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त्रिवेणी संघ के एजेंडे आज सेंटर स्टेज में हैं : महेंद्र सुमन

2005 में जब बिहार में नीतीश कुमार की जीत हुई थी तो ‘सामाजिक न्याय की मृत्यु’ विषयक लेख लिखे जाने लगे थे कि यह सामाजिक न्याय पर विकास की जीत है। लेकिन 2025 में आज आप और हम क्या देख रहे हैं। पढ़ें, ‘सबाल्टर्न’ पत्रिका के प्रधान संपादक महेंद्र सुमन से यह संक्षिप्त बातचीत

बिहार में संगठित स्वरूप में सामाजिक न्याय के आंदोलन की शुरुआत 30 मई, 1933 से मानी जाती है। इस दिन त्रिवेणी संघ की स्थापना हुई थी। हालांकि यह संगठन केवल नौ वर्षों तक अस्तित्व में रहा। लेकिन इससे जनित आंदोलन का प्रभाव आज भी है। इसी संबंध में लंबे समय तक वामपंथी आंदोलन से सक्रिय रूप से जुड़े रहे व वर्तमान में बहुजन सामाजिक कार्यकर्ता व ‘सबाल्टर्न’ पत्रिका के प्रधान संपादक महेंद्र सुमन से फारवर्ड प्रेस ने बातचीत की।

भारतीय समाजशास्त्रीय इतिहास में त्रिवेणी संघ की भूमिका को आप कैसे देखते हैं? 

बिहार में पिछली सदी के तीसरे दशक (1930) में त्रिवेणी संघ का मूवमेंट हुआ। यह पिछड़ों का पहला संगठित आंदोलन था। या हम चाहें तो इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि यह बिहार में पिछड़ों के संगठित आंदोलन का सूत्रपात है। उसके पहले यदि आप जाएंगे तो देखिएगा कि कई जातियों के अलग संगठन अस्तित्व में थे। पिछड़ी जातियों के जातिगत संगठनों से पहले वहां कायस्थों, ब्राह्मणों और भूमिहारों की जातिगत संगठन थे। यह तो पिछले सदी के दूसरे दशक के पहले की बात थी। हां, दूसरे दशक में यह जरूर हुआ कि पिछड़ी जातियों में खासकर कुर्मी समाज का संगठन कुर्मी क्षत्रिय सभा के रूप में सामने आया। कुर्मी समाज इतना जागरूक था कि उसने 1930 में ही पटना विश्वविद्यालय में अध्ययन करने वाले कुर्मी जाति के छात्रों के लिए छात्रावास का निर्माण कराया था। इसे पटेल छात्रावास के नाम से जाना जाता है। आप इसको ऐसे भी समझिए कि सामाजिक आंदोलन के दौर में जो शुरुआती पहल होती है वह उस समाज का थोड़ा बढ़ा तबका ही करता है।

जैसे बिहार के परिप्रेक्ष्य में हम बात कर रहे हैं। त्रिवेणी संघ बिहार में ही था। उसका विस्तार बिहार के मगध से लेकर पूर्वी बिहार और उसमें भागलपुर वाले इलाके तक था। हम यह भी देखते हैं कि पिछली सदी के आरंभिक दशकों में स्वतंत्रता आंदोलन में कौन शामिल थे। या फिर 1912 में जो बंगाल प्रेसीडेंसी से अलग होकर बिहार पृथक राज्य के रूप में अस्तित्व में आया, उसके पीछे कौन लोग थे। वे भूमिहार, ब्राह्मण और राजपूत जैसी ऊंची जातियों के लोग नहीं थे। इस आंदोलन में तो कायस्थ, मुसलमान और बिहारी-बंगाली लोग थे। पूरे स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान बिहार कांग्रेस में कायस्थों का प्रभुत्व था। ये सब बातें लोग पहले से जानते हैं। इसलिए इसके विस्तार में नहीं जाते हैं। लेकिन आप देखिए कि बिहार में जो कम्युनिस्ट आंदोलन हुआ, उसे भूमिहारों ने शुरू किया। इसलिए आज भी बिहार में जो कम्युनिस्ट पार्टियां हैं, उनमें भूमिहारों का वर्चस्व दिखता है।

यदि हम शुरुआती दौर की बात करें तो जाहिर सी बात है कि पिछड़ों में जो अपेक्षाकृत विकसित तबका है, वही आंदोलन का नेतृत्व करेगा। इसलिए कुर्मी, कोइरी, यादव त्रिवेणी संघ में आगे आए। आप देखिएगा कि त्रिवेणी संघ में कई बड़े नेता हुए, जो विचारक भी थे। आप ‘त्रिवेणी संघ का बिगुल’ देखिए, जो कि इस पूरे आंदोलन की वैचारिकता को हमारे सामने लाता है। इसके रचयिता चौधरी जे.एन.पी. मेहता थे, जो त्रिवेणी संघ के गठन से पहले गोप सभा के कार्यकर्ता थे। क्योंकि उस दौर में पिछड़ों का कोई और संगठन था ही नहीं। यह कोई ऐसी बात नहीं है कि गोप सभा में केवल यादव जाति के लोग ही होंगे।

महेंद्र सुमन, प्रधान संपादक, ‘सबाल्टर्न’

त्रिवेणी संघ के नेताओं को यदि आप देखेंगे तो पाएंगे कि उनमें कांग्रेस से, राष्ट्रीय आंदोलन से और गांधीजी के प्रति कोई दुर्भाव या कोई अलगाव नहीं था। उनका सिर्फ यह कहना था कि हम बहुसंख्यक हैं, लेकिन आपके यहां हमारी कोई हिस्सेदारी नहीं है। सामाजिक न्याय का एक मतलब हिस्सेदारी और सत्ता भी है। इसलिए आप देखिएगा कि उनका डिमांड ही है कि जिला बोर्ड व असेंबली आदि में उनका प्रतिनिधित्व हो। उस समय उन्हें कई तरह से ऊंची जातियों के द्वारा हतोत्साहित भी किया जाता था। कहा जाता था कि तुम यादव जाति या अहीर होकर टिकट मांग रहे हो। अब अहीर चुनाव लड़ेगा? इस तरह से उनका अपमान भी होता था। फिर उनका जनेऊ आंदोलन भी चला। उसकी तो बहुत बढ़िया व्याख्या की है प्रसन्न कुमार चौधरी और श्रीकांत ने अपनी किताब ‘बिहार में सामाजिक परिवर्तन के विभिन्न आयाम में’। आज के दौर में लग सकता है कि जनेऊ आंदोलन हिंदू धर्म या ब्राह्मणवाद की अनुसरण करने वाला आंदोलन था, क्योंकि पिछड़े वर्ग के लोग जनेऊ पर दावा ठोक रहे थे, खुद को क्षत्रिय कह रहे थे।

लेकिन जब आप इसकी गहराई में जाएंगे तो पाएंगे कि शूद्रों को ब्राह्मणवादी वर्ण-व्यवस्था ने ज्ञान और धन से वंचित रखा। उस समय शूद्रों द्वारा जनेऊ धारण करना एक सांकेतिक विद्रोह था कि यदि आप जनेऊ पहन लेते हैं तो क्षत्रियत्व का दावा कर लेते हैं। आप दावा कर लेते हैं तो ज्ञान और धन पर आपका अधिकार स्वत: ही हो जाएगा। आप देखिए कि जोतीराव फुले से लेकर डॉ. आंबेडकर, पेरियार और त्रिवेणी संघ के संस्थापकों तक ने शिक्षा पर काफी जोर दिया। वे शूद्रों की चेतना पर जोर देते हैं। ज्ञान के बाद वे धन की बात करते हैं। ‘त्रिवेणी संघ का बिगुल’, जिसकी रचना जे.एन.पी. मेहता ने की, में वह लिखते हैं कि धन कमाओ, धनी बनो, ज्ञानी बनो। ऐसे ही दक्षिण के एक संत तिरुवल्लुवर ने भी कहा कि धन कमाओ, धनी बनो। चीन में देंग जियाओपिंग 1979 में यही बात कहते हैं। वे कहते हैं कि समाजवाद में गरीबी नहीं है। धनी बनो। आप देखिए कि यही बात 1930 के दशक में ‘त्रिवेणी संघ का बिगुल’ में हमारे नेता बोल रहे थे।

यह भी पढ़ें – त्रिवेणी संघ : पृष्ठभूमि, परिप्रेक्ष्य और वर्तमान

सामाजिक न्याय का जो संघर्ष है, वह ज्ञान और धन पर अपना दखल करना है। उसपर अपना दावा ठोकना है। त्रिवेणी संघ का जो आंदोलन था, इसको बड़े पावरफुल ढंग से लागू करता था। अभी थोड़ी ही देर पहले एक मित्र भुवनेश्वर जी से चर्चा कर रहा था कि भाजपा की पकड़ बिहार के मगध और शाहाबाद वाले एरिया में बहुत अच्छी नहीं है जैसा कि उत्तर और पश्चिम बिहार में है। इसका कारण यह है कि यहां पर त्रिवेणी संघ का आंदोलन रहा है। यहां पर सोशलिस्ट मूवमेंट हुए। यह इलाका नक्सल मूवमेंट का भी गढ़ रहा। यह बाबू जगदेव प्रसाद और अर्जक संघ वगैरह का क्षेत्र रहा तो इन कारणों से शाहाबाद और मगध के जनता की जो चेतना की निर्मिति हुई है वह पिछले सौ साल में हुई है। कल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जनसभा के लिए बिक्रमगंज आ रहे हैं, जो कि शाहाबाद की हृदयस्थली है। इसलिए कि वह सच जानते हैं।

हिंदी पट्टी में हम पाते हैं कि त्रिवेणी संघ पहला संगठन रहा, जिसने प्रतिनिधित्व का सवाल उठाया। क्या आपको लगता है कि डॉ. लोहिया ने जो ‘पिछड़ा पावे सौ में साठ’ का नारा दिया था, और आज राहुल गांधी जो सामाजिक न्याय के तहत समुचित भागीदारी देने की बात कह रहे हैं, दोनों के केंद्र में त्रिवेणी संघ है?

मेरी जेहन में यह शुरू में आ रहा था। अच्छा हुआ कि आपने यह प्रश्न कर दिया। आप देखिए कि राहुल गांधी बिहार में आ रहे हैं या वे जहां भी जा रहे हैं तो जातिगत जनगणना की बात बोल रहे हैं, आरक्षण के दायरा को बढ़ाने की बात बोल रहे हैं। वे प्रतिनिधित्व के सवाल को उठा रहे हैं। जाति को खत्म करने की बात बोल रहे हैं। निजी क्षेत्र में आरक्षण की बात बोल रहे हैं। मैं आपको बताऊं कि बिहार में प्रशांत किशोर, जो जनसुराज कैंपेन चला रहे हैं, उसके तीन डिमांड हैं। आप देखिए कि उसका पहला डिमांड क्या है। पहला डिमांड है– जातिगत जनगणना और बिहार में जो 65 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया, उसको नौवीं अनुसूची में डालना। बाकी और सब डिमांड की चर्चा नहीं करेंगे। भाजपा ने भी जातिगत जनगणना की घोषणा कर दी। लेफ्ट भी उसी अंदाज में बोल रहा है या कहिए कि ज्यादा ही बोल रहा है। सब सामाजिक न्याय की बात कर रहे हैं। 2010 के पहले तो वामपंथी भी यह सब नहीं बोलते थे। ये लोग डॉ. आंबेडकर की जयंती भी नहीं मनाते थे। मनाते भी थे तो उनके महिला संगठन या छात्र संगठन। लेकिन अब वामपंथी भी बड़े जोर-शोर से मनाते हैं, सामाजिक न्याय की बात करते हैं। तो कहने का मतलब यह है कि जातिगत जनगणना, आरक्षण के दायरे को बढ़ाना, निजी क्षेत्र में आरक्षण – ये सब सामाजिक न्याय के बहुत लंबे समय से विलंबित एजेंडे हैं। इन सभी बातों को सबसे पहले बिहार में त्रिवेणी संघ ने उठाया। बिहार में ही मुंगेरीलाल कमीशन की रिपोर्ट (1978) देखिए। ये सारी मांगें और मुद्दे आपको वहां मिलेंगे। आप मंडल कमीशन की रिपोर्ट देख लीजिए। मतलब यह कि त्रिवेणी संघ की बातों को सभी लगातार उठाते रहे हैं।

आपको बताऊं कि 2005 में जब बिहार में नीतीश कुमार की जीत हुई थी तो ‘सामाजिक न्याय की मृत्यु’ विषयक लेख लिखे जाने लगे थे कि यह सामाजिक न्याय पर विकास की जीत है। लेकिन 2025 में आज आप और हम क्या देख रहे हैं। सामाजिक न्याय का चिर लंबित एजेंडा सेंटर स्टेज पर आ गया है। मैं फिर दुहरा रहा हूं कि यह बहुत लंबित एजेंडा है। आज से करीब नब्बे साल पहले त्रिवेणी संघ के लोगों ने उठाया था।

(संपादन : समीक्षा/राजन/अनिल)


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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