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जेएनयू में आंबेडकरवाद के संस्थापक थे प्रोफेसर नंदू राम

प्रोफेसर नंदू राम के समय में जेएनयू में वामपंथ से इतर कुछ भी सोचना एक प्रकार का पाप समझा जाता था। इसे समाजद्रोह के रूप में देखा जाता था, और बहुत आसानी से किसी को अकादमिक जगत से बाहर कर दिया जाता था। यह स्थिति आज भी कमोबेश वैसी ही बनी हुई है, जबकि पिछले पंद्रह वर्षों में समाज के शोषित और वंचित वर्गों की आवाज काफी मुखर हुई है। श्रद्धांजलि दे रहे हैं युवा समाजशास्त्री अनिल कुमार

प्रोफेसर नंदू राम का जन्म उत्तर प्रदेश के बलिया ज़िले में वर्ष 1946 में हुआ था। उनका देहांत गत 13 जुलाई, 2025 को द्वारका, दिल्ली में हो गया। उनका जन्म एक अत्यंत ही साधारण अनुसूचित जाति परिवार में हुआ था। उनकी माता दूसरों के घरों में गोबर लीपने व साफ-सफाई का काम करती थीं, और उनके पिता दूसरों के खेतों में हल चलाते थे। उनके भाई बनारस में रिक्शा चलाते थे।

लेकिन प्रोफेसर नंदू राम अत्यंत मेहनती और लक्ष्य के प्रति दृढ़ संकल्पित थे। यही कारण है कि उनकी शैक्षणिक यात्रा बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) से शुरू होकर, आईआईटी, कानपुर और फिर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) तक पहुंची।

उनकी पीएचडी का शोध विषय ‘सोशल मोबिलिटी एंड स्टेटस आइडेंटिफिकेशन अमांग शेड्यूल्ड कास्ट्स’ (अनुसूचित जातियों में सामाजिक गतिशीलता और प्रतिष्ठा की पहचान) था। उन्होंने 1978 में जेएनयू के सामाजिक अध्ययन पद्धति संस्थान (समाजशास्त्र) में एक शिक्षक के रूप में कार्यभार ग्रहण किया। वे जेएनयू में नियुक्त होने वाले अनुसूचित जाति समुदाय के पहले शिक्षक थे। वे इसी संस्थान से 2011 में सेवानिवृत्त हुए।

अपने शिक्षण काल के दौरान उन्होंने कई लेख और पुस्तकें लिखीं, जिनका संदर्भ आज भी उच्च शिक्षण संस्थानों में दिया जाता है।

प्रोफेसर नंदू राम का संक्षिप्त अकादमिक योगदान परिचय

प्रोफेसर नंदू राम अकादमिक जगत की उस पहली पीढ़ी से थे, जिन्होंने भारत रत्न डॉ. भीमराव आंबेडकर को विश्वविद्यालयों की शोध और बहस की मुख्यधारा में शामिल कराया। ऐसा नहीं है कि उनसे पहले या उनके समकालीन डॉ. आंबेडकर से प्रभावित नहीं थे या इस दिशा में कोई कार्य नहीं कर रहे थे। लेकिन प्रोफेसर नंदू राम का योगदान इसलिए विशेष रूप से रेखांकित किया जाता है, क्योंकि वे भारत के शीर्ष विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के प्राध्यापक थे, जो आज भी वामपंथी विचारधारा का गढ़ माना जाता है।

उनके समय में जेएनयू में वामपंथ से इतर कुछ भी सोचना एक प्रकार का पाप समझा जाता था। इसे समाजद्रोह के रूप में देखा जाता था, और बहुत आसानी से किसी को अकादमिक जगत से बाहर कर दिया जाता था। यह स्थिति आज भी कमोबेश वैसी ही बनी हुई है, जबकि पिछले पंद्रह वर्षों में समाज के शोषित और वंचित वर्गों की आवाज काफी मुखर हुई है।

यह मुखरता 1980 से 1990 के दशक में ही शुरू हो गई थी, लेकिन उस समय संचार के साधनों पर प्रभुत्व वर्ग का नियंत्रण था। इस कारण वंचित वर्गों की आवाज दूर तक नहीं पहुंच पाती थी। लेकिन वेब पोर्टल्स, सोशल मीडिया और सस्ते इंटरनेट के कारण पिछले पंद्रह वर्षों में यह संभव हो सका है।

प्रोफेसर नंदू राम (दाएं) के साथ लेखक अनिल कुमार

प्रोफेसर नंदू राम ने जिन परिस्थितियों में वामपंथी विचारधारा से इतर वंचित समाज की बात को उनकी विचारधारा के साथ आगे बढ़ाया, उसकी आज कल्पना करना भी आसान नहीं है।

लेकिन कभी-कभी मुझे लगता है कि उन कठिनाइयों की कल्पना करना आज इतना कठिन भी नहीं है। इसे ऐसे आसानी से समझा जा सकता है कि जेएनयू के उनके प्रारंभिक दिनों में मुश्किल से कुछ ही प्राध्यापक थे, जैसे प्रोफेसर तुलसीराम, जो समाज की वास्तविकताओं को अपने दृष्टिकोण और विचारधारा से अकादमिक जगत और समाज के सामने रख रहे थे। पहले की तुलना में आज इस विश्वविद्यालय में प्राध्यापकों की संख्या तीन गुना हो चुकी है, लेकिन आज भी जेएनयू समेत सभी विश्वविद्यालयों में ऐसे लोगों की संख्या दस से कम होगी जो अपने विचार प्रखरता से सार्वजनिक रूप से रखते हैं। जब यह स्थिति 2025 में है, तो चालीस साल पहले की स्थिति की कल्पना की जा सकती है।

प्रोफेसर नंदू राम जैसे विद्वान ही “बियांड आंबेडकर : एसेज ऑन दलित्स इन इंडिया’ (1995) जैसी पुस्तक लिख सकते हैं, और भारत में पहली बार अनुसूचित जातियों का विश्वकोश (इंसाइक्लोपीडिया) तैयार कर सकते हैं, जो ‘इंसाइक्लोपीडिया ऑफ शेड्यूल्ड कास्ट्स इन इंडिया’ शीर्षक से वर्ष 2003 में पांच खंडों में प्रकाशित हुआ। इस विश्वकोश में उन्होंने भारत की सभी अनुसूचित जातियों का सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, और उद्भव का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है। उन्होंने अनेक अकादमिक कार्य किए, लेकिन इन दो कार्यों ने उन्हें देश और विदेश में एक नई पहचान दिलाई।

यह सब अचानक नहीं हुआ। प्रोफेसर तुलसीराम ने एक बार कहा था कि प्रोफेसर नंदू राम अपने स्कूल और कॉलेज जीवन से ही वंचित समाज के विषय में चिंतन करते थे। वे शुरू से ही भारत रत्न डॉ. भीमराव आंबेडकर से प्रभावित थे। उन्होंने अपने विचारों को तमाम झंझावातों और बाधाओं के बावजूद आगे बढ़ाया।

जेएनयू में आंबेडकर पीठ की स्थापना उनके ही अथक प्रयासों से संभव हो सकी। वे इसके संस्थापक और पहले अध्यक्ष भी थे। उनके कार्यकाल में आंबेडकर पीठ ने ऐसी कई विचार-गोष्ठियां आयोजित कीं, जिन्हें पहले अनदेखा किया जाता था – मानो वंचित समाज का दर्द वही है जो प्रभुत्वशाली वर्ग समझता है या आपको बताना चाहता है। आंबेडकर पीठ की स्थापना के बाद इस यूनिवर्सिटी में पहली बार संस्थागत रूप से वंचित समाज ने अपनी विचारधारा को अभिव्यक्त करना शुरू किया।

उनके बाद उन्हीं के निर्देशन में पीएचडी करने वाले प्रोफेसर विवेक कुमार इस पीठ के अध्यक्ष बने। उन्होंने डॉ. आंबेडकर की विचारधारा को न केवल भारत में, बल्कि कोलंबिया यूनिवर्सिटी (अमेरिका), टोरंटो यूनिवर्सिटी (कनाडा), हम्बोल्ट यूनिवर्सिटी (जर्मनी), आरहुस यूनिवर्सिटी (डेनमार्क) जैसी वैश्विक प्रतिष्ठा प्राप्त विश्वविद्यालयों में भी स्थापित किया। उनके विद्यार्थियों ने आज विभिन्न क्षेत्रों में उनके विचारों को आगे बढ़ाया है।

प्रोफेसर नंदू राम ने मुझे कुछ पेपर पढ़ाए, जिनमें ‘अर्बन सोशियोलॉजी’ यानी ‘शहर का समाजशास्त्र’ भी शामिल था। वे केवल प्रोफेसर नंदू राम ही हो सकते थे जो हमें यह पढ़ा सकते थे कि किस प्रकार शहरों में जातिवाद, वर्गभेद और हाशिए पर खड़े लोगों को व्यवस्था से अलग कर दिया जाता है। उन्होंने हमें यह भी बताया कि कैसे शोषण के बावजूद शोषित वर्ग को इसका एहसास तक नहीं हो पाता, क्योंकि यह प्रक्रिया बहुत ही संगठित और परोक्ष होती है।

इतना ही नहीं, जब वे सामाजिक अध्ययन पद्धति संस्थान के अध्यक्ष बने, और बाद में समाज विज्ञान के डीन बने तब समाजशास्त्र के पाठ्यक्रम में कई महत्वपूर्ण बदलाव किए गए। वंचित समाज की समस्याओं और उनके विचारों को भी उसमें शामिल किया गया। यह सब उनके अथक प्रयास, समर्पण, विचारधारा और उससे उत्पन्न प्रभाव का ही परिणाम था।

जब मैं जेएनयू में पढ़ने आया, तब देखा कि बड़े-बड़े वामपंथी विचारक प्रोफेसर भी उनसे मिलने आते थे। किसी कार्यक्रम में मुलाकात होती थी तो प्रोफेसर नंदू राम अपने विचारों और लक्ष्यों पर अडिग रहते थे। लेकिन वही वामपंथी विचारक उनसे प्रभावित होकर (या दिखावे के लिए) आंबेडकर और शोषित समाज की बातें करने लगते थे। यह उनके अकादमिक कार्य और उनके लक्ष्य के प्रति निष्ठा का प्रमाण था।

आज पूरे देश में प्रोफेसर नंदू राम के छात्र विभिन्न पदों पर अपने-अपने स्तर से समाज को और भी बेहतर बनाने के लिए सतत प्रयासरत हैं। अपने छात्रों के माध्यम से समाजद्रष्टा प्रोफेसर नंदू राम और उनकी विचारधारा आज भी हम सबके बीच न केवल जीवित है बल्कि अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर है।

प्रोफेसर नंदू राम के विद्यार्थी, और उनके ही दिशानिर्देश में पीएचडी शोध करने वाले और सामाजिक विज्ञान, जेएनयू के वर्तमान डीन प्रो. विवेक कुमार उन्हें याद करते हुए लिखते हैं– “आप हमारे साथ हैं … अपने उस ज्ञान के माध्यम से जो आपने हमें और लाखों लोगों को दिया है। हम वादा करते हैं कि हम इसे आगे ले जाएंगे। सर, आप अमर रहें!”

वे अपनी आत्मकथा ‘स्टेयर्स एंड मूवर्स’ (जिसका हिंदी में भावात्मक अनुवाद कुछ ऐसा होगा – ‘ठहराव के यात्री और परिवर्तन के पथिक’) के माध्यम से अपने संघर्ष, विचार और कार्यों को हम सब के साथ साझा करना चाहते थे। लेकिन अफसोस कि समय के चक्र ने उन्हें पूरा नहीं होने दिया।

एक बार पुनः प्रोफेसर नंदू राम को उनके सभी छात्रों की ओर से भावभीनी श्रद्धांजलि!

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

अनिल कुमार

लेखक पटना विश्वविद्यालय के पटना महिला महाविद्यालय में समाजशास्त्र के सहायक प्राध्यापक हैं।

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