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क्या भागवत का स्थान लेंगे मोदी-शाह के दत्तात्रेय होसबाले?

मोदी-शाह की शैली असहमति को बर्दाश्त नहीं करती। गुजरात में उन्होंने आरएसएस की स्वायत्तता को कुचला और अब राष्ट्रीय स्तर पर भी यही पैटर्न दिखता है। होसबाले का उदय इस रणनीति का हिस्सा हो सकता है। उनकी बढ़ती भूमिका को भाजपा की चुनावी रणनीतियों के अनुरूप देखा जा रहा है। बता रहे हैं भंवर मेघवंशी

सन् 1925 में गठित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) अपना शताब्दी वर्ष मना रहा है और इस शतकीय वर्ष में संगठन का भविष्य और नेतृत्व एक गंभीर बहस का विषय बन गया है। आरएसएस जो भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का वैचारिक मूल रहा है, अब एक ऐसे मोड़ पर है जहां इसके नेतृत्व की परंपराएं और सत्ता की गतिशीलता सवालों के घेरे में हैं। वर्तमान सरसंघचालक मोहन भागवत की उम्र और उनकी हालिया टिप्पणियों से ऐसी अटकलें तेज हो गई हैं कि क्या दत्तात्रेय होसबाले वर्तमान सरकार्यवाह अगले सरसंघचालक होंगे? यह सवाल केवल नेतृत्व परिवर्तन का नहीं, बल्कि आरएसएस और सत्तारूढ़ भाजपा के बीच शक्ति संतुलन विशेष रूप से नरेंद्र मोदी और अमित शाह की निरंकुश सत्ता शैली के संदर्भ में एक गहरे राजनीतिक खेल से संबंधित है।

केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा स्थापित आरएसएस ने हमेशा एक कठोर पदानुक्रमिक ढांचे का पालन किया है, जिसमें सरसंघचालक संगठन का सर्वोच्च वैचारिक और नैतिक मार्गदर्शक होता है। यह पद आजीवन होता है और उत्तराधिकारी का चयन पूर्ववर्ती सरसंघचालक द्वारा नामांकन से होता है। हेडगेवार के बाद माधव सदाशिवराव गोलवलकर, फिर मधुकर दत्तात्रेय देवरस, राजेंद्र सिंह, के.एस. सुदर्शन और मोहन भागवत इस पद पर रहे हैं। संघ की यह एक अनौपचारिक परंपरा रही है कि सरकार्यवाह, जो संगठन का कार्यकारी प्रमुख होता है, अक्सर सरसंघचालक बनता है। उदाहरण के लिए गोलवलकर और देवरस दोनों सरकार्यवाह की भूमिका से सरसंघचालक बने। यह परंपरा संगठन में स्थिरता और निरंतरता सुनिश्चित करती है, लेकिन यह भी सुनिश्चित करती है कि सत्ता व नियंत्रण एक चुनिंदा समूह के हाथों में ही रहे। हालांकि यह परंपरा अब सवालों के घेरे में है।

मोहन भागवत, जो 2009 से सरसंघचालक हैं, 75 वर्ष की आयु पार कर चुके हैं। पिछले वर्ष 2024 में उनके द्वारा 75 वर्ष की आयु में सार्वजनिक जीवन से सेवानिवृत्ति की चर्चा ने राजनीतिक हलकों में हलचल मचा दी थी। विपक्ष और विश्लेषकों ने इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर अप्रत्यक्ष दबाव के रूप में देखा, जो सितंबर, 2025 में 75 वर्ष के हो गए। भागवत का यह बयान न केवल आरएसएस की आंतरिक नीति को दर्शाता है, बल्कि यह भी संकेत देता है कि संगठन में उम्र और नेतृत्व पर नई बहस शुरू हो सकती है। लेकिन क्या यह केवल उम्र का सवाल है या इसके पीछे गहरी सियासत है?

दत्तात्रेय होसबाले का उदय इस बहस का केंद्र है। सन् 1954 में कर्नाटक के शिमोगा जिले के होसबाले गांव में जन्मे होसबाले एक समर्पित आरएसएस कार्यकर्ता रहे हैं। सन् 1968 में वे संगठन से जुड़े और 1972 में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में शामिल हुए। आपातकाल के दौरान उनकी गिरफ्तारी और 16 महीने की जेल अवधि ने उन्हें संगठन में नायकत्व प्रदान किया। अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर करने के बाद उन्होंने एबीवीपी में 15 वर्ष तक संगठन मंत्री और महासचिव के रूप में कार्य किया। सन् 2009 में वे आरएसएस के सह-सरकार्यवाह बने और 2021 से सरकार्यवाह हैं।

होसबाले की ब्राह्मण पृष्ठभूमि उन्हें एक मजबूत दावेदार बनाती है। कर्नाटक से होने के कारण वे दक्षिण भारत में आरएसएस की पैठ को मजबूत करते हैं, जो संगठन के लिए रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है। उनकी संगठनात्मक क्षमता और सामाजिक कार्यों, जैसे शिक्षा और सामुदायिक विकास, में सक्रियता ने उन्हें स्वयंसेवकों के बीच लोकप्रिय बनाया है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण है उनकी नरेंद्र मोदी और अमित शाह के साथ निकटता। हाल के वर्षों में आरएसएस के कार्यक्रमों में उनकी बढ़ती प्रमुखता, विशेष रूप से शताब्दी वर्ष के मेगा इवेंट में, इस बात का संकेत है कि वे अगले सरसंघचालक के लिए तैयार किए जा रहे हैं।

गांधी जयंती के एक दिन पहले 1 अक्टूबर, 2025 को दिल्ली में आरएसएस की स्थापना के सौ वर्ष पूरे होने की स्मृति में डाक टिकट व सौ रुपए का सिक्का जारी करते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व दत्तात्रेय होसबाले

गत 1 अक्टूबर, 2025 को नई दिल्ली में आयोजित समारोह में, जहां प्रधानमंत्री मोदी ने सिक्का और डाक टिकट जारी किया, होसबाले की मौजूदगी और उनकी सक्रिय भूमिका ने इस संभावना को और बल दिया।

मोदी और भागवत के बीच तनाव कोई नया नहीं है। गुजरात में मुख्यमंत्री के रूप में मोदी ने आरएसएस के प्रभाव को सीमित करने की रणनीति अपनाई थी। विश्व हिंदू परिषद के प्रवीण तोगड़िया, जो कभी उनके करीबी थे, उनको 2018 में संगठन से बाहर कर दिया गया। स्वदेशी जागरण मंच और भारतीय किसान संघ जैसे सहयोगी संगठनों को भी मोदी ने हाशिए पर धकेला, क्योंकि उनकी आर्थिक नीतियां विशेष रूप से भूमि अधिग्रहण विधेयक आरएसएस की विचारधारा से मेल नहीं खाती थीं। यह तनाव राष्ट्रीय स्तर पर भी दिखा, जब 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कहा कि “भाजपा अब आरएसएस के बिना चल सकती है।” भागवत ने जवाब में भाजपा के ‘अहंकार’ और ‘व्यक्तिपूजा’ की आलोचना की, जो स्पष्ट रूप से मोदी के नेतृत्व पर निशाना थी।

भागवत की 75 वर्ष की सेवानिवृत्ति टिप्पणी को कई लोग मोदी पर नैतिक दबाव के रूप में देख रहे थे, क्योंकि यह बयान उस समय आया जब भाजपा 2024 के चुनावों में पूर्ण बहुमत से चूक गई और गठबंधन की राजनीति पर मोदी की निर्भरता बढ़ी। लेकिन मोदी की ‘माफ न करने वाली’ छवि इस संदर्भ में महत्वपूर्ण है। गुजरात में उन्होंने जिस तरह विरोधियों को किनारे लगाया, मसलन तोगड़िया और केशुभाई पटेल इत्यादि को, वही रणनीति अब राष्ट्रीय स्तर पर दिख रही है। वर्ष 2013-14 में जब मोदी को पीएम उम्मीदवार बनाया गया, तब राजनाथ सिंह ने उनकी राह आसान की। लेकिन लाल कृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे दिग्गजों को हाशिए पर धकेल दिया गया।

सवाल है कि क्या अब होसबाले उसी रणनीति का हिस्सा हैं? क्या वे मोदी-शाह के ‘मोहरे’ के रूप में आरएसएस की बागडोर संभालने की तैयारी में हैं? यह सवाल इसलिए कि होसबाले की छवि एक समर्पित संगठनकर्ता की है, लेकिन उनकी मोदी-शाह के साथ निकटता जगजाहिर है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिम है कि क्या वे एक स्वतंत्र सरसंघचालक होंगे या मोदी की सत्ता के विस्तार का साधन भर? शताब्दी समारोह में उनकी प्रमुखता जहां सिक्के पर भारत माता और डाक टिकट पर 1963 की गणतंत्र दिवस परेड की छवि थी। यह दर्शाती है कि भाजपाई सत्ता प्रतिष्ठान उनके साथ सहज है। यह एक प्रतीकात्मक संदेश है कि मोदी का नेतृत्व और आरएसएस का वैचारिक आधार एकजुट दिखना चाहता है, लेकिन यह एकजुटता कितनी गहरी है?

मोदी-शाह की शैली असहमति को बर्दाश्त नहीं करती। गुजरात में उन्होंने आरएसएस की स्वायत्तता को कुचला और अब राष्ट्रीय स्तर पर भी यही पैटर्न दिखता है। होसबाले का उदय इस रणनीति का हिस्सा हो सकता है। उनकी बढ़ती भूमिका को भाजपा की चुनावी रणनीतियों के अनुरूप देखा जा रहा है। लेकिन यह सवाल उठता है कि क्या आरएसएस, जो अपनी वैचारिक शुद्धता पर गर्व करता है, इस तरह की सियासत को बर्दाश्त करेगा? हालांकि भागवत ने हाल ही में रिटायरमेंट की अटकलों को खारिज किया, लेकिन होसबाले की बढ़ती प्रमुखता इस बात का संकेत है कि संगठन के भीतर शक्ति संतुलन बदल रहा है।

आरएसएस और भाजपा का रिश्ता हमेशा से जटिल रहा है। आरएसएस एक वैचारिक संगठन है, जो हिंदुत्व पर जोर देता है। जबकि भाजपा एक राजनीतिक दल है, जो सत्ता की गतिशीलता से बंधा है। मोदी-शाह के नेतृत्व में भाजपा ने आरएसएस की विचारधारा को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया है, लेकिन उसकी स्वायत्तता को सीमित करने की कोशिश भी की है। होसबाले का संभावित उदय इस टकराव का प्रतीक है।

सनद रहे कि मोदी की रणनीति गुजरात से लेकर दिल्ली तक एक जैसी रही है– विरोधियों को किनारे लगाना और सहयोगियों को नियंत्रित करना। होसबाले की सरकार्यवाह के रूप में नियुक्ति और उनकी बढ़ती भूमिका इस रणनीति का हिस्सा हो सकती है, लेकिन आरएसएस की जड़ें गहरी हैं और इसका स्वयंसेवक आधार वैचारिक निष्ठा से बंधा है। यदि होसबाले को ‘मोहरे’ के रूप में देखा जाता है, तो संगठन के भीतर प्रतिरोध की संभावना है। स्वयंसेवकों और सहयोगी संगठनों में असंतोष पहले भी देखा गया है। जैसे कि पूर्व में तोगड़िया और स्वदेशी जागरण मंच के मामलों में दृष्टिगोचर हुआ था।

दत्तात्रेय होसबाले का संभावित उत्थान आरएसएस और भाजपा के बीच एक नए युग की शुरुआत हो सकता है, जहां सत्ता वैचारिक संगठन पर हावी हो। उनकी योग्यता, संगठनात्मक कौशल, दक्षिण भारतीय पृष्ठभूमि और सामाजिक कार्य उन्हें एक मजबूत दावेदार बनाती है, लेकिन यह सवाल अनुत्तरित है कि क्या वे मोदी-शाह की सत्ता के सामने स्वतंत्र रह पाएंगे? वजह यह कि गुजरात में तोगड़िया और अन्य को किनारे लगाने की रणनीति अब राष्ट्रीय स्तर पर दोहराई जा रही है।

बहरहाल, मूल प्रश्न यही है कि क्या होसबाले अगले सरसंघचालक होंगे? और यदि हां, तो क्या वे मोदी के मोहरे बनेंगे या आरएसएस की स्वायत्तता को बनाए रखेंगे? यह समय ही बताएगा, लेकिन यह निश्चित है कि हिंदुत्व की इस सियासत में विचारधारा और सत्ता का टकराव अब चरम पर दिखाई पड़ रहा है।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

भंवर मेघवंशी

भंवर मेघवंशी लेखक, पत्रकार और सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता हैं। उन्होंने आरएसएस के स्वयंसेवक के रूप में अपना सार्वजनिक जीवन शुरू किया था। आगे चलकर, उनकी आत्मकथा ‘मैं एक कारसेवक था’ सुर्ख़ियों में रही है। इस पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद हाल में ‘आई कुड नॉट बी हिन्दू’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। संप्रति मेघवंशी ‘शून्यकाल डॉट कॉम’ के संपादक हैं।

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