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कब तक अपने पुरखों की हत्या का जश्न देखते रहेंगे मूलनिवासी?

क्या हमने कभी विचार किया है कि बाजार से जुड़ कर आज कल जो दुर्गा पंडाल बनते हैं, भव्य प्रतिमाएं बनती हैं, सप्ताह-दस दिन तक चलने वाले मेले ठेले में ठगा-ठगा सा खड़ा एक आदिवासी विस्फरित आंखों से इन आयोजनों को देख कर क्या महसूस करता है? या हम इंतजार कर रहे हैं कि वह अपने ही पूर्वजों की हत्या के इस उत्सव का धीरे-धीरे आनंद लेने लगेगा? पढ़ें, विनोद कुमार का यह आलेख

यह सवाल अनायास ही जेहन में उभरता है कि हिंदी पट्टी के अधिकतर पर्व-उत्सव वधोत्सव क्यों हैं? कहीं महिषासुर का वध किया जाता है, कहीं रावण को जलाया जाता है। ऐसे ही कहीं होलिका का दहन और हिरण्यकशिपु का वध होता है। दशहरा, दीवाली, होली आदि सभी पर्व-उत्सव किसी न किसी रूप में वध-पूजा के इर्द-गिर्द होता है। दूसरी ओर हमारे आसपास आदिवासी इलाकों में सरहुल सबसे बड़ा पर्व-त्योहार है। ईसाई ईसा मसीह के जन्म का उत्सव मनाते हैं। ईरानी नव रोज मनाते हैं, जो वसंतोत्सव है। ऐसा नहीं कि अपने देश में मौसम से जुड़े पर्व-त्योहार नहीं, लेकिन यहां हिंदी पट्टी में मनाये जाने वाले पर्व त्योहारों की बात हो रही है। जिससे पूरे हिंदी प्रदेश को मनु प्रदेश के रूप में भी चिह्नित किया जा सकता है।

वैसे, बहुत सारे विद्वान महिषासुर हो या रावण की कथा या फिर भस्मासुर और हिरण्यकशिपु की कथा, सबको एक बटखरे से तौल देते हैं। यह बटखरा है– अच्छे और बुरे के बीच का संघर्ष। कह दिया जाता है कि यह मनुष्य की दानवी और देवत्व से पूर्ण प्रवृत्तियों का संघर्ष है। कुछ अंधकार बनाम प्रकाश के संघर्ष की बात कहते हैं। लेकिन वास्तविकता यह है कि ये सब दो संस्कृतियों के टकराव से उपजी कहानियां हैं।

भारत में नस्लीय भेदभाव

भारतीय उप महाद्वीप के ज्ञात इतिहास में दानव, राक्षस, असुर जैसे जीव नहीं मिलते, लेकिन भारतीय वाङ्मय– रामायण, महाभारत, पुराण आदि ग्रंथ ऐसे जीवों से भरे पड़े हैं। ये दानव भीमाकार, विकृताकार, काले, व मायावी शक्तियों से भरे हुए ऐसे जीव हैं, जो देवताओं और मृत्युलोक, यानी इस भौतिक संसार में रहने वाले भद्र लोगों को परेशान करते रहते हैं। वैसे, इस बारे में विद्वान और इतिहासवेत्ता बहुत कुछ लिख चुके हैं और मान कर चला जाता है कि ये गाथाएं सदियों तक चले आर्य-अनार्य युद्ध से उपजी हैं। बावजूद इसके, इन कथाओं को इस रूप में देखने वाले और अन्य सामान्य लोग सहज भाव से यह स्वीकार करते आए हैं कि दस सिर वाले रावण को मार कर राम अयोध्या लौटे होंगे और उस अवसर पर दीये जला कर राम, लक्ष्मण और सीता का स्वागत अयोध्यावासियों ने किया होगा। तभी से दीपावली मनाई जा रही है और रावण वध का आयोजन हो रहा है।

ऐसे ही पूर्वोत्तर भारत में महिषासुर का वध करने वाली दुर्गा की पूजा होती है। हाल के वर्षों में बंग समाज के लोग जिन राज्यों में गए, वहां भी अब दुर्गापूजा होने लगी है। लेकिन सामान्यतः दुर्गा पूजा बिहार, बंगाल और ओड़िसा का त्योहार है। कभी-कभी यह जिज्ञासा होती है कि दुर्गा पूजा पूर्वोत्तर भारत में ही क्यों होती है और शेष भारत में क्यों नहीं? इसी तरह रावण वध भी उत्तर भारत में ही क्यों होता है? रामलीलाएं इसी क्षेत्र में क्यों आयोजित होती हैं, दक्षिण भारत में क्यों नहीं?

बहुधा यह भी देखने में आता है कि धार्मिक ग्रंथों, पुराणों में दुष्ट तो दानवों को बताया जाता है, लेकिन धूर्तता करते देवता दिखते हैं। मसलन, समुद्र मंथन तो देवता और दानवों ने मिल कर किया, लेकिन समुद्र से निकली लक्ष्मी सहित मूल्यवान वस्तुएं देवताओं ने हड़प ली। यहां तक कि सारा अमृत भी देवताओं के हिस्से गया और राहू व केतु ने देवताओं की पंक्ति में शामिल हो कर अमृत प्राप्त करना चाहा तो उन दोनों को अपना सर कटवाना पड़ा। ऐसे ही ‘महाभारत’ में लाक्षागृह से बच कर निकलने और जंगलों में भटकने के बाद पांडु पुत्र भीम किसी दानवी से टकराए। उसके साथ कुछ दिनों तक सहवास किया और फिर वापस अपनी दुनिया में लौट गए। उनका बेटा घटोत्कच कैसे पला-बढा, इसकी कभी सुध नहीं ली। हालांकि उस बेटे ने महाभारत युद्ध में अपनी कुर्बानी देकर अपने पिता के कर्ज को चुकता किया। ‘रामायण’ के पात्र तथाकथित ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ राम और रावण के व्यक्तित्व की तो बहुत सारी समीक्षाएं हुई हैं। रावण सीता को हर कर तो ले गया लेकिन उसके साथ उसने कभी अभ्रद व्यवहार नहीं किया। जबकि राम ने अपनी ब्याहता पत्नी को बार-बार अपमानित किया। लंका से लौटने के बाद उसकी अग्निपरीक्षा ली। यहां तक कि अपने राज्य के एक निवासी (जिसे अछूत कहा गया) के कहने पर गर्भवती पत्नी का परित्याग कर लक्षमण के हाथों जंगल भिजवा दिया। छल से बालि की हत्या की। घर के भेदी विभीषण की मदद से रावण को मारा। ‘महाभारत’ में एकलव्य की कथा तो इस बात की मिसाल ही बन गया है कि एक गुरु ने अगड़ी जाति के अपने शिष्य के भविष्य के लिए एक आदिवासी युवक से उसका अंगूठा किस तरह गुरु-दक्षिणा में मांग लिया।

पौराणिक गाथाओं की ये सब बातें पिछले कुछ वर्षों से तीखी बहस का हिस्सा बनी हैं। दलितों का गुस्सा और आक्रोश पहले फूटा और वह ब्राह्मणवादी व्यवस्था से नफरत की हद तक चला गया है। पिछले कुछ वर्षों से आदिवासी समाज भी आंदोलित है। इतिहास की अलग-अलग व्याख्याएं हो रही हैं। खास कर पुराने बंगाल, जिसमें ओड़िसा और बिहार शामिल हैं। इतिहास की जिन पुस्तकों की मदद से यह बहस चल रही है, उनमें सबसे ज्यादा चर्चित है डब्ल्यू.डब्ल्यू. हंटर की ‘एनल्स ऑफ रूरल बंगाल’, जो 1868 में लंदन से प्रकाशित हुई। हंटर का मानना है कि वैदिक युग के ब्राह्मणों और मनु ने जिस हिंदू धर्म की स्थापना की वह दरअसल मध्य देश का धर्म है। मध्य देश, यानी, हिमालय के नीचे और विंध्याचल के उपर का भौगोलिक क्षेत्र। हिंदू धर्म की स्थापना मध्य एशिया से निकल कर दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में कई सभ्यताओं को जन्म देने वाले आर्यों ने किया, जिन्होंने हिंदुस्तान में सबसे पहले उत्तर-पश्चिम क्षेत्र के दो पवित्र नदियों– सरस्वती और दृश्यवती, के बीच पड़ाव डाला। वहां से वे दक्षिण-पूर्व दिशा की तरफ बढ़े, जिसे ब्रह्मऋषियों और वैदिक ऋचाओं के गायकों का प्रदेश माना जाता है। इसके बाद वे दक्षिण-पूर्व की दिशा में बढ़ते गए और गंगा नदी के किनारे-किनारे बसते हुए बंगाल के मुहाने तक पहुंच गए। इन्हीं इलाकों को मनु अपना इलाका यानी हिंदू धर्म का इलाका मानते हैं, जो शुद्ध बोलता है। उसके बाहर तो राक्षस रहते हैं, जो शुद्ध बोल नहीं सकते और अखाद्य पदार्थों का भक्षण करते हैं। वे आर्यों की तरह गौर वर्ण के नहीं, बल्कि काले हैं। वे शास्त्रार्थ करने वाले लोग नहीं, बल्कि उनके हाथों में तो बांस के बड़े-बड़े धनुष और जहर बुझे तीर हैं।

बीते 24 सितंबर को मैसूर के टाउन हॉल में महिषासुर को स्मरण करने के उत्सव महिष हब्बा के आयोजन के दौरान लोगों को संबोधित करते सामाजिक कार्यकर्ता सह शिक्षक दिलीप नरसैय्याह। इस मौके पर पूर्व मेयर पुरुषोत्तम, प्रो. के.एस. भगवान व उरिलिंगा पेड्डी मठ के महंत ज्ञानप्रकाश स्वामी भी मौजूद रहे। इस अवसर पर मैसूर का नामकरण महिषुरु करने का एक प्रस्ताव पारित किया गया। सनद रहे कि चामुंडी हिल्स पर अवस्थित महिषासुर की प्रतिमा के पास पारंपरिक श्रद्धांजलि कार्यक्रम की अनुमति राज्य सरकार द्वारा मैसूर दसरा के आयोजन के दौरान सुरक्षा कारणों का हवाला देकर नहीं दी गई।

हुआ तो यह भी कि वे यहां अपनी जड़ें जमा पाते और मनु द्वारा व्याख्यायित हिंदू धर्म का प्रचार-प्रसार कर पाते, उसके पहले ही बौद्ध धर्म यहां उठ खड़ा हुआ जो इस इलाके के लोगों को सहज स्वीकार्य भी हुआ। यहां के राजा भी ब्राह्मण, क्षत्रिय नहीं बल्कि यहां के मूलवासी थे या वे लोग थे, जो मनु की वर्णवादी व्यवस्था के बाहर के लोग थे। चाहे वे सम्राट अशोक हों या फिर गौड़ को अपनी राजधानी बना कर 785 से 1040 ई. तक बंगाल पर शासन करने वाले शासक। उनमें से अधिकांश बौद्ध धर्म को मानने वाले थे। कम-से-कम 900 ई. तक बौद्ध धर्म को मानने वाले राजाओं का शासन था। सन् 900 ई. में खुद को हिंदू मानने वाले बंगाल के राजा आदिश्वरा ने वैदिक यज्ञ व पूजा पाठ के लिए कन्नौज से पांच ब्राह्मणों को बुलवाया। वे पांचों ब्राह्मण गंगा के पूर्वी किनारे पर बसे। स्थानीय औरतों के साथ घर बसाया, बच्चे पैदा किए। जब वे यहां अच्छी तरह बस गए। उसके बाद कन्नौज से उनकी वैध पत्नियां यहां आईं। वे स्थानीय पत्नियों और कथित रूप से अवैध संतानों को वहीं छोड़ कर आगे बढ़ गए। उनकी अवैध संतानों से राड़ी ब्राह्मण पैदा हुए, साथ ही अनेक अन्य जातियां जैसे कायस्थ आदि। यह ऐतिहासिक परिघटना 900 वीं शताब्दी की है। लेकिन ये जो मिश्रित नस्ल और जातियों का अभिर्वाव हुआ, वे सिर्फ मनु की वर्ण-व्यवस्था के लोगों के बीच आपसी विवाह का नतीजा न होकर ब्राह्मणों और हिंदू वर्ण-व्यवस्था के बाहर की जातियों के मिश्रण का भी नतीजा था। हिंदू वर्ण व्यवस्था का अभिजात तबका ब्राह्मण ही था। इनके मुताबिक जब क्षत्रियों[1] का प्रभुत्व बढ़ा तो परशुराम ने पृथ्वी से क्षत्रियों को समाप्त करने का संकल्प लिया था। दूसरी बात यह कि बौद्ध धर्म के पहले या बाद में मध्य देश से जो भी अतिक्रमणकारी बंगाल आए। उन्होंने स्वयं को ब्राह्मण कह कर प्रचारित किया। यह अलग बात है कि मध्य देश के ब्राह्मणों ने बंगाल के ब्राह्मणों को कभी भी बराबरी का दर्जा नहीं दिया।

तो, तब के बंगाल में, जिसमें वीरभूम और मानभूम शामिल थे, की आबादी के मूल तत्व कौन थे? हंटर ने पंडितों के हवाले इस तथ्य का ब्योरा कुछ इस प्रकार दिया है– (1) यहां के गैर आर्यन ट्राईब, (2) वैदिक व सारस्वत ब्राह्मण, (3) छिटपुट वैश्य परिवारों, (4) परशुराम द्वारा खदेड़े गये मध्य देश के क्षत्रिय जो बिहार से नीचे नहीं उतर पाए, (5) सन् 900 ई. में कन्नौज से लाए गए ब्राह्मण और उनके वंशज और (6) उत्तर भारत से हाल के वर्षों में आए राजपूत, अफगान और मुसलमान आक्रमणकारी, ये सभी बिरादरियां मनु की वर्ण-व्यवस्था की हिस्सा नहीं रह गई थीं। बंगाल के ब्राह्मणों को उत्तर भारत, यानी मनु के मध्य देश के ब्राह्मणों ने राड़ी ब्राह्मणों की संज्ञा दे रखी थी और उनसे रोटी-बेटी का संबंध नहीं रखते थे।

ऐसे ही बंगाल की आबादी दो बड़े खेमों में विभाजित थी। एक आक्रमणकारी आर्य, जिन्हें ब्राह्मणों जैसा दर्जा प्राप्त था और दूसरे यहां के आदिवासी, जिन्हें आक्रमणकारियों ने यहां पाया था और जिन्हें वे जंगलों में खदेड़ते जा रहे थे। आर्यों को अपनी विशिष्टता का इतना अहंकार था कि वे आदिवासियों को वा-नर, मनुष्य से नीचे का जीव जंतु का दर्जा देने लगे। आदिवासियों से उनकी नफरत की अनेक वजहें थीं। एक तो उनका वर्ण काला था, और दूसरे वे ऐसी भाषा बोलते थे जिसका उनके अनुसार कोई व्याकरण नहीं था। तीसरे उनके खान-पान का तरीका और चौथा, वे किसी तरह के कर्मकांड में विश्वास नहीं करते थे। वे इंद्र की पूजा नहीं करते थे और उनके पास कोई ईश्वर नहीं था। वे आत्मा के अमरत्व में विश्वास नहीं करते थे।

आदिवासियों से उनकी नफरत इस कदर बढ़ती गई कि वे उन्हें मनुष्येतर प्राणी के रूप में चित्रित करने लगे। वैदिक ऋचाओं में उन्हें दसायन, दस्यु, दास, असुर, राक्षस जैसी संज्ञाओं से संबोधित किया जाने लगा। उनके व्यक्तित्व को विरूपित कर दिखाया जाने लगा। पौराणिक कथाओं के ये दानव, राक्षस इसी टकराव की उपज हैं।

मौजूं यह कि आदिवासी समाज को दुर्गापूजा के नाम पर महिषासुर के समारोहपूर्वक वध से आपत्ति है। झारखंड के गुमला जिले के असुर समाज, पश्चिम बंगाल के आदिवासियों और छत्तीसगढ़ व महाराष्ट्र के गोंड आदिवासियों ने मांग की है कि दुर्गा पूजा के नाम पर उनके पुरखों की हत्या का उत्सव बंद होना चाहिए। उनके मुताबिक, महिषासुर और रावण जैसे नायक भारत के समस्त आदिवासी समुदायों के गौरव हैं। जबकि वेद-पुराणों और भारत के अन्य ब्राह्मण ग्रंथों में आदिवासी समुदायों को खल चरित्र के रूप में पेश किया गया है। आदिवासी समाज में लिखने का चलन नहीं था, इसलिए ऐसे झूठे, नस्लीय और घृणा फैलाने वाले किताबों के खिलाफ चुप्पी की जो बात फैलाई गई है, वह भी मनगढंत है। आदिवासी समाज ने हमेशा हर तरह के भेदभाव और शोषण का प्रतिकार किया है। असुर, मुण्डा और संताल आदिवासी समाज में ऐसी कई परंपराएं और वाचिक कथाएं हैं जिनमें इन समुदायों का विरोध परंपरागत रूप से दर्ज है। चूंकि गैर-आदिवासी समाज आदिवासी भाषाएं नहीं जानता है, इसलिए उसे लगता है कि आदिवासी हिंदू मिथकों और उनकी नस्लीय भेदभाव वाली कहानियों के खिलाफ नहीं हैं। उनका यह भी कहना है कि असुरों की हत्या का धार्मिक पर्व मनाना देश और इस सभ्य समाज के लिए शर्म की बात होनी चाहिए। बीते वर्षों में उसने जेएनयू दिल्ली, पटना और पश्चिम बंगाल में महिषासुर शहादत दिवस आयोजनों के साथ अपनी एकजुटता जाहिर की और अपने पुरखों के सम्मान के लिए संघर्ष को जारी रखने का आह्वान किया।

बहुधा हम भारतीय समाज की ‘सामूहिक चेतना’ की बात करते हैं। क्या वास्तव में हमारे समाज की कोई सामूहिक चेतना है? या इन नस्लीय भेदभाव के रहते बन सकती है? क्या हमने कभी विचार किया है कि बाजार से जुड़ कर आज कल जो दुर्गा पंडाल बनते हैं, भव्य प्रतिमाएं बनती हैं, सप्ताह-दस दिन तक चलने वाले मेले ठेले में ठगा-ठगा सा खड़ा एक आदिवासी विस्फरित आंखों से इन आयोजनों को देख कर क्या महसूस करता है? या हम इंतजार कर रहे हैं कि वह अपने ही पूर्वजों की हत्या के इस उत्सव का धीरे-धीरे आनंद लेने लगेगा?

[1] जोतीराव फुले ने अपनी किताब ‘गुलामगिरी’ में क्षत्रिय का विश्लेषण क्षेत्रीय/मूलनिवासी योद्धा के रूप में किया है।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

विनोद कुमार

झारखंड के वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता विनोद कुमार का जुड़ाव ‘प्रभात खबर’ से रहा। बाद में वे रांची से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘देशज स्वर’ के संपादक रहे। पत्रकारिता के साथ उन्होंने कहानियों व उपन्यासों की रचना भी की है। ‘समर शेष है’ और ‘मिशन झारखंड’ उनके प्रकाशित उपन्यास हैं।

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