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सवर्ण या गैर-सवर्ण का होगा राज, तय करेगा बिहार, लेकिन सवाल और भी हैं

जदयू की दिख रही संगठनात्मक कमज़ोरी और नीतीश कुमार की ढलती उम्र को भाजपा अपने लिए अवसर के रूप में देख रही है। भाजपा के भीतर सवर्ण लॉबी यह प्रयास कर रही है कि राज्य में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार बने और मुख्यमंत्री पद किसी सवर्ण नेता को मिले। बता रहे हैं अभय कुमार

बिहार इन दिनों देश की राजनीति का केंद्र बन गया है। पिछले विधानसभा चुनावों की तरह इस बार भी मुकाबला जदयू और भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए तथा राजद, कांग्रेस और वामपंथी दलों के महागठबंधन के बीच माना जा रहा है। हालांकि इस बार के चुनाव परिणाम देश की राजनीति को काफी हद तक प्रभावित कर सकते हैं। चुनाव के नतीजे चाहे जो हों, वे हिंदुत्व, सेक्युलर राजनीति और सामाजिक न्याय की दिशा तय करने में महत्वपूर्ण साबित हो सकते हैं। यह चुनाव न केवल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए अहम है, बल्कि महागठबंधन के नेता तेजस्वी यादव की राजनीति के लिए भी निर्णायक साबित हो सकता है।

तेजस्वी की कड़ी परीक्षा

तेजस्वी के लिए यह चुनाव इसलिए भी खास है क्योंकि यदि उन्हें सफलता नहीं मिली, तो राजद के साथ-साथ उनके परिवार में भी उनके नेतृत्व पर सवाल उठने लगेंगे। उनके बड़े भाई तेजप्रताप, जिन्हें पार्टी ने कुछ समय पहले निष्कासित किया था और जो अब अपनी नई पार्टी के साथ महुआ विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे हैं, कई बार तेजस्वी की आलोचना कर चुके हैं। तेजस्वी यादव के करीबी नेताओं पर भी यह आरोप लग रहा है कि वे उन्हें आम कार्यकर्ताओं से दूर कर रहे हैं और लालू प्रसाद यादव की विरासत के विपरीत राजद में ‘इलीट कल्चर’ तेज़ी से पनप रहा है।

कहां खड़े हैं प्रशांत किशोर?

बिहार चुनाव ‘जन सुराज’ के लिए भी काफ़ी मायने रखता है, जिसके नेता प्रशांत किशोर बिहार की तक़दीर बदलने की बात कर रहे हैं। वे राज्य में मज़दूरों के पलायन, उद्योग और इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी, शिक्षा, रोज़गार और स्वास्थ्य सेवाओं की जर्जर स्थिति के लिए पिछले तीन दशकों से चली आ रही मंडल राजनीति को ज़िम्मेदार मानते हैं। साथ ही, वे बीच-बीच में बिहार के हितों की उपेक्षा करने के लिए भाजपा को भी निशाना बनाते रहते हैं। प्रशांत किशोर के समर्थक जहां बिहार को जातिवादी राजनीति से बाहर निकालने की बात कर रहे हैं, वहीं उनके आलोचक कहते हैं कि उनकी राजनीति का उद्देश्य सामाजिक न्याय की राजनीति को कमज़ोर कर सवर्ण जातियों को फिर से सत्ता के केंद्र में लाना है। यानी उन जातियों को सत्ता के केंद्र में लाना जो कर्पूरी ठाकुर और लालू प्रसाद यादव के उभार के बाद हाशिए पर चली गई थीं।

आलोचना यहीं तक सीमित नहीं है; ब्राह्मण समाज से संबंध रखने वाले प्रशांत किशोर पर यह आरोप भी लग रहा है कि उनके पीछे हिंदुत्व की राजनीति का अप्रत्यक्ष आशीर्वाद है, जो उनमें अपना दीर्घकालिक हित देख रही है। आलोचकों का तर्क है कि यदि प्रशांत किशोर मंडल राजनीति को कमज़ोर कर देते हैं, तो यह अप्रत्यक्ष रूप से क्षेत्रीय दलों पर प्रहार होगा और आगे चलकर सवर्ण प्रभुत्व वाली दो-दलीय राजनीति के लिए रास्ता तैयार करेगा। अब देखना यह है कि क्या प्रशांत किशोर वाकई एक मज़बूत राजनीतिक शक्ति के रूप में उभर पाते हैं, या फिर यह चुनाव उन्हें यह एहसास दिलाएगा कि चुनावी रणनीति बनाना और लोकप्रिय नेता बनना, दो बिल्कुल अलग बातें हैं।

भाजपा बनाम जदयू का हाल

एनडीए में चिराग पासवान और जीतन राम मांझी जैसे दलित चेहरे शामिल हैं, जबकि उपेंद्र कुशवाहा पिछड़े समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं। दूसरी ओर, मल्लाह समुदाय के नेता मुकेश सहनी अपनी बिरादरी का वोट ‘इंडिया गठबंधन’ के पक्ष में लाने की कोशिश में जुटे हैं। उधर एनडीए में मनमुटावों की एक बड़ी वजह मुख्यमंत्री की कुर्सी भी है। एनडीए के कुछ घटक दलों के नेता दबी ज़ुबान में स्वीकार करते हैं कि भाजपा का बिहार में कभी कोई मज़बूत जनाधार नहीं था, और उसने नीतीश कुमार की अगुवाई में ही बिहार की राजनीति में अपनी जगह बनाई। मगर आज वही भाजपा अपने सहयोगी दलों पर वर्चस्व दिखा रही है और ‘बिग बॉस’ की भूमिका निभा रही है। महाराष्ट्र की घटनाएं नीतीश समर्थकों की आंखों के सामने तैर रही हैं। जदयू के भीतर चिंता और संशय इसलिए बढ़ रहा है क्योंकि भाजपा ने अब तक यह स्पष्ट नहीं किया है कि एनडीए को बहुमत मिलने पर नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री बने रहेंगे।

नरेंद्र मोदी, तेजस्वी यादव और नीतीश कुमार

जदयू की दिख रही संगठनात्मक कमज़ोरी और नीतीश कुमार की ढलती उम्र को भाजपा अपने लिए अवसर के रूप में देख रही है। भाजपा के भीतर सवर्ण लॉबी यह प्रयास कर रही है कि राज्य में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार बने और मुख्यमंत्री पद किसी सवर्ण नेता को मिले। पार्टी की यह अगड़ी जाति लॉबी अंदर ही अंदर ऐसा माहौल बना रही है कि नीतीश कुमार और मंडल राजनीति के अध्याय को बंद करने का इससे बेहतर मौका शायद अब नहीं मिलेगा। उच्च जाति के नेता तर्क दे रहे हैं कि बिहार में पिछले तीन दशकों से सवर्ण राजनीति “हाशिए” पर रही है, और अब जबकि हिंदुत्व की राजनीति अपने ‘स्वर्णिम काल’ से गुजर रही है, तो राज्य में दबी हुई सवर्ण राजनीतिक प्रभुत्व को बहाल करने का यह सही समय है। कर्पूरी ठाकुर और लालू प्रसाद यादव के उभार से पहले बिहार में सवर्ण राजनीति का ही बोलबाला था, जब कांग्रेस की कमान उन्हीं के हाथों में हुआ करती थी।

इस संदर्भ में, नीतीश कुमार बेहद सतर्क रुख अपना रहे हैं। जहां कुछ भाजपा नेता अपने भाषणों में मुसलमानों पर निशाना साधते हुए उन्हें ‘नमक हराम’ कहकर सांप्रदायिकता का कार्ड खेलने की कोशिश कर रहे हैं, वहीं नीतीश कुमार अपनी सरकार की अल्पसंख्यक हितैषी नीतियों का हवाला देते हुए मुस्लिम समुदाय से उनके कामकाज के आधार पर वोट देने की अपील कर रहे हैं।

एक नया दिलचस्प घटनाक्रम यह भी देखने को मिला है कि नीतीश कुमार की ताज़ा रैलियों में अब नरेंद्र मोदी की तस्वीरों का आकार छोटा होता जा रहा है, जबकि मंचों और पोस्टरों पर नीतीश का चेहरा प्रमुखता से दिखाई दे रहा है। यह संकेत देता है कि जदयू बिहार की राजनीति में खुद को एक वरिष्ठ और स्वतंत्र राजनीतिक शक्ति के रूप में स्थापित करना चाहती है, साथ ही यह संदेश देने की कोशिश कर रही है कि बिहार की राजनीति के सर्वमान्य नेता अब भी नीतीश कुमार ही हैं।

मोदी की अपनी कुर्सी भी दांव पर

अगर बिहार में एनडीए जीत जाता है, तो भी मुख्यमंत्री की कुर्सी को लेकर खींचतान की संभावना बनी रहेगी। नीतीश कुमार को बनाए रखना या हटाना—दोनों ही भाजपा नेतृत्व के लिए कठिन फैसला होगा। अगर भाजपा को जदयू से ज़्यादा सीटें मिलती हैं, तो पार्टी के भीतर अपने मुख्यमंत्री को आगे लाने का दबाव बढ़ जाएगा। लेकिन भाजपा की शीर्ष नेतृत्व की मजबूरी यह है कि केंद्र में मोदी सरकार इस समय जदयू और तेलुगु देशम जैसी सहयोगी पार्टियों के समर्थन पर टिकी हुई है।

दूसरी ओर, यदि एनडीए की हार होती है, तो भाजपा और जदयू के रिश्तों में और दरार आ सकती है, क्योंकि ऐसी स्थिति में कांग्रेस की लॉबी जदयू को महागठबंधन में दोबारा शामिल करने की कोशिश करेगी। कांग्रेस के लिए यह फ़ायदे का सौदा होगा, क्योंकि इससे न केवल वह बिहार की सत्ता में हिस्सेदार बनेगी, बल्कि दिल्ली की सत्ता में लौटने का उसका दशकों पुराना सपना भी पूरा हो सकता है। एनडीए की हार नरेंद्र मोदी के नेतृत्व पर भी सवाल खड़े कर सकती है, जिससे राष्ट्रीय राजनीति में नए गठजोड़ बनने की संभावनाएं उभरेंगी। यह याद रखना ज़रूरी है कि किसी भी बड़े नेता की ताक़त तब तक कायम रहती है जब तक वह चुनाव जिता सके।

किसी भुलावे में न रहे महागठबंधन

महागठबंधन जहां एनडीए के भीतर चल रहे मतभेदों से मन ही मन खुश है, वहीं वह यह भूल रहा है कि जीत कभी भी थाली में सजा कर नहीं दी जाती। जीत तभी संभव है जब विपक्ष अपनी रणनीतिक कमज़ोरियों को देखकर संतुष्ट न हो, बल्कि अपने संघर्ष से समय की धारा को अपने पक्ष में मोड़े। इसके लिए आवश्यक है कि महागठबंधन पूरी मज़बूती और एकजुटता के साथ मैदान में उतरे, लेकिन दुर्भाग्यवश उनमें भी चट्टान जैसी एकता दिखाई नहीं दे रही है। ‘इंडिया अलायंस’ के खेमे में आंतरिक मतभेदों की कोई कमी नहीं है। राजद और कांग्रेस के बीच सीट बंटवारे को लेकर लगातार तनाव बना रहा, सीटों की घोषणा में हुई लंबी देरी और उससे उपजे भ्रम ने कार्यकर्ताओं के बीच असंतोष को और गहरा दिया। स्थिति यह रही कि एक ही विधानसभा सीट पर कभी किसी उम्मीदवार को टिकट दिया गया, तो अगले ही दिन किसी दूसरे को, जिससे कार्यकर्ताओं के बीच टकराव और गुटबाज़ी खुलकर सामने आ गई। चुनाव के दौरान कई नेताओं ने पार्टियां बदलीं और जिनके पास बाहुबल व धन था, वही टिकट पाने में सफल रहे।

महागठबंधन की ही बात करें तो राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस के बीच की खींचतान ने जनता के बीच ग़लत संदेश भेजा है। कांग्रेस के नेता इस बात को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं कि उनका पारंपरिक सामाजिक आधार अब वापस नहीं आ सका है। कांग्रेस के कई नेता दल को सामाजिक माध्यमों पर मज़बूत करने में तो सक्रिय हैं, लेकिन धरातल पर संघर्ष से बचते हैं। अभिजात्य संस्कृति ने कांग्रेस को भीतर से कमज़ोर कर दिया है। विचारधारा को लेकर भी पार्टी में भारी भ्रम की स्थिति है। कांग्रेस की उच्चवर्गीय लॉबी सामाजिक न्याय की राजनीति के प्रति पूरी तरह प्रतिबद्ध नहीं है; उसका वर्गीय और जातीय स्वार्थ उसे दक्षिणपंथ की ओर खींचता है। यदि कोई शक्ति इस झुकाव को रोक सकती है, तो वह है विचारधारा की स्पष्टता और व्यक्ति-पूजा के बजाय व्यवस्था परिवर्तन की राजनीति में आस्था — लेकिन ऐसा होते नहीं दिख रहा। कांग्रेस जहां सामाजिक न्याय की पार्टियों के साथ राजनीतिक रूप से जुड़ी हुई है, वहीं उसकी उच्चवर्गीय लॉबी मंडल राजनीति के प्रति शुरू से असहज रही है, और इस बार भी टिकट बंटवारे में उसने अल्पसंख्यकों और वंचित वर्गों के साथ न्याय नहीं किया।

अब भी साकार नहीं राहुल की कांग्रेस

कांग्रेस के अंदर दबे-कुचले वर्गों के बीच काम करने के बजाय सवर्णों में पैठ बनाने की उत्सुकता अधिक दिखाई दे रही है, जबकि यह नहीं समझा जा रहा कि दक्षिणपंथ की राजनीति कांग्रेस से कहीं बेहतर रूप में भाजपा पहले ही कर रही है – तो फिर प्रभुत्वशाली वर्ग कांग्रेस के साथ क्यों जुड़ेंगे? कई बहुजन कांग्रेस नेता अब खुलकर कह रहे हैं कि राहुल गांधी के भाषणों और वादों के विपरीत, पार्टी ने इस बार भी बिहार के दलित और मुस्लिम नेताओं को नज़रअंदाज़ किया है। टिकट उन लोगों को दिए गए जिनकी धर्मनिरपेक्ष राजनीति संदिग्ध रही है या जो चुनाव से ठीक पहले पार्टी में शामिल हुए थे।

एनडीए की तरह कांग्रेस की सवर्ण लॉबी भी तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री पद का चेहरा मानने को तैयार नहीं थी। हालांकि जब दिल्ली स्थित शीर्ष नेतृत्व को बताया गया कि महागठबंधन में तेजस्वी से अधिक लोकप्रिय कोई नेता नहीं है, तो आख़िरी समय में वरिष्ठ नेता अशोक गहलोत को दिल्ली से बिहार भेजा गया, जिन्होंने औपचारिक रूप से तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया।

भाजपा ने मुसलमानों को नकारा, जदयू और महागठबंधन में भी पर्याप्त भागीदारी नहीं

इस चुनाव का एक बड़ा नकारात्मक पहलू यह है कि मुस्लिम प्रतिनिधित्व को एक बार फिर नज़रअंदाज़ कर दिया गया है। भाजपा ने जहां एक भी मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट नहीं दिया है, वहीं जदयू ने भी केवल तीन मुसलमानों को अपना उम्मीदवार बनाया है। इसके अलावा महागठबंधन ने भी मुस्लिम आबादी के अनुपात से बहुत कम सीटें दी हैं। महागठबंधन ने अति पिछड़ा वर्ग से आने वाले मुकेश सहनी को उपमुख्यमंत्री का चेहरा घोषित किया है, लेकिन अब तक किसी मुस्लिम उपमुख्यमंत्री के नाम की घोषणा नहीं हुई है। जबकि मुस्लिम वोट हमेशा से धर्मनिरपेक्ष दलों के लिए निर्णायक और वफ़ादार रहे हैं। चुनावी सभाओं में भी धर्मनिरपेक्ष दलों के नेता मुस्लिम समुदाय के मुद्दों पर खामोश नज़र आते हैं। इस बीच, असदुद्दीन ओवैसी की ‘ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन’ चुनाव मैदान में सक्रिय है, जिसकी अधिकतर सीटें सीमांचल के मुस्लिम बहुल इलाकों में हैं। आलोचकों का कहना है कि यह पार्टी धर्मनिरपेक्षता और मुस्लिम अधिकारों की बात तो करती है, लेकिन चुनाव से ठीक पहले उसकी बढ़ी हुई सक्रियता उसकी राजनीतिक गंभीरता पर प्रश्नचिह्न लगाती है। इस बार स्वयं एमआईएम के कई असंतुष्ट नेताओं ने आरोप लगाया है कि टिकट वितरण में ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं की अनदेखी की गई। इन तमाम राजनीतिक विवादों और स्वार्थों के टकराव के बीच अब सबकी निगाहें 14 नवंबर पर टिकी हैं, जब चुनाव परिणाम आएंगे और यह स्पष्ट होगा कि बिहार की राजनीति देश की दिशा किस ओर मोड़ेगी।

महागठबंधन का घोषणापत्र, सबको साधने की कोशिश

बहरहाल, इंडिया गठबंधन ने अपना घोषणापत्र जारी कर दिया है। घोषणापत्र में मुख्य रूप से 25 वादे किए गए हैं। इनमें सरकार बनने के 20 दिनों के भीतर प्रदेश के हर परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी देने का अधिनियम लाने और युवाओं को नौकरी देने की प्रक्रिया 20 महीनों के भीतर प्रारंभ करने; सभी संविदाकर्मी, नियोजित और आउटसोर्सिंग कर्मचारियों को स्थायी करने; आईटी, टेक्सटाइल, स्वास्थ्य सेवा, कृषि सेवा, फूड प्रोसेसिंग, नवीकरणीय ऊर्जा, लॉजिस्टिक्स और अन्य क्षेत्रों में कोरिडोर आधारित रोजगार का सृजन करने; पुरानी पेंशन योजना को पुनः लागू करने संबंधी वादे शामिल हैं। दलित-बहुजनों के दृष्टिकोण से देखें तो मनरेगा में मजदूरी 255 रुपए प्रतिदिन से बढ़ाकर 300 रुपए और 100 दिन की जगह 200 दिन का कार्य देने; अनुसूचित जाति व जनजाति के छात्रों को विदेश में पढ़ाई हेतु छात्रवृत्ति देने; आरक्षण की सीमा को 50 प्रतिशत से अधिक करने के लिए संविधान संशोधन का प्रस्ताव लाने; अनुसूचित जाति का आरक्षण 16 प्रतिशत से बढ़ाकर 20 प्रतिशत करने; अत्यंत पिछड़े वर्गों के कल्याण हेतु विशेष बोर्ड का गठन करने; नाई, कुम्हार, बढ़ई, लोहार, मोची, इत्यादि जातियों के स्व-रोजगार हेतु 5 लाख रुपए तक की एकमुश्त आर्थिक सहायता देने संबंधी घोषणाएं अहम हैं। हालांकि, एनडीए का अपना घोषणापत्र जारी किया जाना अभी भी बाकी है, जबकि चुनाव का पहला चरण समाप्त होने में एक सप्ताह से भी कम समय रह गया है।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

अभय कुमार

जेएनयू, नई दिल्ली से पीएचडी अभय कुमार संप्रति सम-सामयिक विषयों पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन करते हैं।

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