ब्राह्मण धर्मावलंबियों के त्यौहार दीपावली के समान ही झारखंड और आस-पास के राज्यों में जब रातें ठंडी होने लगती हैं और खेतों में नई फसल की सुगंध फैलने लगती हैं, तब सोहराय पर्व मनाया जाता है। यह पर्व न केवल झारखंड, बल्कि ओड़िशा, छत्तीसगढ़, बिहार, पश्चिम बंगाल और असम जैसे राज्यों में भी समान श्रद्धा और उल्लास के साथ मनाया जाता है। यह पर्व फसलों की अच्छी उपज और पशुधन की खुशहाली के लिए आभार प्रकट करने का अनूठा तरीका है।
झारखंड में संथाल, मुंडा, हो या अन्य आदिवासी समुदायों के लिए यह विशेष त्यौहार है। यह उनके सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। इस पर्व को आदिवासियों के साथ-साथ कहीं-कहीं सदान यानी गैर आदिवासी समुदायों के लोग भी हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं।
सोहराय पर्व का संबंध ‘सराहने’ या ‘सहलाने’ से है, जिसका अर्थ है– पशुओं को दुलारना, उनकी सेवा करना और उनके प्रति कृतज्ञता जताना। यह पर्व मनुष्य और पशु के पारस्परिक संबंध का प्रतीक है। एक ऐसा संबंध जिसमें मनुष्य अपने पशुओं को केवल श्रम का साधन नहीं, बल्कि परिवार का सदस्य मानता है।
झारखंड एक बहुप्रजातीय और बहुसांस्कृतिक राज्य है, जहां आर्य, द्रविड़ और ऑस्ट्रिक तीनों संस्कृति की धाराएं एक साथ प्रवाहित होती हैं। यही संगम झारखंडी संस्कृति का विशिष्ट स्वरूप रचता है। झारखंड का शायद ही कोई महीना हो जब कोई पर्व-त्योहार न मनाया जाता हो। यहां के आदिवासी प्रकृति के साथ जीते हैं, और हर मौसम के साथ एक नए उत्सव का आगमन होता है। करम और सरहुल जैसे प्रमुख त्योहारों के बाद सोहराय पर्व को सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण पर्व माना जाता है।
इस पर्व को विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है। जैसे कहीं इसे गोहाल पूजा, कहीं डांगर पूजा, और कहीं बांदना परब कहा जाता है। वहीं नेतरहाट के असुर, बिरजिया आदि आदिम जनजातियों के लोग इसे भैंसासुर की पूजा भी कहते हैं। इसे दीपावली के अगले दिन मनाया जाता है।
सोहराय पर्व की परंपरा अत्यंत प्राचीन मानी जाती है। इसकी जड़ें मानव सभ्यता के उस युग से जुड़ी हैं जब मनुष्य ने खेती-बाड़ी और पशुपालन को जीवन का आधार बनाया था। इतिहासकारों के अनुसार, इसका संबंध पशुचारण युग से है — जब मानव ने प्रकृति और पशुओं के साथ सामंजस्य का रिश्ता बनाया।

झारखंड के आदिवासी अपने गाय-बैलों के सींगों में तेल और सिंदूर लगाते हैं। इसे तेल मखाई कहा जाता है। अमावस्या की रात में पशुओं के गोहाल में चौमुखी दीया जलाने की परंपरा है। इसी दिन सात प्रकार के अन्न– जैसे गेहूं, मक्का, बाजरा, अरहर, उड़द, कुरथी और धान को मिलाकर उबाला जाता है और उसे पशुओं को श्रेष्ठ आहार के रूप में खाने को दिया जाता है। यही आहार आदिवासी स्वयं भी ग्रहण करते हैं। इस तरह से यह पर्व साझे जीवन और सामूहिकता के दर्शन का प्रतीक बन जाता है।
इस पर्व के मौके पर गांव के चरवाहे और युवक ढोल, मांदर, नगाड़ा और करताल लेकर चांचर गीत (जो सोहराय के अवसर पर गाया जाता है) गाते हुए घर-घर घूमते हैं। घरों में लोग उन्हें पकवान, अन्न, और दक्षिणा देकर विदा करते हैं। खोरठा भाषा में इन गीतों को ‘हराबदिया’ गीत भी कहा जाता है।

पर्व की विविधता और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
सोहराय पर्व की कहानियां और रस्में अलग-अलग क्षेत्रों में भले ही कुछ भिन्न रूपों में दिखाई देती हों, लेकिन इसका मूल भाव एक ही है– पशु, प्रकृति और मनुष्य के सह-अस्तित्व का उत्सव। विभिन्न जनजातीय परंपराओं में इसे अलग-अलग समय पर मनाया जाता है। कहीं यह दीपावली के साथ, तो कहीं पौष माह यानि मकर संक्रांति के समय आयोजित होता है। यह भिन्नता हूल विद्रोह (1855) के बाद विभिन्न क्षेत्रों में हुए सामाजिक विभाजन और स्थानांतरण के कारण मानी जाती है।
घर, रंग और स्त्रियों की सृजनात्मक भूमिका
सोहराय पर्व की तैयारी कुछ दिन पहले से शुरू हो जाती है। महिलाएं अपने घरों की सफाई, मिट्टी और गोबर से लिपाई व चूने से पुताई के बाद दीवारों पर रंगों का संसार बनाने लगती हैं। इसे सोहराय चित्रकला भी कहा जाता है। यह न केवल एक कला है, बल्कि आदिवासी महिलाओं की सामूहिक स्मृति, श्रम और सृजन की जीवित परंपरा है। इस कला का केंद्र झारखंड के हजारीबाग, गिरिडीह, दुमका और बोकारो जैसे जिलों में है। इस कला की दो प्रमुख शैलियां पाई जाती हैं– मंझू सोहराय तथा कुड़मी सोहराय।
सोहराय कला के माध्यम से विभिन्न जनजातीय समुदायों की महिलाएं पीढ़ी-दर-पीढ़ी मिट्टी, गोबर और प्राकृतिक रंगों के माध्यम से जीवन, प्रकृति और पशु-पक्षियों की आकृतियों को उकेरती आई हैं। इसके सबसे प्राचीन प्रमाण हजारीबाग के ‘इसको’ गुफा में मिले चित्रों में देखे जा सकते हैं, जिनसे संकेत मिलता है कि यह परंपरा पांच हज़ार वर्ष से भी अधिक पुरानी हो सकती है।

समय के साथ यह कला घरों की दीवारों से निकलकर आधुनिक अभिव्यक्तियों तक पहुंच चुकी है – अब यह कपड़ों, चादरों, हैंडक्राफ्ट वस्तुओं और डिजिटल डिज़ाइनों पर भी दिखाई देती है। वर्ष 2020 में सोहराय चित्रकला को भारत सरकार द्वारा ‘जी आई’ टैग प्राप्त हुआ, जिसने इसे न केवल राष्ट्रीय, बल्कि वैश्विक पहचान भी प्रदान की।
यह कला केवल सौंदर्य की अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि स्त्रियों की स्मृति, श्रम और सृजन का दृश्य रूप है। यह इस बात का प्रमाण है कि आदिवासी समाज में स्त्रियां केवल सहभागी नहीं, बल्कि संस्कृति की वाहक और सर्जक हैं।
सोहराय पर्व भाई-बहन के पवित्र और अटूट संबंध का भी प्रतीक है। आदिवासी संथाल समाज में इस पर्व को प्रेम, पारिवारिकता और आपसी संबंधों के पुनर्स्थापन का अवसर माना जाता है। पारंपरिक मान्यता के अनुसार, सोहराय के अवसर पर भाई अपनी विवाहित बहन के घर जाकर उसे मायके आने का निमंत्रण देता है। बहन उस निमंत्रण को स्वीकार कर अपने मायके लौटती है और पूरे परिवार के साथ इस पर्व को मनाती है।
कहा जाता है कि यदि कोई भाई अपनी बहन को निमंत्रण नहीं भेजता, तो वह सोहराय में मायके नहीं आती है और समाज में इसे अच्छा नहीं माना जाता है। कुछ परंपराओं में तो यह भी माना गया है कि भाई को इसका प्रतीकात्मक दंड भी भुगतना पड़ता है।
मरांग बुरु और बूढ़े किसान की कहानी
आदिवासी समाज में सोहराय पर्व से जुड़ी अनेक लोककथाएं प्रचलित हैं। हर जनजाति के पास अपनी-अपनी व्याख्या है। एक लोकप्रिय कथा कुछ यूं है कि बहुत समय पहले एक बूढ़ा किसान नदी किनारे बैठा था। उसने देखा कि एक बछड़ा कीचड़ में सना हुआ है। उस बूढ़े ने बछड़े को नदी में ले जाकर नहलाया, साफ किया, और सहलाने लगा। बछड़ा चमकने लगा, और थोड़ी देर में उसकी मां वहां आ पहुंची। गाय ने जब यह देखा कि एक आदमी उसके बच्चे को इतना प्यार कर रहा है, तो वह भावविभोर हो गई।
गाय ने बूढ़े से कहा कि तुमने मेरे बच्चे को सम्मान और स्नेह दिया है, इसलिए मैं तुम्हारे साथ रहना चाहूंगी और तुम्हारी मदद करूंगी। और वह बूढ़े के घर चली गई, दूध और गोबर से उसे समृद्ध करती रही। समय के साथ उसके बछड़े बड़े होकर खेत में हल चलाने वाले बैल बन गए, जिनकी मदद से बूढ़े की फसलें लहलहा उठीं।
लेकिन, जब फसल आई तो बूढ़े ने उन पशुओं को एक दाना भी खाने को नहीं दिया। हमेशा की तरह वही रूखी-सूखी घास डाल दी। आहत होकर गाय और उसके बछड़े जो बैल बन चुके थे, जंगल की ओर चल पड़े। बूढ़ा किसान तब बहुत पछताया और उसने उन्हें रोकने की कोशिश की। लेकिन वे नहीं माने। तभी मरांग बुरु (आदिवासियों के प्रमुख देवता) प्रकट हुए और बूढ़े किसान से कहा कि इन पशुओं के बिना तुम्हारा अन्न अधूरा है, इन पशुओं ने ही तुम्हें समृद्ध किया है। यह तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम अपनी फसल का एक हिस्सा इन्हें अर्पित करो।
कहा जाता है कि तभी से सोहराय पर्व की शुरुआत हुई, जो आज भी प्रकृति, पशु और मानव के सह-अस्तित्व का प्रतीक है।
पांच दिनों का उत्सव
झारखंड के आदिवासी बहुल इलाकों में सोहराय पर्व पांच दिनों तक मनाया जाता है। हर दिन की अपनी विशिष्ट मान्यता, अनुष्ठान और प्रतीकात्मकता होती है। मसलन, पहले दिन उम नड़का कहा जाता है। इस दिन गांव के सभी घरों और गोहालों (पशुओं के रहने का स्थान) की सफाई की जाती है। कृषि उपकरणों जैसे हल, जुआठ आदि को धोकर पवित्र किया जाता है। इसी दिन गाय-बैलों के सींगों पर तेल लगाया जाता है, जिसे तेल मखाई कहा जाता है। कुजरी के तेल से पशुओं के शरीर की मालिश की जाती है, जिससे उनके शरीर के सारे बैक्टीरिया और घाव सब ठीक हो जाते है और शरीर पर चमक आ जाती है।
रात में चौमुखी दीया (चार मुख वाला दीपक) जलाकर गोहाल को आलोकित किया जाता है, जो चारों दिशाओं में समृद्धि और पवित्रता का प्रतीक है। इस दिन जाहेर एरा, गोसाई ऐरा, मरांग बुरु का आह्वान भी किया जाता है।
दूसरे दिन जिसे दाकाय दिन कहा जाता है, महिलाएं सुबह-सुबह चावल के घोल से घर के द्वार से लेकर गोहाल तक अल्पना लगाती हैं। गांव के पाहन (मुख्य पुजारी) द्वारा पशु और गोहाल की विधिवत पूजा की जाती है। इस दौरान मुर्गा या सुअर की बलि दी जाती है और हड़िया (चावल से बनी पारंपरिक मदिरा) को पूर्वजों को अर्पित किया जाता है। बाद में सभी इसे ग्रहण करते हैं। किसी किसी समुदाय में बैलों से अंडे फोड़वाने की यह अनोखी परंपरा भी देखने को मिलती है, जिसे सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है।
तीसरे दिन को ‘खूंटव’ कहा जाता है। इस दिन को मवेशियों को धान की बाली एवं मालाओं से सजाकर खूंटे से बांधा जाता है। कहीं कहीं इसे ‘सण्टाऊ’ भी कहा जाता है। इस दिन एक खेल भी खेला जाता है। इसके लिए गांव के अखरा में एक मजबूत ऊंचा खूंटा गाड़ा जाता है। उसके शीर्ष पर गुड़ और चावल के आटे से बनी गुड़ पीठा (मीठी रोटी) बांधी जाती है, और नीचे एक शक्तिशाली बैल को बांध दिया जाता है। आदिवासी युवक उस रोटी को बिना बैल के वार से घायल हुए निकालने का प्रयास करते हैं। जो इसमें सफल होते हैं, उन्हें वीर कहा जाता है और पाहन उन्हें नए वस्त्र देकर सम्मानित करते हैं। वही कहीं-कहीं प्रत्येक घर के द्वार पर बैलों को बांधकर पीठा पकवान का माला पहनाने का रिवाज है। इसके तहत ढोल और मांदर आदि बजाते हुए बैल से पीठा को छीनने का खेल होता है।

सोहराय पर्व का चौथा दिन ‘जाले पूजा’ के नाम से जाना जाता है। इस दिन गांव के युवक मांदर और नगाड़े की थाप पर नाच-गान करते हुए घर-घर जाते हैं। हर घर के लोग उन्हें प्रसाद और भोजन देते हैं। अंत में जिस घर में यह सामूहिक नृत्य-गान समाप्त होता है, उसका गृहस्वामी हड़िया (स्थानीय पेय) युवकों को भेंट करता है। दिनभर का यह आयोजन आपसी सौहार्द और भाईचारे की मिसाल होता है, जिसमें हर घर सहभागी बनता है।
पांचवें और अंतिम दिन को ‘हाको काटकोम’ कहा जाता है। हाको का अर्थ संथाली भाषा में मछली है। इस दिन गांव के पुरुष, बच्चे और बुजुर्ग सभी मिलकर पास के तालाबों की ओर जाते हैं। वे सामूहिक रूप से मछलियों का शिकार करते हैं। दिनभर की इस गतिविधि के बाद गांव में सामूहिक भोज का आयोजन होता है। गांव से एकत्रित चावल, दाल आदि से खिचड़ी भी बनाया जाता है, जिसे गांव के लोग एक साथ कतार में बैठकर खाते हैं। महिलाएं विशेष पकवान बनाती हैं और शाम तक नृत्य और गीतों का दौर चलता है।
इस तरह सोहराय पर्व के दौरान मनुष्य, पशु, और प्रकृति सभी मिलकर जीवन के चक्र को पूर्ण करते हैं।
(संपादन : नवल/अनिल)