहीं लकड़ी के कोयले और कुछ पत्थर पड़े थे। सुषमा असुर ने हमें जानकारी दी कि आदिम तरीके से लोहा गलाने की परंपरा का नया आरंभ किया जा रहा है। उन्होंने हमें बताया कि “जिन नौजवानों ने यह पहल की है, अभी उनसे बात नहीं हो पा रही है, मैसेज कर दिया है। वे लोग जल्दी ही यहां पहुंचेंगे।”

सुषमा असुर मिट्टी से बनी संरचना के बारे में बताने लगीं– “यह भाथी (भट्ठी) है। इसे बलुई और दीमक वाली मिट्टी से बनाया जाता है। इसकी ऊंचाई तीन फीट होती है, जिसमें मिट्टी की ही दो नलियां बनाई जाती हैं। एक नली से गला हुआ लोहा निकलता है और दूसरी नली से जला हुआ कोयला व अन्य अपशिष्ट। कोयला बनाने के लिए हम सखुआ की लकड़ी का इस्तेमाल करते हैं। पहले लकड़ी को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटते हैं, फिर उन्हें एक जगह इकट्ठा कर उन्हें ऊपर से गीली मिट्टी से ढंक देते हैं और फिर आग लगा देते हैं।” सुषमा कहती हैं कि “अब भी कई गांवों में वह पत्थर मौजूद है, जिसे घिसने से आग की चिंगारी निकलती है। हमलोग यहां आग जलाने के लिए उसी पत्थर का उपयोग कर रहे हैं। जब लकड़ी के टुकड़ों से धुआं निकलना बंद हो जाता है तब हम उसके ऊपर पानी डालते हैं। शहरी भाषा में कोयला का चारकोल भी कहते हैं। लेकिन हम इसे हांसा कहते हैं। असल में हमारे जीवन में सखुआ का स्थान बहुत महत्वपूर्ण है। या कहिए कि सखुआ के बगैर हम अपने जीवन की कल्पना ही नहीं कर सकते। और लोहा गलाने के लिए जितना ताप चाहिए, वह किसी और कोयले से मुमकिन ही नहीं है।”

लोहा किस पत्थर में होता है और यह कहां मिलता है? मानो सुषमा मेरे इस सवाल का इंतजार ही कर रही थीं, सवाल पूरा होने से पहले ही कहने लगीं कि “यह हम रामझरिया गांव के पहाड़ से लेकर आए हैं। वहां इस तरह के पत्थर मिलते हैं।” हल्का लाल रंग के पत्थर को हाथ में लेकर दिखाते हुए सुषमा बोलीं कि “यह ‘दिरीटुकु’ है। इससे सबसे बढ़िया क्वालिटी का लोहा निकलता है। इसके लोहे का इस्तेमाल रेल की पटरियों आदि के निर्माण के लिए किया जाता है।”

पोलपोल पाट गांव में सड़सी-कुटासी परब के दौरान उत्सव मनाते असुर समुदाय के लोग (तस्वीर साभार : बिमलचंद्र असुर)

‘दिरीटुकु’ मेरे हाथ में था। यकीन नहीं हो रहा था कि यह हेमेटाइट है, जिसे सबसे बढ़िया लौह अयस्क इसलिए माना जाता है, क्योंकि इसमें 70 प्रतिशत लोहा होता है। सुषमा असुर ने पूछा कि “आपको इसका वजन कैसा लगा?” मैंने कहा कि यह सामान्य पत्थरों से अधिक भारी है। सुषमा असुर ने एक दूसरा पत्थर हाथ में लिया और कहा कि “यह ‘बिचीटुकु’ है। लोहा इससे भी निकलता है, लेकिन इसके लोहे का इस्तेमाल कुल्हाड़ी, कुदाल, हंसिया आदि घरेलू औजार बनाने के लिए किया जाता है।” उस पत्थर का रंग काला था।

पत्थरों को पिघलाकर लोहा निकालने के लिए तो बहुत ताप की आवश्यकता होती होगी? यह कैसे होता है। सुषमा असुर कहने लगीं कि “हां, इसके लिए खूब ताप जरूरी होता है। इसलिए हमलोग सखुआ के चारकोल का इस्तेमाल करते हैं। इसके लिए हम धुकनी का भी उपयोग करते हैं।” धुकनी मतलब धौंकनी, जिसका इस्तेमाल लोहार करते हैं? सुषमा ने कहा कि “हां, लेकिन हमारी धौंकनी अलग होती है। लोहार की धौंकनी में गर्म हवा ही भट्ठी में जाती है। लेकिन हमारी धुकनी ऐसी है कि इससे ठंडी हवा, जिसमें ऑक्सीजन खूब होता है, भट्ठी में जाती है, जिससे चारकोल अधिक ताप देता है।” लेकिन यह धुकनी ठंडी हवा कैसे भट्ठी में पहुंचाती है? मैंने पूछा।

सुषमा असुर ने धुकनी की बनावट के बारे में बताया कि “इसके लिए हम सखुआ की लकड़ी को ऐसे काटते हैं, जिससे वह वृताकार पात्र बन सके। इस तरह के दो पात्रों के ऊपर चमड़ा लगाते हैं। और फिर ऐसे समायोजित करते हैं ताकि धुकनी चलानेवाला पैर के सहारे इसे चला सके। चमड़े को गर्मी से बचाने के लिए उसे हम बीच-बीच में ठंडा भी करते हैं। इसके लिए हम हर्रे के पेड़ का छाल उपयोग में लाते हैं। छालों को पानी में डालकर रखते हैं। और एक महत्वपूर्ण बात यह कि लोहा गलाने की यह प्रक्रिया जब शुरू होती है तो इसे तबतक नहीं रोका जाता जबतक कि भट्ठी से निकलने वाली लौ एकदम से उजली न हो जाय। लौ का उजला होना ही इस बात का संकेत है कि लोहा अब पिघल चुका है।”

सड़सी-कुटासी परब के दौरान आदिम पुरखों के श्रम, ज्ञान व कौशल का स्मरण करते पोलपोल पाट गांव के असुर। तस्वीर में पत्थरों के जरिए आग जलाने की कोशिश करते एक ग्रामीण (तस्वीर साभार : बिमलचंद्र असुर)

सुषमा असुर हमें इस पूरी प्रक्रिया के बारे में बता रही थीं, इसी बीच एक अधेड़ और एक नौजवान आए। अधेड़ का नाम सोमा असुर और नौजवान का नाम बिमलचंद्र असुर था। सुषमा असुर ने बताया कि ‘सड़सी-कुटासी’ परब मनाने का श्रेय इन्हें ही जाता है। सोमा असुर ने बताया कि वे अभी लोहा गलाने की अपने पुरखों की प्रक्रिया को सीख रहे हैं। पिघले हुए लोहे का एक टुकड़ा उठाकर हाथ में देते हुए सोमा असुर ने कहा कि “कल रात में हमलोगों ने लोहा गलाना शुरू किया। लेकिन हमसे भूल यह हो गई कि हमने भाथी को पहले ही बुझा दिया। हम अनुमान ही नहीं लगा सके कि लोहा अभी पूरी तरह से पिघला ही नहीं है। इसलिए इस लोहे में आप चारकोल के कुछ टुकड़े देख सकते हैं। आज फिर हम यह करेंगे।”

धुकनी का चमड़ा किस जानवर का है? मेरे इस सवाल का जवाब बिमलचंद्र असुर ने दिया– “बकरी की खाल का। इसका उपयोग करने के लिए पहले हम खाल को पकाते हैं।” आप ‘सड़सी-कुटासी’ परब क्यों मना रहे हैं? बिमलचंद्र असुर ने कहा कि “इससे हम अपने पुरखों के ज्ञान और कौशल को याद कर रहे हैं। तब जब दुनिया में कुछ भी नहीं था, हमारे पुरखों ने लोहा को खोजा, उसे गलाया और औजार बनाए। आज हम उनके ही ज्ञान-कौशल से अपनी वर्तमान पीढ़ी को वाकिफ करा रहे हैं ताकि हमारी यह परंपरा बची रहे।”

इस बीच दो वृद्ध औरतें आईं। सुषमा असुर ने उनसे हमारा परिचय कराया– भिनसारी असुर और इतवरिया असुर। पोलपोल पाट गांव में केवल असुर समुदाय के लोग ही रहते हैं। ‘सड़सी-कुटासी’ परब में औरत और मर्द दोनों शामिल होते हैं। सड़सी उस चिमटे को कहते हैं जिससे लोहे को पकड़ा जाता है और कुटासी उस हथौड़े को कहा जाता है, जिससे उसे पिटते हैं और औजार बनाते हैं। इस दौरान असुर गीत भी गाए जाते हैं।

सड़सी-कुटासी परब का गीत गातीं भिनसारी असुर और इतवरिया असुर

सुषमा असुर ने दोनों वृद्ध असुर महिलाओं से गीत गाने का अनुरोध किया। वे गाने लगीं–

बुरू रे ऽ ऽ ऽ हांसा जे लोयो ऽ ऽ ऽ
बुरू रे ऽ ऽ ऽ हांसा जे तियांग ओ ता ऽ ऽ ऽ ना।।
ओके सब्बे ऽ ऽ ऽ ए सांड़ासी कु ऽ ऽ ऽ टासी ऽ ऽ ऽ
ओके सब्बे ऽ ऽ ऽ ए घना ऽ ऽ ऽ
पा ऽ ऽ ऽ लके सोटा ऽ ऽ ऽ व ता ऽ ऽ ऽ ना ।।
माडांग सब्बे ऽ ऽ ऽ ए सांड़ासी कु ऽ ऽ ऽ टासी ऽ ऽ ऽ
तायोम सब्बे ऽ ऽ ऽ ए घ ऽ ऽ ऽ ना
पा ऽ ऽ ऽ लके सोटा ऽ ऽ ऽ व ता ऽ ऽ ऽ ना।।

सुषमा गीत का अर्थ बताती हैं– “इस गीत में सुक्रा, सुक्रैन को याद किया जा रहा है, जिन्हाेंने लोहा गलाने की इस प्रक्रिया की खोज की। गीत में कहा जा रहा है कि जंगल में हांसा (लकड़ी का कोयला) जल रही है। कौन पकड़ेगा चिमटा और कौन हथौड़ा? और कौन औजारों को धार देगा?”

हम पोलपोल पाट से लौट रहे थे। रास्ते में फिर पोलपोल नदी मिली। सुषमा असुर ने बताया कि यह बारहो मास जिंदा नदी है। यहां पानी की धार कभी खत्म नहीं होती। और यह भी कि इसकी पानी में आयरन खूब होता है, इसलिए यहां की गर्भवती औरतें डाक्टरों के द्वारा आयरन की गोलियां खाने के लिए कहे जाने के बावजूद नहीं खाती हैं। वह कार से उतर कर पहाड़ पर करीब बीस-पच्चीस फीट चढ़ गईं और जब लौटीं तब उनके हाथ में पानी का बोतल था। मुस्कुराते हुए उन्होंने कहा कि आप भी पी लें हमारा अपना मिनरल वाटर।

(संपादन : राजन/अनिल)

*आलेख परिवर्द्धित : 28 मार्च, 2025 11:53 AM बजे


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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