बीते 22 मई, 2025 को लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी दिल्ली विश्वविद्यालय आए। मैं वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रही हूं। राहुल गांधी ने दिल्ली विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों और शोधार्थियों से बातचीत की, उनमें मैं भी शामिल रही। बातचीत का विषय ‘जातिगत-जनगणना एवं नई शिक्षा नीति’ था। हमें इस विषय की जानकारी थी लेकिन इसकी सूचना नहीं थी कि यह बातचीत कब होगी। राहुल गांधी कब आएंगे। यह संभवत: सुरक्षा व्यवस्था के कारण हुआ।
खैर बातचीत सुबह करीब दस बजे सुबह प्रारंभ हुई थी। राहुल गांधी नीले रंग का टी-शर्ट पहनकर दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संगठन (डूसू) के ऑफिस आए। उन्होंने स्नेहपूर्वक हम सभी से हाथ मिलाया। राहुल गांधी से मिलने की ख़ुशी हम सभी छात्रों के चेहरे पर दिख रही थी। चूंकि बातचीत के केंद्र में जातिगत जनगणना का सवाल था, इसलिए इसमें मुख्य रूप से ओबीसी, एससी और एसटी समुदायों के छात्र आमंत्रित थे।
बातचीत के दौरान हम सभी छात्रों ने अपनी-अपनी समस्याओं को राहुल गांधी के साथ साझा किया। शुरुआत डूसू के अध्यक्ष रौनक खत्री ने की। उन्होंने कहा कि दिल्ली विश्वविद्यालय में मात्र 2 प्रतिशत ही अनुसूचित जाति और पिछड़ा वर्ग के प्रोफेसर, विभागाध्यक्ष और प्राध्यापक हैं। इसका मुख्य कारण है– नॉट फाऊंड सूटेबिल (एनएफएस)।
एक दलित छात्र ने राहुल गांधी से अपनी समस्या बताई कि वह पीएचडी करना चाहता है। उसने जेआरएफ की परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली है। लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय में उसे अभी तक दाखिला नहीं मिला है, जबकि एक-दो महीने में ही उसके जेआरएफ की अवधि समाप्त होनेवाली है। एक दलित छात्रा ने आरक्षण और जाति-जनगणना पर अपनी बात रखी। वहीं सामान्य वर्ग के एक छात्र ने नई शिक्षा नीति के कारण होनेवाली समस्या को सामने रखा।

बातचीत के दौरान राहुल गांधी ने विश्वविद्यालयों में दलित इतिहास, आदिवासी इतिहास, ओबीसी इतिहास को पढ़ाए जाने की मांग की। उन्होंने कहा कि 90 प्रतिशत लोगों को केवल 10 प्रतिशत वालों का इतिहास ही पढ़ाया जाता रहा है, जिसके कारण सदियों से शूद्र और अतिशूद्र लोगों के इतिहास को लोग नहीं जानते हैं। नब्बे प्रतिशत लोगों के साथ क्या हो रहा है, उन्हें पता ही नहीं है। उन्होंने एक छात्र से पूछा कि इस पोलिटिकल सिस्टम में पैसे कहां से आते हैं और इस सिस्टम में दलित क्यों नहीं है? उन्होंने मुझे 500 रुपए का नोट थमाते हुए कहा कि जो 500 रुपये मेरे पास है, उसकी कीमत तुम्हारे 500 रुपए से ज्यादा है, क्योंकि तुम दलित हो। साथ ही उन्होंने तेलंगाना में करवाए गए जातिगत सर्वेक्षण का जिक्र करते हुए कहा कि इस सर्वेक्षण का एक फलाफल यह है कि ठेकेदारी और कारपोरेट सेक्टर में ओबीसी और दलित नहीं हैं।
उन्होंने कहा कि “आप सब विश्वविद्यालय में भागदारी के लिए संघर्ष कर रहे हैं, पॉवर के लिए नहीं। आप विश्वविद्यालय पर अपने अधिकार के लिए संघर्ष नहीं कर रहे हैं, आप संघर्ष कर रहे हैं विश्वविद्यालय में प्रवेश पाने के लिए।” साथ ही, राहुल गांधी ने विश्वविद्यालय पर यह भी आरोप लगाया कि वह अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति और पिछड़े वर्ग के छात्रों का प्रतिनिधित्व नहीं करता है। उनसे जुड़े सभ्यता और इतिहास को महत्व नहीं देता है। इसी क्रम में एक छात्र ने कहा कि विश्वविद्यालय ने अपने पाठ्यक्रम से प्रो. कांचा आइलैय्या शेपर्ड के आलेखों को हटा दिया है।
राहुल गांधी ने निजी क्षेत्र में अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति और पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण का प्रावधान करने की मांग की। उन्होंने कहा कि ‘प्राइवेटाइजेशन’ सही शब्द नहीं है। इसके लिए डी-दलितफिकेशन और डी-ओबीसीफिकेशन शब्द का प्रयोग किया जाना चाहिए, क्योंकि प्राइवेटाइजेशन प्रक्रिया के द्वारा आपको (दलित-बहुजनों को) सिस्टम से बाहर किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि आपको “हिंदुत्व प्रोजेक्ट” को समझना चाहिए। यह आपके इतिहास को मिटाने वाला प्रोजेक्ट है।
राहुल गांधी जी से बातचीत का जो मेरा अनुभव था, वह सुखद था। लेकिन इसके बावजूद भी मेरे भीतर कुछ दुख, सवाल और बेचैनी रह गई है, जिसका कारण यह है कि राजनीतिक रूप से मनुवाद को समाप्त करने की बात तो हो रही है। लेकिन सामाजिक मनुवाद अभी भी लोगों के भीतर है। जैसे कुछ सामान्य वर्ग के छात्र कह रहे थे कि हम तो जनरल कैटगरी के हैं, हम बातचीत में शामिल नहीं होंगे। जब कैमरामैन ने सामान्य वर्ग के कुछ छात्रों से पूछा कि आप जाति-जनगणना के बारे में कुछ कहना चाहते हैं, तो उन्होंने हिकारत के भाव के साथ ‘नहीं’ कहा। राहुल गांधी जी के जाने के बाद जो लोग मीटिंग के कारण साथ में बैठे थे, वे धीरे-धीरे जातिवादी दंभ से भर गए।
बाबा साहब की मुझे वह पंक्तियां याद आ गईं। उन्होंने कहा था कि हम राजनीतिक रूप से तो समान हैं, लेकिन सामाजिक गैर-बराबरी आज भी बनी हुई है।
दरअसल हुआ यह कि जब राहुल गांधी आए तो कुछ लोग प्रगतिशील दिखने का ड्रामा करने लगे। राहुल गांधी जब हमारे साथ थे तब तक साथ में कुछ लोग प्रेम और समस्या को समझने का नाटक कर रहे थे। उनके जाने के बाद राजनीतिक मनुवाद को खत्म करने का प्रयास तो दिख रहा था लेकिन समाजिक मनुवाद टस से मस नहीं हुआ। मुहब्बत की दुकान तभी अच्छी हो सकती है जब माली हर फूल से प्यार करे। हर जाति के लोगों से प्यार करे। दुकानदार के अच्छे होने से समाज नहीं बदलता। वह बदलता है सामाजिक परिवर्तन से, समाजिक न्याय से। हमारी लड़ाई सामाजिक वर्चस्व के लिए नहीं है। हमें सामाजिक न्याय चाहिए।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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