h n

हिंदी पट्टी के लिए फुले दंपत्ति के जीवन पर एक आवश्यक फिल्म

हम सबने यह पढ़ा है कि किस तरह इस संतानहीन दंपत्ति ने ढेर सारी मुसीबतों का सामना करते हुए महिलाओं की एक पीढ़ी को शिक्षित किया। मगर पर्दे पर इसका सिनेमाई रूपांरण देखते हुए हमें समझ आता है कि यह संघर्ष कितना कठिन और कष्टकर रहा होगा। पढ़ें, यह समीक्षा

फिल्म समीक्षा 

फुले दंपत्ति (सावित्रीबाई फुले व जोतीराव फुले) के जीवन पर आधारित हिंदी फिल्म की लंबे समय से दरकार थी। और इसका कारण यह है कि हिंदी पट्टी ब्राह्मणवाद का गढ़ पहले भी थी और आज भी है। मगर ब्राह्मणवाद – और वर्ण व जाति प्रथा के उसके तंत्र – के सबसे पुराने, सबसे कटु और सबसे मुखर आलोचक दार्शनिक और क्रांतिकारी व्यक्तित्व के बारे में इस क्षेत्र के रहवासी बहुत नहीं जानते हैं। और अब तो ब्राह्मणवाद के पैरोकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, उससे जुड़े संगठन और उसकी राजनीतिक शाखा भारतीय जनता पार्टी की पुरजोर कोशिश है कि इस क्षेत्र के लोगों पर फुले और उनकी सोच का प्रभाव पड़ने की किसी भी संभावना को न केवल पूरी तरह समाप्त कर दिया जाए, बल्कि उनकी इच्छा तो यह है कि जातिगत पदक्रम के शीर्ष पर बैठे चंद लोगों के लाभार्थ पूरे देश की बहुसंख्यक आबादी को बौद्धिक एवं आर्थिक दृष्टि से दास बनाने वाली प्राचीन सामाजिक व्यवस्था को पुनर्जीवित किया जाए। इसके लिए ज़रूरी है कि उस बहुसंख्यक तबके, जो बुरी तरह विभाजित हैं, को गोलबंद किया जाए। और यह करने का एक ही तरीका है– ‘दूसरों’ अर्थात धार्मिक अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुसलमानों, का खलनायकीकरण।

यह संयोग ही है, विशेषकर इस फिल्म के निर्माताओं की दृष्टि से, कि यह फिल्म उस समय रिलीज़ हुई जब आतंकियों द्वारा कश्मीर के पहलगाम में 26 पुरुषों की जान ले ली गई, जिनमें से अधिकांश सैलानी थे। मारे जाने वालों के कुछ परिजनों और अन्यों के अनुसार गोली चलने से पहले हमलावरों ने यह सुनिश्चित किया कि उनका शिकार गैर-मुस्लिम हैं। इसके बाद से मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जा रहा है। ऐसे समय में ‘फुले’ फिल्म तनाव कम करने में कारगर हो सकती है।  

कुनबी जाति के जोतीराव (प्रतीक गांधी) शूद्र वर्ण से हैं और इस कारण उन्हें उनके एक ब्राह्मण मित्र की बारात में शामिल नहीं होने दिया जाता। इस घटना को फिल्म में दिखाया नहीं गया है मगर उसका संदर्भ दिया गया है। जोतीराव ने अपनी पत्नी को पढ़ना-लिखना सिखाया है और उन्होंने थॉमस पेन की ‘राइट्स ऑफ़ मैन’ पढ़ी है। पूना की लड़कियों को शिक्षित करने के उनके प्रयास के कारण फुले दंपत्ति दकियानूसी ब्राह्मणों के निशाने पर हैं और उन्हें अपने स्कूल के साथी उस्मान शेख (जयेश मोरे) और उनकी बहन फातिमा (अक्षया गौरव) के घर पर शरण लेनी पड़ती है। जोतीराव और सावित्रीबाई (पत्रलेखा) संतानहीन हैं और जैसा कि अक्सर होता है, जोतीराव के पिता गोविंदराव (विनय पाठक) इसके लिए सावित्रीबाई को दोषी ठहरते हैं। उनकी शिकायत है सावित्रीबाई के कारण उनके वंशबेल आगे नहीं बढ़ पाएगी। मगर जोतीराव अपनी पत्नी का बचाव करते हुए कहते हैं कि संतान को जन्म न दे पाने से सबसे अधिक व्यथित और दुखी महिला ही होती है। हम सबने यह पढ़ा है कि किस तरह इस संतानहीन दंपत्ति ने ढेर सारी मुसीबतों का सामना करते हुए महिलाओं की एक पीढ़ी को शिक्षित किया। मगर पर्दे पर इसका सिनेमाई रूपांतरण देखते हुए हमें समझ में आता है कि यह संघर्ष कितना कठिन और कष्टकर रहा होगा।

जिन लोगों ने फुले के जीवन के बारे में हिंदी या अंग्रेजी में पढ़ रखा है उन्हें भी यह फिल्म बड़ोदा के शूद्र शासक महाराज सयाजीराव गायकवाड़ के साथ फुले के रिश्तों के कुछ नए पहलुओं से परिचित करवाती है। गायकवाड़ ने आगे चलकर न्यूयार्क के कोलंबिया विश्वविद्यालय में बी.आर. आंबेडकर की शिक्षा का खर्च उठाया था। सन् 1870 के दशक में पड़े अकाल के दौरान लोगों को राहत पहुंचाने के लिए फुले दंपत्ति ने एक शिविर खोला। गायकवाड ने इस काम में उनकी मदद की और शिविर के लिए राहत सामग्री मुहैया करवाई। आगे चलकर, फुले के जीवन के संध्याकाल में गायकवाड़ ने उन्हें बंबई आमंत्रित किया जहां एक कार्यक्रम में उन्हें महात्मा की उपाधि से सम्मानित किया गया।

‘फुले’ फिल्म का एक दृश्य

सन् 1857 के विद्रोह के बाद ब्राह्मणों, जिन्होंने पहले शिक्षा के क्षेत्र में फुले दंपत्ति की पहलों का पुरजोर विरोध किया था, ने अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति के संघर्ष के लिए लोगों को गोलबंद करने के लिए उनकी मदद मांगी। फुले दंपत्ति का जवाब था कि अंग्रेज़ तो करीब 100 सालों से भारत पर राज कर रहे हैं, मगर शूद्रों की गुलामी तो हजारों साल पुरानी है। क्या ब्राह्मण इस पुरातन गुलामी को खत्म कर शूद्रों को अपना मानने के लिए तैयार हैं? शायद आज यही प्रश्न भारत के दलितों, आदिवासियों और ओबीसी को उन सत्ताधारियों से पूछना चाहिए जो देश के बहुसंख्यकों को मुसलमानों के खिलाफ भड़का रहे हैं।  

फिल्म में ब्रिटिश सरकार और उसके प्रतिनिधि कहीं-कहीं ही नज़र आते हैं। इससे यह रेखांकित होता है कि शूद्रों और अछूतों के समक्ष धर्मग्रंथों द्वारा स्वीकृत और अनुमोदित एक अन्यायपूर्ण प्रणाली से जनित दासत्व और वंचना का सवाल औपनिवेशिक सवालों से अधिक बड़ा सवाल था। इस प्रणाली में शूद्रों और अछूतों (जिन्हें फुले अतिशूद्र कहते थे) के साथ व्यवहार में अंतर को बहुत साफ़-साफ़ नहीं दिखाया गया है, मगर इन अंतरों का कुछ चित्रण किया गया है। मसलन, एक अछूत को अपने कमर पर झाड़ू और अपने गले में हांड़ी टांगे सड़क पर चलते दिखाया गया है। फुले के साथ यह अमानवीय व्यवहार तो नहीं होता मगर उनकी छाया किसी ब्राह्मण पर न पड़े, यह सुनिश्चित करना उनका कर्त्तव्य होता है। फुले ने ब्राह्मणवाद के विरुद्ध संघर्ष में शूद्रों और अछूतों को एकताबद्ध करने का प्रयास किया और उसी कारण उन्होंने अतिशूद्र शब्द गढ़ा। जब एक सार्वजनिक कुंए से पानी भरने पर अछूतों की पिटाई लगाई जाती है तब सावित्रीबाई अपने घर के आंगन में एक कुंआ खुदवा देती हैं, जिससे सभी जातियों और धर्मों के लोग पानी भर सकते हैं।

फुले के संघर्ष के पीछे थी उनकी यह इच्छा कि दमित शूद्रों-अतिशूद्रों और सभी वर्गों की महिलाओं को मनुष्य का दर्जा मिल सके और उसके साथ ही वे सारे अधिकार भी जो मनुष्यों को हासिल होने चाहिए। मगर समस्या यह थी कि असमानता की सोच की जड़ें धर्मग्रंथों में थीं और उन्हें धर्मशास्त्र के भाग के रूप में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित किया गया था। जाहिर है कि यह सोच समाज में गहरे तक व्याप्त थी। इससे मुकाबला करने के लिए यह ज़रूरी था कि इन मिथकों और उन्हें फैलाने वालों पर ज़ोरदार हमला किया जाए। यह ज़रूरी था कि दमित वर्गों के परिप्रेक्ष्य से इतिहास की पुनर्व्याख्या की जाए। फुले ने अपनी सबसे महत्वपूर्ण रचना ‘गुलामगिरी’ में यही किया। फिल्म में ‘गुलामगिरी’ पर बहुत चर्चा नहीं है। उसमें केवल यह दिखाया गया है कि सावित्रीबाई एक पुस्तक लिखने का अनुरोध जोतिबा से करती हैं और जोतिबा उसे लिखना शुरू कर देते हैं। उसके बाद के दृश्य इस पुस्तक के विमोचन का है। इसके कुछ ही समय बाद सत्यशोधक समाज की स्थापना होती है। मगर आज के समय में फुले के जीवन और उनके कार्यों का यह ‘ककहरा’ भी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के चंगुल में फंसी हिंदी पट्टी के लिए बहुत उपयोगी है।  

‘फुले’ में जोतीराव की महानता को रेखांकित करने के लिए संगीत या स्पेशल इफेक्ट्स का प्रयोग नहीं किया गया है। फिल्म उनकी जिंदगी को ही उनके संदेश के रूप में प्रस्तुत करती है। नज़रअंदाज़ किए जाने लायक एक कमी यह है कि फुले और शेख के घरों को जितना शानदार दिखाया गया है, वे शायद उतने शानदार नहीं रहे होंगे। फुले दंपत्ति के रूप में प्रतीक गांधी और पत्रलेखा ने अपनी भूमिकाओं के साथ न्याय किया है। पार्श्व संगीत और पारंपरिक समूह संगीत आदि के प्रदर्शन के दृश्य फिल्म के मिजाज़ के अनुरूप हैं। भावी पीढ़ियां दक्षिण भारतीय ब्राह्मण अनंत महादेवन की कृतज्ञ होंगीं कि उन्होंने फुले दंपत्ति और उनकी विरासत को हिंदी पट्टी की लोकचेतना का भाग बनाने का यह प्रयास किया, विशेषकर आज के दौर में। 

(मूल अंग्रेजी से अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, संपादन : राजन/नवल)

लेखक के बारे में

अनिल वर्गीज

अनिल वर्गीज फारवर्ड प्रेस के प्रधान संपादक हैं

संबंधित आलेख

‘गया’ को ‘गया जी’ कहना राजनीति से प्रेरित हो सकता है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता : राजेंद्र प्रसाद सिंह
‘गया’ को अगर आप ‘गया जी’ बनाते हैं तो बोधगया का भी नाम या तो सम्राट अशोक के शिलालेख पर जो साक्ष्य है, उसके...
‘जाति नहीं, धर्म पूछा था’, किससे कह रहे हैं भाजपाई?
सुरक्षा चूक और आतंकवाद के खात्मे की दावे की पोल खुलने के बाद भाजपा और आरएसएस से जुड़े लोगों ने सामाजिक न्याय तथा धर्मनिरपेक्षता...
देश में युद्ध की परिस्थितियां रहीं, इसलिए जातिगत जनगणना के सवाल पर हम अलर्ट मोड में हैं, चुप नहीं बैठेंगे : मनोज झा
ट्रंप के कहे का प्रतिकार तो हमारे माननीय प्रधानमंत्री जी की ओर से होना चाहिए। बिना देर किए प्रतिकार होना चाहिए। क्योंकि यह सरकारों...
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 का लक्ष्य शिक्षा का आर्यकरण करना है
आर्य-द्रविड़ संघर्ष आज भी जारी है। केंद्र सरकार की शैक्षणिक नीतियां इसका उदाहरण हैं। नई शिक्षा नीति इस संघर्ष का एक हथियार है और...
भारतीय संविधान, मनुस्मृति और लोकतंत्र
“दंगे को छोड़ कर अन्य सभी अवसरों पर प्रत्येक जाति अपने को दूसरी जातियों से अलग दिखाने और रहने का प्रयास करती है।” आंबेडकर...