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बिहार चुनाव : एनडीए जीता तो बढ़ जाएगी विधान सभा में ऊंची जातियों की हिस्सेदारी

वर्ष 1990 में जब बिहार के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य में एक मोड़ आता है और लालू यादव सत्ता की बागडोर संभालते हैं तो विधान सभा की सामाजिक संरचना भी उलट जाती है। पहली बार पिछड़े विधायकों की संख्या उच्च जातियों के विधायकों की संख्या से अधिक हो जाती है। पढ़ें, रिंकु यादव का यह आलेख

बिहार में विधान सभा के चुनाव हो रहे हैं। एससी-एसटी के लिए राजनीतिक आरक्षण लागू है। राजनीतिक दलों की ओर से आरक्षित सीटों पर एससी-एसटी उम्मीदवारों को उतारना बाध्यता है। लेकिन शेष का हिस्सा तय नहीं है। ऐसी स्थिति में विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा टिकट वितरण की सामाजिक संरचना पर गौर करना महत्वपूर्ण हो जाता है। यह बहुत कुछ बताता है। मोटे तौर पर दोनों गठबंधनों – इंडिया और एनडीए – के घटक दलों द्वारा टिकट वितरण में ऊंची जाति के हिंदुओं और हिंदू अतिपिछड़े-पिछड़े समूह की हिस्सेदारी की स्थिति पर गौर करते हैं। इसके पहले यह जान लेना भी महत्वपूर्ण है कि 2023 में बिहार में हुए जातिगत सर्वेक्षण बताता है कि उच्च जाति हिंदू 10.57 प्रतिशत और हिंदू पिछड़े-अतिपिछड़े 50.09 प्रतिशत हैं।

एनडीए की घटक दल भाजपा बिहार में 101 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। इसने लगभग आधी 49 सीटों पर ऊंची जाति हिंदू उम्मीदवार खड़े किए हैं। भाजपा के हिस्से 12 आरक्षित सीटें हैं। इन सीटों को छोड़कर देखें तो उसके 89 सामान्य सीटों पर 55 फीसदी ऊंची जाति हिंदू उम्मीदवार हैं। शेष 40 सीटें हिंदू पिछड़े-अतिपिछड़े के हिस्से गई हैं। वहीं, भाजपा के बराबर 101 सीटों पर लड़ रही जदयू के भी उम्मीदवारों में 22 ऊंची जाति हिंदू हैं। एससी-एसटी के लिए आरक्षित 16 सीटें जदयू के हिस्से हैं तो इसके उम्मीदवारों में हिंदू पिछड़ों-अतिपिछड़ों के हिस्से 59 सीटें हैं। लोजपा (आर) ने 29 में से 10 सीटें ऊंची जाति हिंदुओं के हवाले किया है। कुल 6 आरक्षित सीटें लोजपा के हिस्से हैं तो इसके उम्मीदवारों में 12 हिंदू पिछड़े-अतिपिछड़े हैं। जीतनराम मांझी की पार्टी हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) ने 6 में से 2 सीटें ऊंची जाति हिंदुओं के हवाले किया है। वहीं उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी राष्ट्रीय लोकतांत्रिक मोर्चा ने 6 में से 2 सीटें ऊंची जाति हिंदुओं को दिया है।

कुल मिलाकर एनडीए ने 243 में 85 सीटें यानी लगभग 34.97 प्रतिशत ऊंची जाति हिंदुओं के हवाले किया है। एससी-एसटी के लिए आरक्षित सीटें छोड़ दें तो 204 सामान्य सीटों में से 5 पर मुस्लिम उम्मीदवार हैं। शेष बची 199 सामान्य सीटों में 85 पर ऊंची जाति के हिंदू हैं। एनडीए ने कुल 114 हिंदू पिछड़ों-अतिपिछड़ों को अपना उम्मीदवार बनाया है। यह लगभग 46.91 प्रतिशत होता है। आबादी में हिस्सेदारी के आधार पर बात करें तो एनडीए ने ऊंची जाति के हिंदुओं को तीन गुना से ज्यादा सीटें दी हैं तो हिंदू पिछड़े-अतिपिछड़े को आबादी से कम।

वहीं, इंडिया महागठबंधन ने 39 सीटों पर ऊंची जाति हिंदुओं को उम्मीदवार बनाया है। कुल सीटों के लिहाज से यह लगभग 16.04 प्रतिशत है और उसकी आबादी के डेढ़ गुना के लगभग है।

अब भी आबादी के अनुपात में कम होती है पिछड़ों की भागीदारी

ध्यान दिया जाना चाहिए कि 2020 विधानसभा चुनाव में एनडीए ने 74 सवर्णों को टिकट दिया था। जबकि एससी-एसटी के लिए आरक्षित सीटों के साथ जदयू द्वारा मुसलमानों को दिए गए 11 सीटों को छोड़ दें तो 119 सीटें हिंदू पिछड़े-अतिपिछड़े के हिस्से गई थीं। भाजपा ने अपने हिस्से की 110 सीटों में 50 ऊंची जाति हिंदुओं के हवाले किया था और जदयू ने अपने हिस्से की 115 सीटों में 19 ऊंची जाति हिंदुओं को दिया था।

हम देखते हैं कि एनडीए ने 2020 में 30.45 प्रतिशत सीटें ऊंची जाति हिंदुओं के हवाले किया था। यह इस बार यानी 2025 में बढ़कर 34.97 प्रतिशत हो गया है। दूसरी तरफ एनडीए ने 2020 में 48.97 प्रतिशत सीटों पर हिंदू पिछड़े-अतिपिछड़ों को उम्मीदवार बनाया था। यह आंकड़ा इस बार यानी 2025 में घटकर 46.91 प्रतिशत हो गया है। इस बार भाजपा 9 कम सीटों पर लड़ रही है तो उसने ऊंची जाति हिंदुओं का एक सीट घटाया है। वहीं,जदयू 14 कम सीटों पर लड़ रही है, लेकिन उसने ऊंची जाति हिंदुओं को 3 सीटें ज्यादा दी है। टिकट वितरण में पिछली बार की तुलना में जदयू में भी ऊंची जाति हिंदुओं का हिस्सा बढ़ा है। देखा जाए तो 2020 की अपेक्षा एनडीए ने ऊंची जाति हिंदुओं के हवाले 11 ज्यादा सीटें की हैं। वहीं इंडिया गठबंधन ने ऊंची जाति के हिंदुओं को 2020 की अपेक्षा 10 सीटें कम दी हैं।

अब यह देखें कि 2020 के विधान सभा में उच्च जाति हिंदू प्रतिनिधियों की संख्या 64 थी। इनमें एनडीए के 45, महागठबंधन के 17 और लोजपा व निर्दलीय एक-एक थे। लगभग आधे उच्च जाति हिंदू विधायक भाजपा से थे। भाजपा के 74 विधायकों में 33 उच्च जाति हिंदू थे। भाजपा के ऊंची जाति हिंदू उम्मीदवारों की जीत की दर भी सबसे ज्यादा थी। जदयू से ऊंची जाति के 9 हिंदू जीते थे। इस तरह भाजपा की अपेक्षा जदयू के उच्च जाति के हिंदू उम्मीदवारों की जीतने की दर कम थी। दूसरी तरफ महागठबंधन ने 49 ऊंची जाति हिंदुओं को उम्मीदवार बनाया था, जिसमें 17 जीते थे। महागठबंधन के ऊंची जाति के उम्मीदवारों के जीतने की दर भी एनडीए के मुकाबले कम थी।

2020 के परिणामों के आधार पर आकलन करें तो स्पष्ट है कि अगर एनडीए और उसमें भी भाजपा का चुनावी प्रदर्शन बेहतर होता है तो विधानसभा में उच्च जाति हिंदुओं की संख्या 2020 की अपेक्षा बढ़ना तय है। पिछली बार एनडीए के 60.81 प्रतिशत ऊंची जाति हिंदू उम्मीदवार जीत गए थे।

इस आधार पर अगर एनडीए पुराने चुनावी प्रदर्शन को भी दुहराती है तो वह 52 के लगभग ऊंची जाति हिंदू विधायकों को विधान सभा पहुंचाएगी, जो 7 ज्यादा होगी।

सवाल है कि अगर ऐसा होता है तो बिहार किस दिशा में आगे बढ़ेगा? इसको बेहतर ढंग से समझने के लिए राजनीतिक इतिहास में झांकते हैं। गौरतलब है कि आजादी के बाद पहली बार कांग्रेस के राजनीतिक वर्चस्व को 1967 में जबर्दस्त चोट पड़ी और बिहार में संयुक्त विधायक दल (संविद) सरकार बनी थी। इस विधान सभा में पिछड़े समुदाय के विधायकों की संख्या में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई थी। कांग्रेस के सत्ता से पहली बार बाहर होने और विधान सभा की सामाजिक संरचना में आए बदलाव के साथ अंतत: आजादी के बाद कोई पिछड़ा बिहार के सत्ता के शीर्ष मुख्यमंत्री की कुर्सी तक भी पहुंचा था। हालांकि इस विधान सभा में भी ऊंची जाति हिंदू विधायकों की संख्या ही ज्यादा थी। वे 41.82 प्रतिशत और हिंदू पिछड़े 25.78 प्रतिशत थे। बाद के 20 वर्षों में 1972 को छोड़कर विधान सभा की सामाजिक संरचना में कमोबेश कोई बदलाव नहीं आया। वर्ष 1990 में जब बिहार के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य में एक मोड़ आता है और लालू यादव सत्ता की बागडोर संभालते हैं तो विधान सभा की सामाजिक संरचना भी उलट जाती है। पहली बार पिछड़े विधायकों की संख्या उच्च जातियों के विधायकों की संख्या से अधिक हो जाती है। विधायकों में उच्च जाति हिंदू 32.40 प्रतिशत और हिंदू पिछड़े 36.11 प्रतिशत होते हैं। 1995 के विधान सभा चुनाव में जब लालू यादव को भारी समर्थन हासिल होता है तो विधान सभा में भी पिछड़ों की तादाद नई ऊंचाई पर पहुंचती है और ऊंची जाति की राजनीतिक हैसियत पर जबर्दस्त चोट पड़ती है। विधायकों में ऊंची जाति हिंदू घटकर 17.28 प्रतिशत तो हिंदू पिछड़े बढ़कर 49.69 प्रतिशत हो जाते हैं।

फिर 2000 में विधान सभा में उच्च जाति हिंदुओं की स्थिति में सुधार होती है और वे 23.04 प्रतिशत हो जाते हैं। वर्ष 2005 में राजनीतिक बदलाव घटित होता है। भाजपा के साथ मिलकर नीतीश कुमार सत्ता की बागडोर संभालते हैं और विधान सभा में 25.9 प्रतिशत सवर्ण पहुंचते हैं। फिर 2010 में नीतीश कुमार की अगुआई में एनडीए को भारी सफलता मिलती है। जदयू अधिकतम राजनीतिक ऊंचाई तक पहुंचती है। जदयू को 115, भाजपा को 91 सीटों पर जीत मिलती है तो राजद केवल 22 सीटों पर सिमट जाती है। ऊंची जाति हिंदुओं के कुल 79 विधायकों में जदयू से 31 और भाजपा से 40 जीतते है़ं। इसके साथ ही विधान सभा में ऊंची जाति के हिंदू विधायक बढ़कर लगभग 32.51 प्रतिशत हो जाते हैं। यह आंकड़ा लगभग उतना ही है जितना कि 1990 के विधानसभा में था।

अब यह देखिए कि 2015 में लालू यादव और नीतीश कुमार साथ आते हैं और जबर्दस्त चुनावी सफलता हासिल करते हैं तो विधानसभा में फिर से ऊंची जाति हिंदुओं की संख्या में गिरावट आती है और वे 21.39 प्रतिशत विधानसभा पहुंचते हैं। 2015 में राजद 80 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरती है। जदयू 71 सीटों के साथ दूसरे और भाजपा 53 सीटों के साथ तीसरे स्थान पर रहती है। ऊंची जाति हिंदू विधायकों की संख्या घटकर 51 हो जाती है और इस तरह उन्हें 28 सीटों का नुकसान होता है। भाजपा से 23, जदयू से 12 और राजद से 3 ऊंची जाति हिंदू जीतते हैं। पिछले 2020 के विधान सभा में फिर से सवर्ण विधायकों की संख्या 5 प्रतिशत बढ़कर 26.33 प्रतिशत हो जाती है। इस चुनाव में फिर से नीतीश कुमार एनडीए के साथ होते हैं।

स्पष्ट तौर पर विधान सभा की बदलती सामाजिक संरचना बिहार के सामाजिक-राजनीतिक जीवन के बदलाव की कहानी कहती है और यह भी बताती है कि 2025 में एनडीए की जीत और भाजपा का बेहतर चुनावी प्रदर्शन बिहार को किस दिशा में जाने का एलान करेगा! यदि उसे जीत मिलती है तो बिहार की सत्ता पर ऊंची जाति हिंदुओं का नियंत्रण मजबूत होगा।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

रिंकु यादव

रिंकु यादव सामाजिक न्याय आंदोलन, बिहार के संयोजक हैं

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