हाल में मैंने अनंत महादेवन द्वारा निर्मित हिंदी फिल्म ‘फुले’ हैदराबाद के एक मॉल के मल्टीप्लेक्स में देखी। इस तरह के आधुनिक थिएटर में मैं पहली बार गया था। मेरे साथ फुले के करीब 20 प्रशंसक भी थे। उनमें वकील, डॉक्टर और एक तेलुगू फिल्म निर्देशक भी शामिल थे। मैं सामान्यतः तब तक कोई फिल्म नहीं देखता जब तक कि वह किसी ऐतिहासिक घटनाक्रम का चित्रण न करती हो। मैंने केवल उन्हीं लोगों के जीवन पर आधारित फिल्में देखी हैं जो समाज में आमूलचूल परिवर्तन के वाहक थे। मैंने इंग्लैंड में विलियम विल्बर्फोर्स के जीवन पर आधारित फिल्म ‘अमेजिंग ग्रेस’ देखी है। मैंने रिचर्ड एटेनबरो की ‘गांधी’ देखी है। और सन् 2000 में मैंने जब्बार पटेल द्वारा निर्देशित ‘डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर’ भी देखी थी।
इनमें से अन्यों की अपेक्षा, ‘फुले’ फिल्म ‘अमेजिंग ग्रेस’ से ज्यादा मेल खाती है। दोनों ही फिल्में गुलामों के मुक्तिदाताओं की ज़िंदगी और संघर्ष की कहानियां कहती हैं।
‘अमेजिंग ग्रेस’ ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा गुलामों की तिजारत पर रोक लगाने के लिए चलाये गए अभियान के नेता विलियम विल्बर्फोर्स (1753-1833) के जीवन पर आधारित है। विल्बर्फोर्स ने गुलाम प्रथा का निषेध करने वाले विधेयक को ब्रिटिश संसद में पारित करवाने में महती भूमिका अदा की थी। उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के गुलामों के व्यापारियों और मालिकों के खिलाफ लड़ाई लड़ी और ब्रिटिश संसद को गुलामों के व्यापार को प्रतिबंधित करने पर मजबूर किया।
यह मानव इतिहास में गुलामों के व्यापार का निषेध करने वाला पहला कानून था।
एक दंपत्ति का अंतहीन संघर्ष
शूद्रों और दलितों की गुलामी के खिलाफ फुले दंपत्ति का संघर्ष 1848 से शुरू हुआ। ‘फुले’ फिल्म चिंतकों, लेखकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को अवश्य देखनी चाहिए। यह फिल्म सिद्धांत और व्यवहार दोनों का चित्रण करती है। यह फुले दंपत्ति का अहिंसक ज़मीनी संघर्ष तो दिखाती ही है, यह सिद्धांत भी प्रतिपादित करती है कि शिक्षा – जिससे सदियों से शूद्र किसानों, अछूतों और महिलाओं को महरूम रखा गया – उनके लिए मुक्तिदायिनी है।
अपने विवाह के पूर्व भी फुले एक साहसी किशोर थे। मगर सावित्रीबाई पटेल (विवाह के बाद सावित्रीबाई फुले) से शादी के बाद तो वे क्रांतिकारी बन गए। सावित्रीबाई, जो तब केवल नौ साल की थीं, में जानने-सीखने और पढ़ने की ललक थी। वह भी बचपन से ही आम लड़कियों से अलग थीं। वह पढ़ना चाहती थीं और अपने पिता के जातिवादी रवैये के सख्त खिलाफ थीं। उन्होंने जोतिबा में भारत की महिलाओं को शिक्षित करने संकल्प की जोत जलाई। वे शुरू से ही जोतिबा के संघर्ष में शामिल होने के लिए तत्पर थीं।
महत्वपूर्ण मोड़
यह फिल्म फुले के स्कूल के साथी की टीम और सावित्रीबाई, फातिमा शेख और फातिमा के भाई उस्मान शेख की संयुक्त चेतना को बहुत अच्छी तरह से पकड़ती है। वे सभी शूद्र/दलित समाज को ब्राह्मणवाद-पोषित अंधविश्वासों के चंगुल से निकालना चाहते हैं।
फिल्म का एक अद्भुत दृश्य, सोचने के तरीके में क्रांतिकारी परिवर्तन को दर्शाता है। सन् 1857 की लड़ाई के बाद पूना के ब्राह्मण शूद्र बस्तियों में डोंडी पिटवाकर उनका आह्वान करते हैं कि अंग्रेजों से लड़ने के लिए वे व्यायामशालाओं में जाना शुरू करें ताकि वे अपने शरीर को मज़बूत बना सकें और लड़ने की विधा में माहिर हो सकें। मगर इसके साथ-साथ वे शूद्रों को शिक्षा तक पहुंच देने की खिलाफत भी करते हैं। एक शूद्र पहलवान अपनी व्यायामशाला में युवकों को अलग-अलग तरह के दावपेंच और कसरतें सिखाता है। वह उन्हें वेटलिफ्टिंग सिखाता है, लाठियां भांजना सिखाता है, और लड़ना भी। जोतीराव उस पहलवान से मिलने जाते हैं। वे उससे पूछते हैं, “तुम इन लोगों को यह सब क्यों सिखा रहे हो?” पहलवान का जवाब है, “अगर हमारे युवक ये कलाएं सीख जाएंगे तो वे अंग्रेजों से लड़ सकेंगे।” फुले उससे कहते हैं कि “इसकी जगह हमें उन्हें पढ़ना-लिखना सिखाना चाहिए क्योंकि इससे वे अंग्रेजों से बेहतर ढंग से लड़ सकेंगे।” मगर पहलवान सहमत नहीं है। वह कहता है, “नहीं, वह तो पाप होगा। अगर हम पढ़ना-लिखना सीखेंगे तो वह धर्मविरुद्ध होगा।” फुले उसे समझाते हैं कि ऐसा कोई धार्मिक नियम नहीं है।

फुले और शूद्र राष्ट्रवाद
शूद्रों और दलितों से अपेक्षा यह थी कि वे अंग्रेजों से शारीरिक युद्ध करें, बौद्धिक नहीं। मगर अंग्रेजों का भारत पर राज यदि कायम था तो उसके पीछे उनकी फौजी ताकत कम थी और दिमागी ताकत ज्यादा। फुले पहलवान को यही समझाना चाहते थे कि जब तक शूद्र और दलित और ब्राह्मणों सहित सभी जातियों की महिलाएं शिक्षित नहीं होंगी तब तक अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में सफलता नहीं मिलेगी। मगर पहलवान का दिमाग तो दासता की जंजीरों में कैद था। वह बात समझने की बजाय फुले की पिटाई लगा देता है।
एक अन्य दृश्य में ब्राह्मणों का एक हुजूम फुले दंपत्ति के स्कूल में घुस जाता है, फुले को पीटता है और फर्नीचर तोड़ देता है। सावित्री डरी-सहमी बच्चियों को एक कमरे में बंद कर उन्हें हमलावरों से बचाती हैं। फिर वे फुले की चोटों की मरहम-पट्टी करती हैं। फुले उनसे कहते हैं कि उन्हें युद्ध ही नहीं बल्कि एक महायुद्ध के लिए तैयार रहना चाहिए। फुले दंपत्ति की जान पर हमेशा खतरा मंडराता रहता है। लेकिन वे अपनी लड़ाई बंद नहीं करते।
किराए के दो गुंडों को ब्राह्मण सौ रुपए देकर फुले की हत्या करने के लिए भेजते हैं। मगर फुले भाड़े के हत्यारों का दिल जीत लेते हैं और कहते हैं, “चलो कम से उन लोगों ने मुझ पर सौ रुपए तो खर्च किए।”
फुले की सोच यह थी कि किसानों को शिक्षित किया जाए ताकि खाद्यान्न का उत्पादन बढ़ सके। दलितों को शिक्षित किया जाए ताकि वे समग्र समाज का हिस्सा बन सकें, चमड़े के काम में बेहतर तकनीकी का इस्तेमाल कर सकें और बेहतर सेवाएं उपलब्ध करवा सकें। उनका क्रांतिकारी सुधार आंदोलन ही भारत को अंग्रेजों को हमेशा के लिए पराजित करने में सक्षम बनाता।
दूसरी ओर, ब्राह्मण पंडितों को लगता था कि अंग्रेजों के देश से जाने के बाद, वे सत्ता में आ सकेंगे और इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि भारत के लोग और यहां वस्तुओं और माल के उत्पादन और वितरण की व्यवस्था कितनी ही पिछड़ी बनी रहे। जब कुछ पंडित सावित्री से बहस करते हैं तो वे उनसे कहती हैं, “तुम हम पर ठीक उसी तरह राज करना चाहते हो जिस तरह अंग्रेज़ कर रहे हैं।” उस समय के ब्राह्मण केवल स्व-हित में काम कर रहे थे, देशहित में नहीं। जबकि फुले दंपत्ति समग्र और व्यापक देश हित में काम कर रहे थे।
फिल्म में आगे फुले एक खेत में लड़कियों के लिए स्कूल खोलते हैं। मगर पूना में इतना आतंक फैला दिया गया है कि किसी अभिवावक की यह हिम्मत ही नहीं पड़ती कि वो अपनी बच्चियों को स्कूल भेजे। फिर हम देखते हैं कि वही पहलवान बहुत-सी बच्चियों के साथ आता है और उनका स्कूल में दाखिला करवाता है। और इसके बाद से वह फुले दंपत्ति के हर संघर्ष में उनका साथ देता है।
फुले दंपत्ति शूद्रों, दलितों और महिलाओं को शिक्षित करने का अपना क्रांतिकारी अभियान पूर्णतः अहिंसक तरीके से चलाते हैं। फिल्म में दिखाया गया है कि फुले दंपत्ति के खिलाफ हिंसा होती है लेकिन वे अपने आंदोलन को अहिंसक बनाए रखते हैं। केवल एक घटना इसका अपवाद है। जब लड़कियों की शिक्षा के विरोधी कुछ शूद्र कार्यकर्ता सावित्री और फातिमा को धमकाने आते हैं तो सावित्री उनमें से एक को तमाचा जड़ देती है। सावित्री की भूमिका में पत्रलेखा ने एक कलाकार के रूप में अपनी प्रतिभा का भरपूर परिचय दिया है।
पीढ़ी-दर-पीढ़ी, सदी-दर-सदी शूद्रों और दलितों के दिमाग में यह भरा गया कि उनके लिए शिक्षा हासिल करना पाप है। इस तरह उन्हें खुद ही खुद को प्रताड़ित करने पर मजबूर किया गया। जब भी उन्हें ‘पाप’ और अगले जन्म में सुअर या कुत्ता बनने के डर से मुक्त करवाने का प्रयास हुआ, ऐसा करने वालों पर चौतरफा हिंसक हमले हुए। फुले दंपत्ति का जीवन भारतीय इतिहास के इस पक्ष का जीवंत उदाहरण है।
फुले ने अपनी बालिका वधु सावित्री को पढ़ाया। सावित्री ने ब्राह्मणवादी समाज द्वारा थोपे गए निषेधों का अस्वीकार किया। फुले ने अपने पिता और बड़े भाई का विरोध किया। विरोध का मुकाबला करते हुए वे अपने आंदोलन को और विस्तार देते गए। यह एक अहिंसक क्रांति थी। दुनिया में ऐसा कोई दूसरा दंपत्ति नहीं है जिसने अपने असभ्य समाज को बदलने में इतनी इंकलाबी भूमिका निभाई हो।
विलियम विल्बर्फोर्स एक शिक्षित वर्ग से मुकाबिल थे। वे गुलामों का व्यापार करने वालों से तर्क कर सकते थे। उनका उद्देश्य 19वीं सदी के शुरुआत के इंग्लैंड में गुलामों के व्यापार के उन्मूलन के लिए कानून बनवाना था। मगर फुले दंपत्ति की लड़ाई इससे बहुत कठिन थी। इस दृढ़ निश्चयी दंपत्ति ने ब्राह्मणों सहित सभी भारतीयों – जो अंधविश्वासों के दलदल में गहरे तक धंसे हुए थे – की सामूहिक मुक्ति के लिए एक दर्शन विकसित किया। वे भारत का भविष्य बनाना चाहते थे। उन्होंने पूरी हिम्मत से संघर्ष किया। उनका मुकाबला ऐसी गुलामी से था – ऐसे सिद्धांतों और आचरण से था – जो व्यवस्था का हिस्सा थे। मानव इतिहास में किसी दूसरे दंपत्ति ने परिवर्तन के लिए ऐसी क्रांतिकारी ललक नहीं दिखाई। और वह भी भारत जैसे एक ठहरे हुए समाज में।
फिल्म देखते समय मैं या तो आंसू बहा रहा था या फुले दंपत्ति की हर जीत पर तालियां बजा रहा था। किसी और फिल्म ने मेरे जीवन और मेरे अंतःकरण पर इतना गहरा प्रभाव नहीं डाला है जितना कि ‘फुले’ ने।
अंत में, फिल्म के निर्माताओं से मेरी एक ही शिकायत है। फ़िल्म के शीर्षक में केवल जोतीराव क्यों? शीर्षक में सावित्रीबाई का नाम भी शामिल कर फ़िल्म का शीर्षक ‘फुले’ की बजाय ‘फुलेज़’ होना चाहिए था।
(यह समीक्षा पूर्व में अंग्रेजी में न्यूजक्लिक वेबपोर्टल पर प्रकाशित है। यहां इसका हिंदी अनुवाद लेखक की सहमति से प्रकाशित है। अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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