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एक नहीं, हजारों डॉ. रोज केरकेट्टा की आवश्यकता

डॉ. रोज केरकेट्टा के भीतर सवर्ण समाज के ज़्यादातर प्रोफेसरों की तरह ‘सभ्य बनाने’ या ‘सुधारने’ की मानसिकता नहीं थी। वे केवल एक शिक्षिका नहीं, बल्कि एक पीढ़ी की प्रतिनिधि स्वर बनकर हमारे बीच उपस्थित रहीं। उन्होंने न्याय की मांग की। अपने समाज, सत्ता, और संपूर्ण मानवता से लगातार सवाल पूछे। उन्हें श्रद्धांजलि दे रही हैं नीतिशा खलखो

एक सामाजिक अगुआ का यूं चले जाना, जो चिंगारी बनकर धधकती रहीं, जिन्होंने क़ौम को जीने की वजहें बताईं, जिन्होंने मशाल को थामे रखने और सच्चाई के लिए लड़ते हुए कभी पीठ नहीं दिखाई। वह योद्धा रहीं डॉ. रोज केरकेट्टा (5 दिसंबर, 1940 – 17 अप्रैल, 2025)। बीते गुरुवार को वह चिरनिद्रा में लीन हो गईं। उनका शरीर थक सकता था, लेकिन मंशा कभी नहीं थकी, और वह सोई नहीं, बल्कि अपने शब्दों और विचारों की विरासत छोड़कर आने वाली पीढ़ियों के लिए रास्ता दिखा गई हैं।

उनका जीवन केवल कलम से नहीं, बल्कि कर्म से भी ओत-प्रोत रहा है। उनकी लेखनी आंदोलन की ज़मीन पर रचा गया एक दस्तावेज़ है। उन्होंने बहुत कुछ लिखा, मगर उनकी लेखनी, जो खड़िया भाषा और साहित्य की समृद्ध परंपरा को दर्शाती है, वह अजर-अमर है। उनकी अन्य कृतियों को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता, जैसे उनका शोध ग्रंथ – ‘खड़िया लोक कथाओं का साहित्यिक और सांस्कृतिक अध्ययन’। यह बौद्धिक हस्तक्षेप, जो खड़िया समाज की सांस्कृतिक जड़ों और लोक परंपराओं का विश्लेषण प्रस्तुत करता है, वह वास्तव में अतुलनीय है।

आज़ादी के बाद आदिवासी महिला लेखन की मज़बूत आवाज़ डॉ. रोज केरकेट्टा ने प्रेमचंद की कहानियों का खड़िया में अनुवाद किया, जिसका शीर्षक ‘प्रेमचंदाअ लुङकोय’ है। उनका यह तर्जुमा न केवल भाषायी समन्वय का एक सुंदर उदाहरण है, बल्कि यह एक साहित्यिक सेतु भी स्थापित करता है। उनकी अपनी कहानियां भी आदिवासी समाज के बारे में बहुत कुछ बयान करती हैं। ‘सिंकोय सुलोओ’, ‘पगहा जोरी-जोरी रे घाटो’, तथा ‘बिरुवार गमछा तथा अन्य कहानियां’ जैसे कहानी संग्रह सामाजिक यथार्थ और आदिवासी जीवन के विविध पक्षों को उजागर करते हैं। कविताएं और लोककथाओं पर आधारित किताबें ‘हेपड़ अवकडिञ बेर’ तथा ‘अबसिब मुरडअ’ खड़िया दर्शन की गहराई को अभिव्यक्त करती हैं।

‘जुझइर डांड़’ उनके महत्त्वपूर्ण नाटक संग्रहों में से एक है। वहीं, ‘सेंभो रो डकई’ जैसी लोकगाथा खड़िया लोकस्मृति को जीवंत करती है। ‘खड़िया विश्वास के मंत्र’ जैसी संपादित पुस्तकें धार्मिक और सांस्कृतिक विश्वासों को संजोए हुए हैं। इसके अतिरिक्त, ‘खड़िया गद्य-पद्य संग्रह’, ‘खड़िया निबंध संग्रह’, और ‘स्त्री महागाथा की महज एक पंक्ति’ जैसे निबंध संग्रह सामाजिक चेतना और विचारशीलता को सामने लाते हैं। जीवन चरित लेखन में ‘प्यारा मास्टर’ नामक जीवनी एक प्रेरणादायक दस्तावेज़ है, जो खड़िया समाज के एक विशिष्ट व्यक्तित्व की जीवनयात्रा को दर्शाती है।

रोज केरकेट्टा ने जन-जल-जंगल-ज़मीन की लूट पर आदिवासी स्त्री दृष्टिकोण से कटाक्ष करते हुए खुलकर और जमकर कलम चलाई है। अपने पिता, प्यारा केरकेट्टा की समाज सेवा की परंपरा को आगे बढ़ाने वाली यह काया आज भी हमारे लिए प्रेरणास्रोत है, जिन्होंने अपनी पीढ़ियों के रूप में आदिवासी समाज के लिए लेखक दिया। उनकी बेटी वंदना टेटे, दामाद अश्विनी कुमार पंकज और नाती अटूट संतोष सभी लेखन कर्म से जुड़े हुए हैं। वंचित समाज के प्रश्नों को सीमित संसाधनों के बावजूद वंदना टेटे-अश्विनी कुमार पंकज दंपत्ति ने बहुत आगे बढ़ाया है। 

डॉ. रोज केरकेट्टा (5 दिसंबर, 1940 – 17 अप्रैल, 2025)

आदिवासी साहित्य को समृद्ध करने में रोज़ केरकेट्टा उसी पौध की खेप रहीं, जो निरंतरता से आदिवासी समाज को साहित्यिक दिशा देने का काम करती रही है। ‘झारखंडी साहित्य अखड़ा’ और ‘प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन’ जैसे संगठन रोज़ केरकेट्टा की कर्मभूमि को बहुत स्पष्ट रूप से रेखांकित करते रहे हैं।

रांची विश्वविद्यालय का ‘जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग’ (टीआरएल), जो विभिन्न सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों की जननी रहा है, वहीं की वे रचनात्मक माली रही हैं। उन्होंने अपनी सेवाएं मात्र स्नातकोत्तर विद्यार्थियों को ही नहीं दीं, बल्कि बहुत सशक्त रूप से एक बौद्धिक-साहित्यिक फ़ौज को भी खड़ा किया है। टीआरएल में स्थित ‘सखुआ’ और ‘करम’ पेड़ की छांव में पले आंदोलनकारियों के बीच रोज़ केरकेट्टा ज्ञान की रोशनी बनकर रहीं।

रोज़ केरकेट्टा ने न केवल पितृसत्ता से सीधे टकराते हुए आदिवासी स्त्री के हक की बात की, बल्कि न्याय और समानता को अपने जीवन का मूल मंत्र बना लिया। वह सबके लिए बेहद आत्मीय थीं। हर उम्र के लोगों से वे बहुत सहजता से जुड़ती थीं। शोधार्थियों के लिए सहज उपलब्ध होना उनके व्यक्तित्व का हिस्सा रहा है। फ़ेसबुक में या मेल पर उनसे जवाब पाना, हम विद्यार्थियों के लिए किसी आशीर्वाद से कम नहीं होता था। दिल्ली में बैठकर भी हम अपने शोध विषयों को लेकर उनसे विचार-विमर्श कर पाते थे। मैंने जब भी फेसबुक पर उनके लेखन को लेकर उनसे मदद मांगी, वे हमेशा फोन पर उपलब्ध रहीं। मेरी मां, डॉ. शांति खलखो, उनकी शिष्या रही हैं – इस नाते भी वे मेरे लिए विशेष रूप से सम्माननीय रहीं। उनके कार्यक्षेत्रों को मां के ज़रिए जानने का मौक़ा हर बार मिला। और मैं उनके कार्यों के बारे में भौंचक्का होकर सोचती रही कि कोई इतना साहसी कैसे हो सकता है! क्या सब कुछ खोने का डर उनमें नहीं था?

क्या यूनिवर्सिटी में बैठा हुआ प्रोफेसर अन्याय के माहौल में ‘ऑब्जेक्टिविटी’ की आड़ में तटस्थ रह सकता है? 

डॉ. रोज केरकेट्टा की जीवनी हमें सिखाती है कि लेखक, बुद्धिजीवी या अकादमिक जगत का प्रोफेसर आग लगी दुनिया को अनदेखा नहीं कर सकता है, बल्कि उसे आग बुझाने और सामाजिक परिवर्तन के लिए सदैव प्रत्यनशील रहना चाहिए। डॉ. रोज केरकेट्टा ने कभी भी सत्ता-सुख पाने के लिए जनवादी आंदोलन को पीठ नहीं दिखाई, बल्कि उन्होंने मशाल-ए-राह उठाकर उसकी अगुआई की है। कई सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों में उनकी सक्रिय भागीदारी आज के झारखंड की नींव में गहराई तक समाई हुई है।

चाहे वह झारखंड राज्य का निर्माण हो, आदिवासी भाषाओं के पठन-पाठन का संघर्ष, या फिर आदिवासी महिलाओं के संपत्ति अधिकार का मुद्दा – हर मोर्चे पर उन्होंने अपनी उपस्थिति सजगता और प्रतिबद्धता के साथ दर्ज कराई। उनका जुड़ाव वामपंथी और आदिवासी संगठनों से निरंतर रहा।

डॉ. रोज केरकेट्टा से जुड़ा हुआ एक प्रसंग याद आता है। जब मैंने 2011 में जेएनयू में एम.फिल. की प्रवेश परीक्षा के दौरान उनके कहानी संग्रह ‘पगहा जोरी जोरी रे घाटो और आदिवासी स्त्री के सवाल’ पर आधारित ‘सिनॉप्सिस’ तैयार किया था, तब इंटरव्यू बोर्ड ने शीर्षक को देखकर उसे बांग्ला समझ लिया और मेरी बात को काटने की कोशिश की।

मैंने उन्हें समझाया कि यह हिंदी में लिखा गया कहानी संग्रह है और ‘पगहा जोरी जोरी रे घाटो’ एक झारखंडी संस्कृति की लोकोक्ति है। इंटरव्यू में बैठे प्रोफेसर साहब को हर बात में ‘हां’ कहने वाले छात्र बिल्कुल भी पसंद नहीं थे, और उन्होंने ग़ुस्से में आकर मेरे विषय को लेकर कहना शुरू किया – “हिंदी का इंटरव्यू बोर्ड है और तुम बांग्ला बोल रही हो। पहले तुम बांग्ला बोलना बंद करो।”

जब मैंने फिर से स्पष्ट किया कि यह हिंदी में आया हुआ कहानी संग्रह है, तब भी उन्होंने मेरी एक न सुनी और अपनी ज़िद पर अड़े रहे। उन्होंने अपने ‘ज्ञान’ और ‘मनसब’ का भय दिखाकर मुझे लगभग ख़ामोश कर दिया। इसी बीच वहां बैठे एक अन्य वरिष्ठ शिक्षक ने कहा, “यह हिंदी का ही कहानी संग्रह है।” तब जाकर नाराज़ प्रोफेसर महाशय थोड़ा शांत हुए।

यूनिवर्सिटी में जिस तरह से शिक्षक और छात्र के रिश्तों को महिमामंडित करके दिखाया जाता है, वैसा वास्तव में होता नहीं। शिक्षक विश्वविद्यालय के भीतर अपनी मनमानी चलाते हैं, और वंचित समुदाय के छात्रों पर उनका प्रकोप कुछ अधिक ही दिखता है। जेएनयू में झारखंड की एक महिला छात्रा को क्या-क्या झेलना पड़ता है, यह एक अलग लंबा किस्सा है, जिसे कभी और विस्तार से लिखूंगी।

मैं सिर्फ़ इतना कहना चाहूंगी कि उस दिन एक सीनियर के कहने पर मैं न चाहकर भी थोड़ा पीछे हटी और प्रोफेसर महाशय को अपनी बात समझाने की यथासंभव कोशिश की। शुक्र है कि बात ज़्यादा नहीं बिगड़ी और मेरा दाख़िला हो गया। मगर उसी घटना के बाद से हिंदी सेंटर में बैठे सवर्ण मानसिकता वाले प्रोफेसर की सोच जानकर मन को बहुत दुख हुआ।

कई बार सोचा कि हिंदी के जो प्रोफेसर हिंदी भाषा को ‘राष्ट्र भाषा’ कहने की जानबूझकर गलती करते हैं, वे स्वयं राष्ट्र की विविधता और उसके वंचित समाज को लेकर कितने अज्ञानी और पूर्वाग्रही हैं। यह घटना इस बात की ओर भी इशारा करती है कि मुख्यधारा का हिंदी साहित्य आदिवासी समाज के प्रति उपेक्षा का भाव रखता है। वह न तो आदिवासी समाज की भाषा-संस्कृति को समझना चाहता है, न ही उनके प्रकृति-संबंधी गहरे जुड़ाव को स्वीकार करता है। वह आदिवासियों के चर-अचर के साथ उनके सहज संबंधों को समझने से कतराता है। जब जेएनयू के भाषा, साहित्य और संस्कृति अध्ययन स्कूल के अंतर्गत आने वाले भारतीय भाषा केंद्र की यह स्थिति है, तो देश के अन्य विश्वविद्यालयों की हालत का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।

एक और क़िस्सा उस दौर का है जब आदिवासी विषय पर केंद्रित एक उपन्यास काफ़ी चर्चा में था। जेएनयू में भी उस किताब पर विमर्श चल रहा था। उसी दौरान उस किताब पर परिचर्चा का आयोजन छात्रों ने किया, जिनमें मैं भी शामिल थी। चर्चित किताब के लेखक को परिचर्चा में भाग लेने के लिए मना लिया गया। सब कुछ ठीक चल रहा था। हिंदी सेंटर के सभी प्रोफेसरों को आमंत्रित किया गया था। मगर ज़्यादातर प्रोफेसरों ने हमें निराश किया और आख़िरी वक़्त पर न आने का बहाना बना दिया।

सिर्फ़ एक प्रोफेसर ज़रूर पधारे, लेकिन वह न तो कार्यक्रम को सुनने की इच्छा से आए थे, न ही कुछ जानने की जिज्ञासा लेकर। हिंदी सिनेमा में जिस तरह पुलिस पर्दा गिरने से कुछ पल पहले आती है, उसी तरह वे आए – और कुछ ऐसी बातें कहीं जिनका डंक आज भी दर्द के साथ महसूस होता है।

जेएनयू के उस विद्वान प्रोफेसर की ‘संजीदगी’ का आलम यह था कि वे न चर्चा में शामिल थे, न उन्होंने उपन्यास पढ़ा था। फिर भी टिप्पणी करने से पीछे नहीं हटे। उन्होंने झारखंड के विद्यार्थियों को जेएनयू में देखकर एक लंबा-चौड़ा प्रवचन दे दिया। उनके शब्दों से पूर्वाग्रह की दुर्गंध ऐसी महसूस हुई जैसे कोई बिना मुंह धोए बहुत पास से बात कर रहा हो। उन्हें झारखंड के छात्रों, ख़ासकर आदिवासी समुदाय के बच्चों में कोई भी सकारात्मकता नज़र नहीं आई। वे वही बातें दोहरा रहे थे जो उपनिवेशवादी या उत्तर-उपनिवेशवादी ‘दिकु’ लेखकों की लेखनी में दिखती हैं। आदिवासी समाज के छात्र उन्हें निकम्मे लगे, जो सरकार के वज़ीफ़े पर ‘मस्ती’ करते हैं।

उस सवर्ण प्रोफेसर ने यहां तक कहा कि झारखंड के विद्यार्थी वज़ीफ़े से बुलेट मोटरसाइकिल चलाते हैं, शराब पीते हैं, और फ्री में रहते हैं। उनका ‘कंसर्न’ यह था कि इन बिगड़े हुए बच्चों को सुधारा जाना चाहिए, और इस दिशा में आदिवासी विमर्श तथा उपन्यासकार कुछ ‘जागरूकता’ लाने का प्रयास करें। उनकी बड़ी-बड़ी दो आंखें जल, जंगल और ज़मीन की लूट को देखने के लिए तैयार नहीं थीं। वे यह भी स्वीकार करने को राज़ी नहीं थे कि कैसे आदिवासी इलाकों में गैर-आदिवासी आबादी के लिए शहर बसाए जा रहे हैं – और उस प्रक्रिया में आदिवासियों के घर और उनकी ज़मीनें लूटी जा रही हैं, ताकि वहां बड़ी-बड़ी इमारतें बनाई जा सकें।

यह सब देखकर मैं अंदर ही अंदर बहुत दुखी और आक्रोशित हो रही थी। मगर एक तरह की विवशता भी मुझे बांधे हुए थी। आयोजन की ज़िम्मेदारी मेरी ही थी और जलसे में आमंत्रित अतिथि ही आदिवासी समाज का अपमान कर रहा था। हालांकि वह दौर मेरे लिए जेएनयू में बहुत नया था और उस दिन मैं अपना एमए पूरा कर रही थी। मैं खून का घूंट पीकर रह गई और बेहूदगी से भरी इस टिप्पणी पर कोई जवाब नहीं दिया।

इन सबका ज़िक्र करने के पीछे यही मक़सद है कि यह बात वंचित समाज को समझ आनी चाहिए कि शिक्षा के क्षेत्र में हमें बहुत काम करने की ज़रूरत है। हमें हिंदी और अन्य विभागों में एक नहीं, हज़ार रोज केरकेट्टा की ज़रूरत है। हालांकि यह कहने पर हमारे कुछ प्रगतिशील दोस्त नाराज़ हो जाते हैं, मगर यह एक हद तक सच है कि सवर्ण समाज के ज़्यादातर प्रोफेसर आदिवासी प्रश्न को या तो एक ‘सुधारक’ के तौर पर देखते हैं या फिर अपने भीतर आदिवासी समाज को लेकर गहरे पूर्वाग्रह छिपाए होते हैं।

ज़्यादातर गैर-आदिवासी प्रोफेसर आदिवासियत को समझने के लिए केवल सवर्णवादी लेंस का सहारा लेते हैं और हमें ज्ञान देने से कभी नहीं थकते। उन्होंने कभी भी हमें सुनने या समझने की संजीदा कोशिश नहीं की है। इन बातों का उल्लेख करने के पीछे सिर्फ़ यही मंशा है कि हमें रोज केरकेट्टा और अन्य प्रोफेसरों के अंतर को समझना होगा। आदिवासी छात्रों के साथ जिस प्रकार विश्वविद्यालयों में हर रोज़ ‘हाथ का अंगूठा’ काटा जा रहा है, उस पर बात करना साहित्य का एक प्रमुख उद्देश्य होना चाहिए।

शैक्षणिक संस्थान किस तरह से वंचित समाज के साथ भेदभाव और अन्याय करते हैं, ऐसी बहुत-सी बातें दलित साहित्य की आत्मकथात्मक लेखनी में आई हैं और आ रही हैं। आदिवासी लेखकों को भी चाहिए कि वे शैक्षणिक संस्थानों के अपने अनुभवों को कलमबद्ध करें और उन्हें दुनिया के सामने लाए। शायद रोज केरकेट्टा को श्रद्धांजलि देने का यह एक बेहतरीन तरीक़ा हो सकता है। वजह यह कि डॉ. रोज केरकेट्टा इन सभी बाहरी और भीतरी आघातों के बीच भी अपनी कलम को कभी झुकाए बिना थामे रहीं। उनका सबसे बड़ा योगदान यही है कि वे वंचित समाज की सशक्त आवाज़ बनीं। उन्होंने न तो कभी वंचितों की अस्मिता को छिपाया, न ही उससे किनारा किया, बल्कि उसे जिया, और पूरे स्वाभिमान के साथ सामने रखा। उनके पढ़ाए हुए छात्र स्वयं इस बात की गवाही देते हैं कि उन्होंने कभी किसी पर अपनी बात नहीं थोपी। वे सुनने को अधिक महत्व देती थीं।

उनके भीतर सवर्ण समाज के ज़्यादातर प्रोफेसरों की तरह ‘सभ्य बनाने’ या ‘सुधारने’ की मानसिकता नहीं थी। वे केवल एक शिक्षिका नहीं, बल्कि एक पीढ़ी की प्रतिनिधि स्वर बनकर हमारे बीच उपस्थित रहीं। उन्होंने न्याय की मांग की। अपने समाज, सत्ता, और संपूर्ण मानवता से लगातार सवाल पूछे।

डॉ. रोज केरकेट्टा एक मशाल थीं, और रहेंगी। आदिवासी महिलाओं के अधिकारों को लेकर जो संजीदगी उन्होंने दिखाई – विशेष रूप से आर्थिक न्याय के सवाल पर – वह आने वाली पीढ़ियों के लिए एक उलगुलान की तरह प्रेरणा बनकर जीवित रहेगी। उनकी पक्षधरता, उनकी जीवन दृष्टि, यह सब आदिवासी महिला आंदोलन को नई दिशा देगा। 

उन्हें अंतिम जोहार!

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)

लेखक के बारे में

नीतिशा खलखो

लेखिका बी.एस.के. कॉलेज, मैथन (झारखंड) में हिंदी विभाग की अध्यक्ष हैं।

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