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एक और मास्टर साहेब सुनरदेव पासवान के गांव में, जहां महफूज है दलितों और पिछड़ों का साझा संघर्ष

बिहार में भूमि व मजदूरी हेतु 1960 के दशक में हुए आंदोलन के प्रणेताओं में से एक जगदीश मास्टर ‘मास्टर साहब’ के नाम से प्रसिद्ध हुए। लेकिन बीते 1 अक्टूबर, 2025 को पटना और भोजपुर की सीमा पर बसे एक गांव काब जाना हुआ। वहां के सुनरदेव पासवान मास्टर साहब के नाम से पूरे इलाके में प्रसिद्ध थे। पढ़ें, यह यात्रा संस्मरण

यात्रा संस्मरण 

बिहार में सम्मान और समानता की लड़ाई का सीधा संबंध जमीन से जुड़ा रहा है। आज भले ही यह लड़ाई गौण दिखती हो, क्योंकि आज गरीब-गुरबों के पास दिहाड़ी मजदूरी का विकल्प है। इस दिहाड़ी मजदूरी का लाभ यह मिलता है कि जो पहले खेतिहर मजदूर थे, और मजदूरी के नाम पर एक सेर अनाज पर निर्भर करते थे, आज वे रोज की दिहाड़ी में चार सौ से पांच सौ रुपए कमा लेते हैं। यह विकल्प 1960 के दशक में नहीं था। तब खेतिहर मजदूरों के पास सिवाय सामंतों के यहां हरवाही करने के कोई काम नहीं था। और यह काम वे कभी इच्छा से करते तो कभी अनिच्छा से। मजदूरी भी सामंतों की मनमर्जी पर तय होता था। उसी दौर में बिहार में भूमि संघर्ष का आगाज हुआ, जिसके प्रणेता भोजपुर के इकवारी गांव के रामनरेश राम, रामेश्वर अहीर और जगदीश मास्टर थे। 1960 के दशक के अंतिम दौर में प्रारंभ हुए इस संघर्ष ने पूरे मध्य बिहार को झकझोर दिया था और जिन लोगों के पीठ पर सामंत कोड़े बरसाते थे, उन लोगों ने अपने हाथ में हथियार उठा लिया। इस आंदोलन के प्रणेताओं में से एक जगदीश मास्टर ‘मास्टर साहब’ के नाम से प्रसिद्ध हुए। लेकिन बीते 1 अक्टूबर, 2025 को पटना और भोजपुर की सीमा पर बसे एक गांव काब जाना हुआ। वहां के सुनरदेव पासवान मास्टर साहब के नाम से पूरे इलाके में प्रसिद्ध थे।

राजधानी पटना के हृदयस्थली में अवस्थित मेरे गांव ब्रह्मपुर से सोन की कछार पर बसे काब गांव की इस यात्रा की पृष्ठभूमि पालीगंज विधानसभा क्षेत्र से दो बार विधायक रहे एन.के. नंदा द्वारा बताई गई एक दास्तान है। यह दास्तान उनकी ही जुबानी कुछ यूं है–

28 जुलाई, 1972 को चारू मजूमदार की शहादत के बाद पूरे देश में दबिश बढ़ गई थी। बिहार में भी इसका असर हुआ था। वर्ष 1975 आते-आते शासक वर्ग ने राष्ट्रीय स्तर पर नक्सलवादी आंदोलन को कुचल दिया था। भोजपुर और पटना जिले में भी भयंकर दमन हुआ। भोजपुर के चंवरी-बहुआरा की घटना घटित हो चुकी थी। साथी बूटन (मुसहर) और साथी गनेशी (पासवान) अर्द्धसैनिक बलों का मुकाबला करते हुए शहीद हो चुके थे। मास्टर जगदीश और रामेश्वर अहीर भी शहीद हो चुके थे। पार्टी के महासचिव साथी जौहर (सुब्रत दत्त) भी अपने साथियों के साथ पुलिस द्वारा मारे जा चुके थे। पटना जिला के घोरहुआं में भी अर्द्धसैनिक बलों का मुकाबला करते हुए 14 साथी शहीद हो चुके थे। बसुहार में साथी रवि (सुधीर रंजन) पुलिस के द्वारा मारे जा चुके थे और कई प्रमुख नेता गिरफ्तार किए जा चुके थे। इस तरह 1975 आते-आते पार्टी को देशव्यापी धक्के का सामना करना पड़ा।

“लेकिन इसके बाद 1978 में पुन: उठ खड़ा होने के लिए पार्टी (भाकपा माले) ने स्वयं को पुनर्गठित किया। मध्य बिहार में भी पार्टी के काम-काज के विस्तार की योजना बनाई गई। छात्र आंदोलन में जेल से आए कार्यकर्त्ता पार्टी का काम कर रहे थे। उन्हें योजनाबद्ध तरीके से नई-नई जिम्मेवारियां दी गईं। मुझे सोन नदी के किनारे के गांवों में काम करने की जिम्मेवारी मिली।

“वह जाड़े की एक शाम थी जब मुझे इजरता गांव बुलाया गया। सूर्यास्त के बाद मैं वहां पहुंच गया। खाना खाने के बाद एक साथी मुझे लेकर कल्याणपुर गए। दूसरे दिन भोर में ही वे मुझे अपने साथ लेकर वहां से निकले। चारों ओर धान की फसल लहलहा रही थी। ओस से भीगी आहर और पगडंडियों से होते हुए हम दोनों काब गांव पहुंचे। यह एक बड़ा गांव है। गांव में कई टोले हैं। हम जिस टोले में पहुंचे, उसका नाम बनछुली था। वहां सुनरदेव पासवान रहते थे। हम उनके दरवाजे पर पहुंचे। अभी सूर्योदय में काफी देर था। उन्होंने गर्मजोशी के साथ स्वागत किया। यही उनसे मेरी पहली मुलाकात थी।

“फिर मैं उनके यहां ही रहने लगा। पूरा टोला सुनरदेव पासवान का गोतिया था या कहिए उनके ही परिजनों का वह टोला था। सभी पार्टी के साथ मज़बूती से जुड़े थे। वहीं रहते हुए मैंने जाना कि गांव के सवर्ण उन्हें नफरत से ‘मस्टरवा’ और ग़रीब-गुरबे सम्मान से ‘मास्टर साहेब’ कहते हैं। आम जनता के बीच वे मास्टर साहेब के नाम से ही जाने जाते थे। उनका रंग गोरा था। इसलिए उनके माता-पिता ने यह नाम रखा होगा।

“मुझे आज भी उनकी छवि वैसे ही याद है जैसी छवि मैंने उस दिन भोर में देखा था। सामान्य कद, मज़बूत और भारी शरीर। बेतरतीब मूंछें। उनकी एक आंख ख़राब हो गई थी। देह पर धोती-कुर्ता और कंधे पर गमछा। पैरों में प्लास्टिक के जूते।

“ग़रीबों के बीच जन्म लेने वाले स्वाभिमानी अक्सर सामंती उत्पीड़न के ख़िलाफ़ खड़े हो जाते हैं और डकैत बन जाते हैं। ऐसे लोग ग़रीबों के मित्र होते हैं। सुनरदेव पासवान भी ऐसे ही थे। नक्षत्र मालाकार के जैसे ही वे केवल सामंतों के यहां ही डकैतियां करते थे। वे सभी जाति की औरतों का सम्मान करते थे। जबकि प्रभुत्वशाली जातियों के बीच से उभरे डकैतों का एकमात्र उद्देश्य अपनी जाति का प्रभुत्व कायम रखना होता है। ऐसे लोग ग़रीबों के उत्पीड़क होते हैं और महिलाओं के साथ बलात्कार करना इनकी संस्कृति होती है।

“स्वाभिमानी रामेश्वर अहीर को भी डकैत बनना पड़ा था और उन्हें उम्रकैद की सज़ा भुगतनी पड़ी थी। बक्सर जेल में उम्रकैद की सज़ा काटकर वे जब जेल से बाहर निकले, तब पार्टी के साथ उनका संपर्क हुआ और तब से आजीवन पार्टी से जुड़े रहे और जनता की सेवा करते रहे।

“वे डकैती की सफल योजना बनाने में अत्यंत ही माहिर थे। इसीलिए गिरोह के लोग उन्हें ‘मास्टर साहेब’ कहते थे। धीरे-धीरे यही नाम जनता के बीच भी प्रचलित हो गया और उनका यही नाम लोकप्रिय हो गया। पार्टी से जुड़ने के बाद मास्टर साहेब जनता को संगठित करने के लिए अपने गांव और आस-पास के गांवों के ग़रीबों की बैठकें आयोजित करने लगे। उनके सबसे पहले सहयोगी बने रामप्रवेश पासवान। सुनरदेव पासवान उन्हें काका कहते थे। रामप्रवेश पासवान दुबले-पतले और लंबे लेकिन मज़बूत शरीर वाले थे। रंग सांवला था और हाथ में हमेशा मज़बूत लाठी रखते थे। वे साहसी और कठिन परिस्थितियों में भी तुरंत निर्णय ले लेते थे। वे कुश्ती लड़ने और लाठी चलाने में भी माहिर थे। वे मास्टर साहेब के सबसे निकटतम और विश्वस्त सहयोगी थे। जनता उन्हें सम्मान के साथ बूढ़ा साथी कहती थी।

“जैसा कि मैंने पहले कहा कि मास्टर साहेब का बनछुली टोला दुसाधों (पासवान) का टोला है। इसे एक ज़मींदार छोटू सिंह ने बसाया था। इसलिए इस टोले के सभी लोग उनके बंधुआ मजदूर थे। लेकिन वे अन्य जमींदारों की तरह क्रूर नहीं थे। इस टोला के मज़दूरों को वे अपनी रैयत समझते थे। शादी-ब्याह, बीमारी या अन्य मौकों पर वे इनलोगों की मदद करते थे। खास बात यह कि वे जो मदद करते थे, उसे कर्ज नहीं समझते थे। जेठ में जब मालिक और मज़दूरों के बीच लेन-देन का हिसाब करने का समय आता था, तो वे कहते थे– कैसा हिसाब-किताब? तुम मेरे यहां काम करते हो, तो ज़रूरत पर मदद के लिए किसके पास जाओगे? हिसाब-किताब बराबर।

“यानि सारा कर्ज़ माफ़। अब वे इस दुनिया में नहीं हैं। हालांकि उनके जैसे उनके बड़े पुत्र महेश सिंह हैं। मास्टर साहेब के द्वारा वे भी पार्टी से जुड़े और सक्रिय हो गए। अभी उनकी उम्र 80 वर्ष को पार कर चुकी है और फिलहाल वे विभिन्न रोगों से ग्रसित हैं व इलाजरत हैं।

“खैर, रामप्रवेश पासवान मास्टर साहेब के बचपन के दोस्त थे। वे सत्तर वर्ष की उम्र में भी दुश्मन से भिड़ने का हौसला रखते थे। एक दिन गांव का ही एक युवा सामंत मास्टर साहेब के टोले में आकर लोगों को जबरदस्ती अपने खेत में काम कराने के लिए ले जाने लगा। मास्टर साहेब ने इसका विरोध किया और कहा कि मैं कभी भी आप के यहां काम करने नहीं जाऊंगा। युवा सामंत धमकाते हुए अपने घर गया कि मैं अभी आ रहा हूं। मास्टर साहेब ने रामप्रवेश पासवान को इसकी सूचना दी।

सुनरदेव पासवान की तस्वीर

“रामप्रवेश पासवान हमेशा लाठी अपने हाथ में रखते थे। सूचना मिलते ही वे आ गए। थोड़ी ही देर में ही वह सामंत भी हाथ में बंदूक लेकर ललकारते हुए इनके टोले में आ गया। लेकिन रामप्रवेश पासवान और सुनरदेव पासवान ने उसे संभलने का भी मौका नहीं दिया। वे उस पर लाठियों से दनादन प्रहार करने लगे। दोनों ने लाठियों से पीट-पीटकर उसके हाथ से ब्रिटेन में बनी बंदूक छीन ली। इस घटना में घायल होने के बाद भी युवा सामंत की ऐंठन नहीं गई। उसने अपने लोगों को गोलबंद करना शुरू किया।

“लेकिन जैसे ही यह ख़बर महेश सिंह को मिली, वे बनछुली की रक्षा के लिए सशस्त्र होकर तत्काल ही अपने मित्रों के साथ वहां पहुंच गए। काब गांव में यह ख़बर फैलते ही कि महेश सिंह वहां सशस्त्र मौजूद हैं, किसी की भी हिम्मत नहीं हुई।

“पुनपुन और सोन नदी के बीच के क्षेत्र में सामंत को लाठियों से पीटकर बंदूक छीन लेने की यह पहली घटना थी। इस घटना के बाद मास्टर साहेब सशस्त्र दस्ता के पूर्णकालिक योद्धा बन गए। वे इस सशस्त्र दस्ता के महवपूर्ण साथियों में थे और सामंतो की निजी सेनाओ के ख़िलाफ़ कई संघर्षों में साहसिक भूमिका निभा चुके थे।

“एक बार वे रकसिया गांव के मुसहरी में ठहरे हुए थे। पुलिस को इसकी सूचना मिल गई। भारी संख्या में पुलिस ने छापेमारी की। जिस घर में सुनरदेव पासवान टिके हुए थे, वहां पुलिस पहुंच गई। मुसहरी की महिलाओं ने पुलिस को घेर लिया और घर में घुसने से रोक दिया। उस घर की महिला जोर-जोर से चिल्लाने लगी कि मेरे समधी आए हुए हैं और वे बीमार हैं। वे मेरे यहां इलाज के लिए आए हैं। घर के भीतर मास्टर साहेब कोठिला (अनाज रखने के लिए मिट्टी का एक पात्र) पर रखी बोतल से सरसों तेल निकालकर अपने माथे में चुपड़ लिये और खाट पर लेट कर आह-आह करने लगे। महिलाओं पर लाठी चार्ज कर पुलिस घर में घुस गई। उसने मास्टर साहेब को डांटते हुए उठने को कहा। लेकिन उन्होंने लकवाग्रस्त रोगी की तरह हाथ-पांव काे बेजान रखा जैसे उनमें कोई ताकत ही नहीं है। पुलिस को विश्वास हो गया कि सच में यह बीमार और लकवाग्रस्त है। पुलिस वापस लौट गई। इस तरह मास्टर साहेब उस समय गिरफ़्तारी से बच गए।

“मास्टर साहेब हंसमुख और मजाकिया थे। वे रात में विचरने वाले जानवर और पक्षियों की बोलियों की हू-ब-हू नकल कर लेते थे। रात में अपने दस्ते को सचेत करने के लिए जगह के मुताबिक वे इन आवाजों का प्रयोग करते थे। जैसे, दूर-दूर तक फैले हुए चौर (गांव में खेती के क्षेत्र) में वे जानवर की बोली बोलते थे। जलाशय या नदी के आस-पास से गुजरते समय वह नदी के किनारे रहने वाले पंछियों की आवाज निकालने लगते।

“जब उनकी उम्र ज्यादा हो गई, तब वे अपने घर पर ही रहने लगे। जब रणवीर सेना का आतंक था, तब भी वे जनता को सचेत करते रहे। एक दिन उन्होंने अपने गांव में ही हैबसपुर जनसंहार कांड के मुख्य आरोपी व कुख्यात लांगड़ सिंह को लाठियों से पीट-पीट कर मार डाला और उसके पैर में रस्सी बांध कर घसीटते हुए गांव से बाहर फेंक दिया। हैबसपुर जनसंहार को रणवीर सेना ने 23 मार्च, 1997 को अंजाम दिया था, जिसमें मुसहर समुदाय के 14 लोगों की हत्या कर दी गई थी।

“जब लांगड़ सिंह की हत्या की खबर पुलिस महकमे को मिली तब पटना पुलिस के एक बड़े अधिकारी ने सुनरदेव पासवान की बहादुरी की तारीफ की और कहा कि आप पुलिस से डरें नहीं, पुलिस आपके खिलाफ कभी कोई कार्यवाही नहीं करेगी।

“सुनरदेव पासवान का निधन 3 नवंबर, 2014 हो गया।”

एन.के. नंदा की जुबानी सुनरदेव पासवान की उपरोक्त कहानी इस मायने में खास है कि सुनरदेव पासवान स्वतंत्रता के उपरांत बिहार में दलितों और पिछड़ों के साझा संघर्ष के प्रतिमान रहे। लेकिन आज काब और आसपास के गांवों में हालात क्या हैं और यह कि सुनरदेव पासवान के संघर्ष के क्या परिणाम हुए हैं, देखने-समझने के लिए मैं एन.के. नंदा जी के साथ काब गांव के बनछुली टोला पहुंचा। हमारा स्वागत वहां के दो युवाओं अरविंद पासवान और राकेश पासवान ने किया। बमुश्किल से दस-पंद्रह घर के इस टोले में जाने हेतु प्रवेश के रास्ते पर ही एक खटिया रखी थी और एक कुर्सी। हमारे पहुंचने पर एक और कुर्सी लायी गई।

एन.के. नंदा इसी पालीगंज इलाके से विधायक रहे। लेकिन मैंने देखा कि उन्हें किसी ने नेताजी नहीं कहा। क्या छोटे और क्या बड़े, सभी के लिए वे नंदा जी ही हैं। अभिवादन के लिए मुट्ठी बंद कर तानते हुए– ‘लाल सलाम’। गांव की कुछ महिलाएं मिलीं। ये महिलाएं थीं– रामझारी देवी, लाल परी देवी, राजमती देवी और मनमातिया देवी। उन सभी ने मगही में नंदा जी का स्वागत किया और शिकायत भी की कि इतने लंबे समय के बाद आपको हमारी याद आई।

काब गांव के बनछुली टोला की महिलाएं व पूर्व विधायक एन.के. नंदा (सबसे बाएं)

एन.के. नंदा ने बताया कि वे इस गांव में 15 वर्षों के बाद आए हैं। ऐसे में लोगों की शिकायत को गैर-वाजिब नहीं कहा जा सकता। मैं बनछुली टोले को देख रहा था। मिट्टी के एक-दो घर टोले के अंदर जरूर मिले, लेकिन अधिकांश घर ईंट से बने थे। टोले का रकबा मुश्किल से तीन-चार कट्ठा रहा होगा। जबकि टोले के ठीक सामने एक कब्रिस्तान है, जिसका रकबा पूछने पर अरविंद पासवान ने कहा कि यह कम से कम चार-पांच बीघा जरूर होगा।

सुनरदेव पासवान के बारे में पूछने पर अरविंद पासवान ने बताया कि वे सुनरदेव पासवान के भाई रूपधारी पासवान के पोते हैं। सुनरदेव पासवान के दो भाई थे, जिनका नाम था– रूपधारी पासवान और तारकेश्वर पासवान। सुनरदेव पासवान के चार बेटे हुए– कृष्णा पासवान, कीचक पासवान, विश्वनाथ पासवान और लव पासवान।

क्या अब भी सवर्ण सामंत परेशान करते हैं आपलोगों को? यह पूछने पर एक बुजुर्ग महिला रामझारी देवी ने कहा– “अब उनमें इतनी हिम्मत कहां। अब तो दो-चार बात हमलोग ही सुना देते हैं। यदि कोई झगड़ा हुआ भी तो हम उनके बराबर ही पड़ते हैं।” वहीं युवा राकेश पासवान ने कहा कि “पांच साल पहले तक ऐसा होता था कि हमारे टोले का कोई लड़का बढ़िया कपड़ा-लत्ता पहनकर स्कूल जाता तब वे लोग उसे रोक कर मारते-पीटते थे। यहां तक मेरे छोटे भाई के साथ भी हुआ। लेकिन तब मैंने इसकी शिकायत थाने में की और जब कार्रवाई हुई तो यह सब बंद हुआ।”

अरविंद पासवान ने कहा कि “जब सुनरदेव पासवान थे और नंदा जी यहां थे तभी से माहौल बदला। हालांकि अब भी कभी-कभार वे आंख दिखाने की कोशिश करते हैं, लेकिन हम भी पीछे नहीं रहते। पहले हमारे पास मजबूरी रहती थी।”

कैसी मजबूरी? पूछने पर अरविंद पासवान ने बताया कि “हमलोग भूमिहीन हैं। आज भी जिस जगह पर हमारा घर है, वह महेश सिंह का दिया हुआ है। उन्होंने जमीन हमारे नाम पर आज तक नहीं किया है। तो पहले होता यह था कि हमें मजदूरी करने के लिए सवर्ण सामंतों के खेत में जाना पड़ता था। इसलिए लात-बात सुनने की मजबूरी थी। लेकिन अब दिहाड़ी मजदूरी है। और रोजगार के कई साधन हैं।”

पहले कितनी मजदूरी मिलती थी? यह पूछने पर राजमती देवी ने कहा– “सवा सेर कच्ची, एक किलो पक्की और पाव भर सत्तू”। बात मुझे समझ में नहीं आई तब नंदा जी ने विस्तार से समझाते हुए कहा कि “कच्ची का मतलब धान और पक्की का मतलब तैयार चावल। मजदूरी के रूप में पहले केवल धान दिया जाता था, लेकिन जब आंदोलन हुआ तब तैयार चावल दिया जाने लगा।”

नंदा जी ने बताया कि “बिहार में लड़ाई के केंद्र में मजदूरी का सवाल तो था ही, सम्मान का भी सवाल था।”

जब हम बात कर रहे थे तभी एक बुजुर्ग आए। उन्होंने और नंदा जी ने एक-दूसरे को मुट्ठी बांध कर लाल सलाम कहा। दोनों की आंखें नम हो गईं। नंदा जी ने बताया कि इनका नाम चिरगुनी पासवान है। ये मेरी उम्र के ही हैं। जिन दिनों मैं बनछुली में रह रहा था तब ये बहुत जिद्दी थे और मेरे अलावा किसी की बात नहीं मानते थे। उन दिनों को याद करते हुए चिरगुनी पासवान रोने लगे।

महिलाएं बता रही थीं कि संघर्ष में उनका योगदान क्या था। एक घटना को याद करते हुए नंदा जी ने बताया कि एक बार पुलिस ने बनछुली में छापेमारी की। हालांकि तब वे वहां उपस्थित नहीं थे। लेकिन एक बंदूक थी। तब महिलाओं ने खिड़की से बंदूक को पीछे फेंक दिया। एक पुलिसकर्मी ने उन्हें फेंकते देख लिया, लेकिन उसने अपने साथियों को इसकी कोई सूचना नहीं दी। वह पुलिसकर्मी भी सामंतों का विरोध करता था।

आप लोग नंदा जी को पुलिस से बचाते कैसे थे? यह पूछने पर रामझारी देवी ने बताया कि “तब हम सभी को यही कहते थे कि हमारे नाते-रिश्तेदार हैं। और हमारे बच्चे भी कोई बात दूसरों से साझा नहीं करते थे। तब अरविंद एकदम छोटा ही था। एक दिन नंदा जी ने ही पीठ ठोंक कर कहा था कि एक दिन नेता बनना। और आज यह हमारा नेता है।”

बनछुली टोले में कहीं भी मंदिर नहीं है। हालांकि एक-दो घरों के दरवाजे पर हिंदू देवी-देवताओं की तस्वीरें थीं। यह पूछने पर कि क्या यहां ब्राह्मण आते हैं, अरविंद पासवान ने कहा कि वे शादी-विवाह और दशकर्म आदि के मौके पर दान-दक्षिणा लेने आते हैं। वे हमारे यहां का पका हुआ कोई भोजन नहीं खाते। यहां तक कि वे हमारे यहां का पानी तक नहीं पीते।

यह पूछने पर कि आसपास के पिछड़े समाज के लोगों का व्यवहार कैसा रहता है, अरविंद पासवान ने कहा कि वे सभी हमारे जैसे हैं। संघर्ष में वे हमारा साथ देते हैं। एक उदाहरण देते हुए अरविंद पासवान ने कहा कि वे बगल के गांव में आज ही एक मामले की पंचायत के लिए गए थे। यह एक अंतरजातीय विवाह का मामला था, जिसमें लड़की महतो जाति की है और लड़का नाई जाति का। इस तरह हम दलित और पिछड़े एक-दूसरे के साथ खड़े होते हैं।

काब गांव में हुए आंदोलन में और किन-किन जातियों के लोगों की हिस्सेदारी रही? इस सवाल के जवाब में एन.के. नंदा ने कहा कि यह एक साझा संघर्ष था। इसमें कानू, गरेड़ी, कहार आदि पिछड़ी जातियों के अलावा चमार जाति के लोगाें की सक्रिय सहभागिता थी।

बनछुली टोले की वर्तमान पीढ़ी में कितने लोग हैं, जिन्होंने मैट्रिक से अधिक की पढ़ाई की है, पूछने पर राकेश पासवान ने कहा कि अब तो लगभग सभी बच्चे मैट्रिक पास हैं। लेकिन ग्रेजुएट दो-तीन ही हैं। आपने स्वयं कहां तक पढ़ाई की है, पूछने पर राकेश ने बताया कि उन्होंने दसवीं तक पढ़ाई की है और अभी वे रोजगार के तौर पर ड्राइवरी करते हैं। वहीं अरविंद पासवान ने बताया कि हालांकि उन्हें पढ़ाई के दौरान ऊंची जातियों के उत्पीड़न का सामना करना पड़ा, यहां तक कि गाली और मारपीट भी सहनी पड़ी, लेकिन उन्होंने मैट्रिक तक की पढ़ाई की।

हम सभी बात कर रहे थे तभी मैंने टोले को और सुनरदेव पासवान के घर को देखने की इच्छा की। जैसे ही हम टोले के बीच में बने एक कुएं के पास पहुंचे, नंदा जी की आंखें चमकने लगीं। वे कहने लगे कि इसी कुएं पर भोर के अंधेरे में वे नहाते थे। और बगल में ही सुनरदेव पासवान के घर में रहते थे। हालांकि वह मिट्टी का घर अब नहीं है। वहां एक छोटा-सा कमरानुमा घर है। इसी क्रम में नंदा जी ने सुनरदेव पासवान की पत्नी देवरानी देवी के बारे में बताया–

“उनका रंग सांवला था। सामान्य कद और मजबूत शरीर। वे एक जुझारू और साहसी महिला थीं। हर जगह जन-प्रतिरोध में उनकी अग्रणी भूमिका होती थी। मुझे उनके इस घर में लंबे समय तक रहने का अवसर मिला। पहले तो दो वर्षों तक यह मेरा स्थायी आवास ही रहा। कभी-कभार कहीं जाना होता तो भी लौटकर बनछुली ही आता। बाद में भी बनछुली आना-जाना लगा रहा। इस दौरान देवरानी देवी ने मुझे अपना छोटा भाई समझा और हमेशा बड़ी बहन का स्नेह दिया। जब भी मैं उनके घर से निकलता – सुबह हो या दोपहर – वे बिना कुछ खिलाए कभी मुझे गांव से बाहर निकलने नहीं देती थीं। वे कहती थीं कि पता नहीं, बाहर में खाना मिलेगा या नहीं। इसके साथ ही वह अपने आंचल के कोने में हमेशा कुछ पैसा बांध कर रखती थीं, जिसे वे चलते वक़्त मुझे देती थीं, ताकि कभी खाना ना मिलने पर बाजार से कुछ खरीद कर खा लूं। मैं कभी सिर में तेल नहीं लगाता था। वह हमेशा माथे में तेल लगाने के लिए कहती थीं। कभी-कभी वे अपने हाथों से मेरे माथे में तेल लगाती थीं। कभी-कभी मेरे गांव [नरही, काब से करीब चार-पांच किलोमीटर पूरब] या आस-पास के गांव में पार्टी का कोई कार्यक्रम होता, तो शामिल होतीं और मेरी मां से जरूर मिलतीं और बेटी की तरह उनकी सेवा करतीं।”

दलितों और पिछड़ों के साझे संघर्ष का इतिहास संजोए काब गांव के बनछुली टोले में हम लोगों से मिल रहे थे। तभी राकेश पासवान ने कहा कि खाना बन गया है, चलकर खा लें। नंदा जी और मैंने उनके इस आमंत्रण को सहज ही स्वीकार किया।

(संपादन : अनिल)


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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