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द्विजों को पायल तडवी जैसी दलित-आदिवासी महिलाएं चिकित्सक के रूप में क्यों स्वीकार नहीं?

डा. पायल तडवी की खुदकुशी के पीछे तीन सवर्ण महिला चिकित्सकों का हाथ है। सवाल उठता है कि निम्न जाति/समुदाय से आने वाली पायल उन्हें दाई के रूप में तो मंजूर है लेकिन एक चिकित्सक के रूप में क्यों नहीं?

दलितों तथा आदिवासियों के खिलाफ उत्पीड़न जहां रोजमर्रा का एक हिस्सा है। देश की विशालता और राष्ट्रवाद के आगे इस तरह की राष्ट्रविरोधी घटनाएं बौना साबित होती हैं और अखबारों और न्यूज चैनलों को आकृष्ट करने में असफल रहती हैं। पायल तडवी की आत्महत्या ने जनांदोलन तो नहीं, परन्तु जनचेतना पैदा करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसी क्रम में आप रोहित वेमुला की आत्महत्या को भी देख सकते हैं। भारत में नारीवादी अध्ययन और जातीय विमर्श अभी भी दो अलग धाराओं के रूप में बह रही है। जहां एक ओर नारीवादी अध्ययन में दलित-आदिवासी को शामिल नहीं किया जाता है वहीं दलित अध्ययन में स्त्री विमर्श को जगह नहीं मिली है। जैसे अमेरिका में ‘ब्लैक फेमिनिज्म’ का उदय हुआ है, भारत में इसी के सामानांतर ‘दलित नारीवाद’ जैसे विचारधारा का गठन संभव नहीं हो पाया है। 

चिकित्सक का पेशा इतिहास में उतना पवित्र कभी न था जितना मुंबई के वी.वाई.एल. नायर अस्पताल के तीन सीनियार सवर्ण डाक्टरों – हेमा आहूजा, भक्ति मेहर और अंकिता खंडेलवाल ने बना दिया था। इनके अनुसार डा. पायल तड़वी के डिलिवरी (बच्चा जनाने) से बच्चा अपवित्र हो जाता था क्योंकि पायल एक भील आदिवासी लड़की थी जो अभी भी अछूत थी। क्या चिकित्सक का पेशा केवल सवर्ण/द्विजों का पेशा है?

डा. पायल तडवी को खुदकुशी के लिए मजबूर करने की आरोपी तीन महिला चिकित्सक

अपनी पुस्तक ‘एक्सप्लोरिंग अर्ली इंडिया’  में रणबीर चक्रवर्ती कहते हैं कि “धर्मशास्त्रों में वैद्यों/चिकित्सकों के पेशों को नीचा दिखाया गया है और उनका यह व्यवहार अंधविश्वासों तथा विज्ञान विरोधी अवधारणा के कारण था। दूसरा कारण चिकित्सकों को बौद्ध और बौद्ध मठों से संबंध् होना था। परन्तु जब पूर्व मध्यकाल में जब पवित्र ब्राह्मण मठों तथा आश्रमों में चिकित्सा की पढ़ाई तथा प्रयोग शुरु हुआ और वैद्यों के उपर लगे नीचता के लेबल को भी हटा लिया गया और इस तरह एक नीच पेशा का पुनरुत्थान हुआ और वह आज द्विजों के हाथों में चली गई। वैद्यों को अम्बष्ठ भी कहा जाता था, जो उसके आदिवासी उत्पत्ति का भी द्योतक भी है।”

दिवंगत डा. पायल तडवी की तस्वीर

जहां एक ओर चिकित्सा का पेशा अपवित्रता की लक्ष्मण रेखा लांघ गयी परन्तु प्रसव तथा मातृत्व अपवित्रता की कोठरी में बंद रही। स्त्रियों के प्रसव काल को सभी धर्मग्रंथों ने लगभग अपवित्र काल माना और सामान्यतः इसी कारण प्रसव अथवा बच्चा जनाने का कार्य अछूतों के हिस्से बचा रह गया। आप लोगों में से कितने भारतीय अस्पतालों में पवित्र पैदा हुए होंगे कह नहीं सकता परन्तु आज भी बिहार में ज्यादातर गांवों में बच्चा पैदा करवाने वाली स्त्री को ‘चमाईन’ कहा जाता है। ‘चमाईन’ शब्द जातिसूचक है और चमारों की औरतों के लिए प्रयोग किया जाता है। केवल बिहार में ही नहीं, भारत के कोने-कोने में दाई या दाई माँ या माँ कही जानेवाली औरतें निम्न कही जाने वाली जाति से आती हैं। प्रसव के दौरान इन औरतों का उपयोग कई तरीके से लिया जाता है – बच्चा जांचने, शरीर मालिश करने से लेकर सफाई तक इत्यादि और यह परंपरा कोई नई परंपरा नहीं है। उंची जाति के स्त्रियों को यही बताया जाता है कि प्रसव का काल अपवित्र होता है और वह आसानी से निम्न जाति की औरतों से सेवा लेने को तैयार हो जाती है। वैसे ही जैसे अपनी पुस्तक ‘नारीत्व के गठन’ में शालिनी शाह लिखती हैं “महिलाओं के स्वाभाविक मासिक धर्म को पुरुषोचित संस्कृति में हेय दृष्टि से देखा है और एक ऐसी मानसिकता का निर्माण किया है जहां वह इस प्राकृतिक तथ्य को लेकर स्वयं को हीन समझती है; दाई के कार्य को भी आप इसी संदर्भ में रखकर देख सकते हैं जहाँ पितृसत्ता पहले प्रजनन काल का हीन/अपवित्र कहता है और फिर जरूरत के अनुसार अपवित्र/हीन स्त्रियों को इस कार्य की अनुमति दे देता है। जन्म के छह, बारह या सत्ताईस दिनों के बाद का समारोह मुख्यतः एक पवित्रता का समारोह होता है जिसमें बच्चे और मां दोनों अनुष्ठानों तथा गंगा जल से पवित्र किये जाते हैं।”

काश चिकित्सकों को भी उनके पेशा का इतिहास तथा दाई या दाई मां की सामाजिक पृष्ठभूमि, ऐतिहासिक संदर्भ और उसके योगदान के बारे में बताया जाता। काश उन तीन डाॅक्टरों को पितृसत्ता के साथ-साथ जातिवाद का दोष भी पढ़ाया जाता कि कैसे औरत न केवल पितृसत्ता बल्कि उतनी ही जातिवाद की शिकार है।

कहना गैर वाजिब नहीं है कि नायर अस्पताल के तीनों डाक्टरों ने भी जातिवादी पाठशाला में यही पढ़ा होगा जहां पायल तड़वी जैसे दलित-आदिवासी महिलाएं दाई के रूप में तो स्वीकार हैं, डाक्टर के रूप में नहीं।

(कॉपी संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

प्रेम कुमार

प्रेम कुमार दिल्ली विश्वविद्यालय के मोतीलाल नेहरू कॉलेज में इतिहास विभाग के सहायक प्रोफेसर हैं

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