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यात्रा संस्मरण : जब मैं अशोक की पुत्री संघमित्रा की कर्मस्थली श्रीलंका पहुंचा (पहला भाग)

पर्यटन के दृष्टिकोण से एक पहाड़ी पर रावण का महल भी बता दिया गया है और लिख भी दिया गया है। वैसे ही अनुराधापुर में बोटैनिकल गार्डन के बीच अशोक वाटिका होने का भ्रम लोगों में पैदा कर दिया गया और वहां सीता को भी बैठा दिया गया। असल में वह सीता नहीं, बल्कि सम्राट अशोक की बेटी संघमित्रा ही है, जिसने बहुत पहले जाकर श्रीलंका में क्रांतिकारी परिवर्तन किए थे। पढ़ें, मोहनदास नैमिशराय का यह यात्रा वृत्तांत

श्रीलंका में बौद्ध धर्म और संस्कृति

आध्यात्मिकता और आधुनिकता की यात्रा में आज के युग में आप किस देश को सफल मानेंगे? यह सवाल मेरे भीतर बार-बार उभरता है। ऐसे समय जब मैं एक देश में हुई बौद्ध धर्म की प्रगति को देख और महसूस करके लौटा हूं। उदाहरण के लिए किसी देश के पास काफी मात्रा में खनिज हैं या फिर गैस, पेट्रोल, चांदी, या उस देश के 70 प्रतिशत नागरिक अच्छा खासा धन कमाते हैं। उनके पास बड़े-बड़े और सुंदर घर भी हैं। भोगने के लिए सभी तरह की सुविधाएं हैं। सेवा के लिए नौकर-चाकर हैं। उस देश में महंगे होटल भी हैं और बार भी। दूसरी ओर एक ऐसा देश, जहां पांच सितारा होटलों की भरमार नहीं है और न कदम-कदम पर मयखाने (बार) हैं। लेकिन उस देश की सांस्कृतिक विरासत है। उसके पास नैतिक जीवन के लिए धम्म है, आध्यात्मिकता है, साहित्य है और सामाजिक सरोकारों से रिश्ते बनते हुए मनुष्य के बीच भेदभाव को खत्म करते हुए अधिकांश लोग खुशहाली से रह रहे हैं। भले ही खुशहाली का मापदंड उनका अलग है। ऐसा मुझे अनुभव हुआ। यह इसके बावजूद कि 1950 के दशक से लेकर चार-पांच साल पहले तक वहां बहुसंख्यक सिंहली और तमिल लोगों के बीच सांप्रदायिक स्तर पर हिंसक घटनाएं होती रहीं। 

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में जाए तो बौद्ध धर्म की यह यात्रा लगभग ढाई हजार वर्ष पहले भारत और श्रीलंका में एक साथ ही शुरू हुई थी। लेकिन आज नई शताब्दी में हम भारतीय कहां हैं, यह विचार हमारे भीतर बार-बार उभरता है। भारत की प्रगति के साथ अगर हम छोटे से देश श्रीलंका को साहित्य और संस्कृति के संदर्भ में देखें तो हमें सुखद आश्चर्य होता है।

श्रीलंका को प्योर थेरवादी देश कहा जाता है। भारत से जब धर्म के बतौर बौद्ध धम्म लगभग खत्म हो गया था तब चीन, जापान, कोरिया, वियतनाम, थाईलैंड आदि के साथ श्रीलंका में भी बौद्ध धम्म था। आज देखा जाए तो अधिकांश देशो से बौद्ध धम्म का वह मानवीय पक्ष गायब होता जा रहा है, जो श्रीलंका में अभी भी मौजूद है। जैसा तथागत ने बौद्ध धर्म को धर्म न कहकर धम्म कहा है। धम्म यानी लोगों के बीच मानवीय आधार पर संबंध बनाते हुए नैतिक मूल्य के साथ जीवन यापन। लगभग 15 दिनों के श्रीलंका प्रवास में वहां के निवासियों को धार्मिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण से देखा और नजदीकी से महसूस किया।

वहां का खुशगवार मौसम और लोगों की उदारता निश्चित ही प्रभावित करने वाली है।

जब से विश्व में बौद्ध धम्म विषय पर हिंदी और अंग्रेजी में किताब तैयार करने के लिए बौद्ध धम्म, संस्कृति और दर्शन से संबंधित ग्रंथों का अध्ययन और लेखन शुरू किया, तभी से मेरे मन में भगवान बुद्ध के प्रति और अधिक रुचि बढ़ती गई। फिर जैसे-जैसे पढ़ने-लिखने के साथ बौद्ध लेखकों, दार्शनिकों तथा इतिहासकारों से ज्ञान हासिल करता गया वैसे-वैसे मैं अपने आप को तथागत के नजदीक पाता गया। प्रत्येक वर्ष नागपुर में अक्टूबर माह में दीक्षा भूमि पर भगवान बुद्ध और बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर के अनुयायी आते हैं। बड़ी संख्या में भिक्षु और भिक्षुणियां भी आती हैं। मैं भी पिछले 30 साल में आठ-दस बार नागपुर गया हूं। इस बार भी मेरा अक्टूबर में नागपुर जाना हुआ।

मेरा कार्यक्रम था नागपुर से हैदराबाद और वहां से चेन्नई होते हुए श्रीलंका जाना। पहली बार चीवर धारण कर मैं नागपुर गया था। बहुत सारे साथी थे, जिनसे मुलाकात हुई। मैंने बताया कि मैं श्रीलंका जा रहा हूं। नागपुर के ही तीन-चार बौद्ध विहारों में भी जाना हुआ। वहां महाबोधि में भी दो दिन ठहरा। फिर वहां से ट्रेन द्वारा चेन्नई। चेन्नई में एक रात ठहरने के बाद वहीं से कोलंबो के लिए 21 अक्टूबर, 2024 को फ्लाइट ली।

हवाई सफर के दौरान मुझे बाबा साहेब के द्वारा भारत को बौद्धमय देश बनाने की बात याद आ गई। फ्लाइट लगभग बीस मिनट देरी से पहुंची थी। भंते सुगथानंद शायद बाहर इंतजार कर रहे होंगे। मैं जल्दी-जल्दी क़दम बढ़ाते हुए आया। इधर-उधर देखा। लेकिन भंते जी कहीं दिखाई नहीं दिए। पांच मिनट वहीं खड़े होकर उन्हें श्रीलंकाई लोगों में तलाश करता रहा। थोड़ा समय इसी तरह बीत गया। तभी मुझे देख कर सुरक्षा अधिकारी ने पहले नमन किया। फिर पूछा– क्या आप किसी का इंतजार कर रहे हैं? मैंने उन्हें बताया कि भंते जी मुझे लेने के लिए आने वाले थे। काफ़ी देर हो गई। मैं उन्हें अपने मोबाइल से कॉल नही कर सकता। इसलिए कि रोमिंग नहीं है। और यहां का सिम भी मेरे पास नहीं है। मेरी बात सुन कर उन्होंने कहा– “डोंट वरी, वी विल हेल्प”। भंते जी कहां रहते हैं! जवाब में मैंने हिनातीपाना बताया। आप उनका नंबर डायल कर मालूम कर सकें तो। नजदीक खड़े सहायक को उन्होंने मेरी मदद करने को कहा। उन्हें मैंने भंते जी का मोबाइल नंबर दिया। तुरंत फ़ोन मिल गया। मोबाइल पर भंते जी से उनकी बात हो गई। भंते जी ने कहा कि बीस मिनट में पहुंच रहा हूं। फिर उन्होंने दोबारा नंबर मिलाया और मुझसे बात कराई। भंते जी ने बतलाया कि जाम लगा है। दस-बारह मिनट में भंते जी आ गए थे। तब जाकर मेरी उदासी दूर हुई।

सुरक्षा में तैनात श्रीलंका अधिकारी अगर उस समय मेरी मदद नहीं करते तो क्या होता? इस बात को मैं इसलिए दर्ज कर रहा हूं क्योंकि श्रीलंका के अधिकारियों की यह उदारता थी। वह सुरक्षा अधिकारी चीवर पहने हुए मुझ जैसे के लिए नहीं, बल्कि अन्य सभी के लिए चिंतित दिखा जो किसी कारणवश परेशान थे। मैंने एक-दो लोगों को और भी देखा, जिनकी मदद श्रीलंका के सुरक्षा अधिकारियों ने अपने मोबाइल से बात कर की। हमारे अपने देश में एयरपोर्ट आदि स्थलों पर यह परंपरा लगभग नहीं के बराबर है।

मिलते ही भंते जी ने मेरे स्वास्थ्य के बारे में पूछा। फिर यह कि धम्म यात्रा में कोई परेशानी तो नहीं हुई? तत्पश्चात ही वे मुझे कार पार्किंग की ओर ले गए, जहां उनकी कार के पास कोई खड़े थे, जिनका उन्होंने परिचय कराया। वे सिविल ड्रेस में थे। मुझे देख कर उन्होंने झुक कर नमन किया। भंते जी बैठिए, कहते हुए सुगथानंद आगे की सीट पर बैठ गए और मैं पीछे की सीट पर। श्रीलंका का मौसम सुहाना था। 21 अक्टूबर की दोपहरी, गुनगुनी धूप, अच्छा लगा। सुंदर परिवेश, हरियाली भी भरपूर। लगभग दो किलोमीटर की यात्रा के बाद हमने भीड़भाड़ वाले शहर में प्रवेश किया। भारत और श्रीलंका दो अलग-अलग देश जरूर हैं। लेकिन दृश्य लगभग एक जैसे। शहर के बीच में बाजार, बाजार में छोटी-बड़ी दुकानें, उन दुकानों पर सामान खरीदते ग्राहक, ग्राहकों में स्त्री, पुरुष और बच्चे सभी थे। स्कूल-कालेज जाते कुछ विधार्थी। हंसी-मज़ाक करतीं लड़कियां। एक मोड़ से दूसरी तरफ जातीं बसें, कार और ऑटो रिक्शा। चौराहों पर खड़े पुलिस कर्मचारी।

कार में बैठे हुए मैं बाहर का अवलोकन कर रहा था तभी भंते जी ने मेरी तरफ देखा और पूछा, भंते जी क्या भोजन लेंगे? भूख तो लगी थी। हां, मैंने उत्तर दिया। भोजन के बाद उन्होंने मीठा भी खिलाया। अब हमने आगे की राह ली। भंते जी ने बताया कि यहां से हमारी मोनेस्ट्री 75 किलोमीटर दूर है।

लगभग दो घंटे के बाद हम केल्लागे जिले के माऊनेल्ला शहर के उडूमुल्ला इलाके के हिनातीपाना गांव पहुंच गए। वहां इसीपथना मोनेस्ट्री है। चाय के दौरान भंते सुगथानंद जी से उनके बारे में बातचीत हुई। वे स्वयं नजदीक के स्कूल में पढ़ाते हैं। इसके अलावा वे एक्टिविस्ट भी हैं। गांव के लोगों के सुख-दुख में हिस्सेदारी निभाते हैं। उनकी मेज़ पर मैंने देखा कि एक-दो रजिस्टर के साथ काफी सारे पेपर्स भी पड़े थे। कुछ स्कूल का होमवर्क और कुछ समाज का कार्य करना होता था। लगभग आठ बजे रात में मैंने ब्रेड के साथ दूध लिया। अमूमन रात में भंते भोजन नहीं लेते हैं। उसके बाद मैं अपने कमरे में लौट आया। चूंकि दिन भर के सफर की थकान थी तो नींद जल्दी ही आ गई।

सुबह 6 बजे मेरी नींद खुल गई। भंते सुगथानंद जी अभी सो रहे थे। लेकिन दूसरे भंते जाग कर बौद्ध विहार चले गए थे। मैं भी उसी तरफ गया। वहां एक भंते जी के साथ चार-पांच उपासक और उपासिकाए थीं। मैंने भीतर जाकर नमन किया और पूजा में शामिल हुआ। थोड़ी देर बाद पूजा खत्म होने पर भंते जी बाहर आ गए। इस बीच उपासक और उपासिकाओं ने मेरा पैर छूकर नमन किया। बाद में मैं भी बाहर आ गया।

थोड़ी देर बाद भंते रत्न मेरे लिए काली चाय बना कर ले आए। श्रीलंका में अधिकतर लोग काली चाय ही पीते हैं। हम अभी चाय पी ही रहे थे कि भंते सुगथानंद जी भी जग कर कमरे से बाहर आ गए। भंते रत्न उनके लिए भी चाय बनाने के लिए रसोई में चले गए। जल्दी ही वे उनके लिए भी चाय ले आए। थोड़ी देर बाद मैं अपने कमरे में वापस आ गया। आज क्या करना है, पूरा दिन मेरे पास है। मैं यह सोच ही रहा था कि भंते सुगथानंद कमरे में दाखिल हुए और बोले कि “भंते जी, थोड़ी देर बाद मुझे स्कूल जाना है। आज आप हमारी लाइब्रेरी में बौद्ध धर्म, संस्कृति और दर्शन पर कुछ किताबें देख लीजिए। आप तो बौद्ध धर्म पर किताब लिख रहे हैं।” मैंने हां में उत्तर दिया। फिर उन्होंने कहा कि पहले नाश्ता कर लीजिए फिर अध्ययन करिएगा।

श्रीलंका में सुबह आठ बजे तक भंते नाश्ता कर लेते हैं। प्रति दिन उपासक और उपासिकाएं सात बजे से पहले मोनेस्ट्री में भोजन ले आते हैं। भोजन शाकाहार और मांसाहार दोनों तरह का होता है। ज्यादातर लोग वहां चावल ही लेते हैं और सब्जी के साथ दाल भी। साथ में सेब, केला, सलाद और चटनी भी।

मुझे बहुत जल्दी नाश्ता करने की आदत नहीं है। भंते सुगथानंद जी ने स्कूल जाते हुए कहा कि भंते जी कोई समस्या आए या कुछ ज़रूरत पड़े तो फोन कर लिजीएगा। वैसे भंते रत्न तो हैं ही। तभी भंते रत्न आए और नाश्ता के लिए आमंत्रित किया। एक अलग कमरे में भोजन रखा था। वहां चावल, दाल और सब्जी लेकर वहीं बैठ कर खा लिया। इस बीच भंते रत्न जी से बात हुई। फिर मैं लाइब्रेरी में चला गया। सभी किताबें शीशे की आलमारी में अव्यवस्थित रूप से बंद थीं। किताबों के साथ कहीं रजिस्टर और पेपर्स भी थे। कपाट खोल कर दो-तीन पुस्तकें निकाली। किताबों पर धूल-मिट्टी थी। कपड़ा लेकर पहले साफ किया।

अधिकांश किताबें सिंहली और अंग्रेजी भाषा में थीं। उनमें स्यादाव यू. पंडिता की ‘इन दिस वेरी लाइफ’, ‘द लिबरेशन टीचिंग्स ऑफ द बुद्धा’, न्यानतिलोका द्वारा लिखित ‘बुद्धिस्ट डिक्शनरी: मैनुअल ऑफ बुद्धिस्ट टर्म्स एंड डॉक्ट्रिन्स’, ‘द क्वेश्चंस ऑफ किंग मिलिंदा: ऐन एब्रिजमेंट ऑफ द मिलिंदापान्हा’ (एन.के.जी. मेंडिस द्वारा संपादित) शामिल थीं।

पढ़ते हुए समय का ध्यान नहीं रहा। भंते जी ने कहा– बारह बजने वाले हैं, भोजन ले लीजिए। वहां मोनेस्ट्री में बारह बजे तक भोजन करना होता है। मैं लाइब्रेरी से बाहर आ गया और भंते जी के साथ भोजन के लिए चला गया। मुख्य बात यह कि सुबह में उपासकों और उपासिकाओं द्वारा जो भोजन दान होता था, वही दोपहर को लेना होता था।

इस बीच भंते जी के साथ कई जगहों पर जाना हुआ। हम कार से जाते थे और रात में लौट आते थे। इसी क्रम में कैंडी शहर जाना हुआ। भंते सुगथानंद ने मुझे कुछ किताबों के बारे में बताया था। वे मुझे बुद्धिस्ट पब्लिकेशन सोसाइटी ले गए। चूंकि तीन दिनों के बाद, मुझे अनुराधापुर जाना था, इसलिए इस प्रकाशन से कुछ किताबें खरीदी। इस प्रकाशन के कार्यालय की विशेषता यह है कि आप वहां बैठ कर किताबें भी पढ़ सकते हैं। एक बड़ी मेज के साथ-साथ सात-आठ कुर्सियां भी व्यवस्थित तरीके रखी हुई थीं। अंग्रेजी और सिंहली भाषा की ही किताबें यहां उपलब्ध थीं। सेल्स काउंटर पर बैठी महिला से हिंदी में प्रकाशित पुस्तकों के बारे में पूछा तो जवाब में उन्होंने कहा– “हिंदी की किताबें यहां कोई खरीदता ही नहीं।”

जो किताबें मैंने यहां से लीं, उनमें ‘बुद्धिस्ट सेरेमनीज एण्ड रिच्वल्स ऑफ श्रीलंका’ शीर्षक से एक किताब थी। लेखक के नाम के स्थान पर ए.जी.एस. करिया वासाम लिखा था। करीब 70-72 पन्नों की यह छोटे आकार की किताब थी। श्रीलंका की मुद्रा में इसकी कीमत 70 रुपए थी। भले ही किताब कम पृष्ठों की थी, लेकिन महत्वपूर्ण थी। विशेष रूप से थेरवादी बौद्ध और अनुयायियों की जीवन चर्चा पर आधारित इस किताब में उनके धार्मिक रीति-रिवाज, आचार-विचारों का संक्षेप में वर्णन है। इसी किताब में बुद्धिस्ट से संबंधित श्रीलंका सरकार द्वारा स्वीकृत छुट्टियों के बारे में भी बताया गया है। एक अन्य पुस्तक ‘द लॉ ऑफ कर्मा: धम्मा प्रैक्टिस’ (भाग 2) में विशेष रूप से विपश्यना पर महत्वपूर्ण सामग्री है, जो 1987 में प्रा राज स्पूधीन मंगकोल द्वारा थाई भाषा में लिखी गई थी। 1997 में सुचित्रा ओंकोम द्वारा इसका अंग्रेजी में अनुवाद दिया गया।

श्रीलंका एक बौद्ध मंदिर के परिसर में लेखक मोहनदास नैमिशराय

श्रीलंका में मैंने बौद्ध धर्म और संस्कृति संबंधित लगभग दस-बारह किताबों और दो-तीन पत्र-पत्रिकाओं का अध्धयन किया। इनमें ‘फ्रांसिस स्टोरी’ और अनागरिक सुगथानंद की ‘द रिबर्थ एज डोरोकटाइन एंड एक्सपीरियंस, एस्सेज एंड केस स्टडीज’ पुस्तक है। इनका प्रकाशन 1975 मे कैंडी स्थित बुद्धिस्ट पब्लिकेशन सोसाइटी द्वारा हुआ। इसके लिए लेखक ने ऐसे लोगों के पास जाकर सामग्री जुटाई है, जो स्वयं मानते हैं कि उनका पुनर्जन्म हुआ या कुछ ऐसे लोगों से भी साक्षात्कार लिये गये, जिन्होंने अपने रिश्तेदारों, गांव बस्ती में रहने वाले लोगों के बारे में जानकारी दी, जिनका पुनर्जन्म हुआ। इसी पुस्तक में कुछ बच्चों के बारे में भी लिखा है, जो विश्वास करते हैं कि उनका पुनर्जन्म हुआ। इसके अलावा एन.के.जी. मेंडिस द्वारा संपादित किताब ‘द क्वेश्चंस ऑफ किंग मिलिंदा: ऐन एब्रिजमेंट ऑफ द मिलिंदापान्हाऔर भिक्षुणि डॉ. कुसुम की ‘सती’ भी पढ़ी। भिक्षुणी कुसुम महाथेरी न सिर्फ लेखिका रहीं, बल्कि श्रीलंका में उन्होंने पितृसत्ता के खिलाफ आंदोलन किया, जिसका सुखद परिणाम यह हुआ कि 1996 में उन्हें बर्लिन की चीफ़ नन अय्या ख़ेमा द्वारा आधुनिक काल की पहली नन घोषित किया गया। जबकि भारत में भिक्षुणियों के द्वारा आत्मकथा बहुत कम लिखी गई है। लेकिन श्रीलंका, थाईलैंड और वियतनाम में भिक्षुणियों द्वारा काफी आत्मकथाएं लिखी गई हैं। ऐसे ही मैंने माए ची का एव की आत्मकथा का भी अध्ययन किया।

यायावरी के दौरान जब कभी मैं किसी शहर, राज्य या फिर देश में जाता हूं तो वहां की स्थानीय पत्र-पत्रिकाएं अवश्य ही खरीदता हूं। यह इसलिए कि उस शहर, राज्य या देश की धड़कन का अहसास वहां के अखबारों से हो ही जाता है। वहां के साहित्य, संस्कृति, कला, आंदोलन और राजनीति के बारे में अखबारों में प्रकाशित खबरें और विचार से बखूबी पता चल ही जाता है। मसलन, वहां के लोगों में धर्म के प्रति कैसे रुझान हैं। वहां साहित्य, कला और संस्कृति के साथ अपने अतीत यानी इतिहास, विरासत और स्मारकों के प्रति कितना लगाव है। उदाहरण के लिए 3 नवंबर, 2024 को ‘सिलोन टुडे’ में अमा.एच. बन्नीरेच्ची द्वारा ‘हेरिटेज पीस इन श्रीलंका’ नाम से पूरे पृष्ठ की एक स्टोरी के अवलोकन से पता चलता है। शांति और स्थायित्व श्रीलंका की सांस्कृतिक विरासत को सुरक्षित रखने के लिए जरूरी है। इसके लिए वहां के लोगों ने भी प्रयास किये हैं। सबसे अच्छी और सकारात्मक बात श्रीलंका सरकार की यह है कि सभी धर्मों के मानने वालों के हित में और उनके पूजा स्थलों की सुरक्षा की गारंटी ली गई है। चाहे वे बौद्ध विहार हों, हिंदू मंदिर या ईसाईयों के चर्च और मुस्लिम मस्जिदें हों। श्रीलंका सरकार की नीति हमेशा से सभी धर्म के लोगों को आदर देने की रही है, जो तथागत का मानवीय दर्शन भी रहा है।

हालांकि समय-समय पर लोगों की अस्मिता, यादगार और सामुदायिक स्वाभिमान को टारगेट भी किया जाता रहा है। जैसा कि श्रीलंका में हुआ। देश के उत्तरी और पूर्वी राज्यों में स्थित स्मारकों को बमों के द्वारा नुकसान पहुंचाया गया। विशेष रूप से कैंडी में सेक्रेड ट्रूथ रेलिक बौद्ध मंदिर को भी नुकसान पहुंचाया गया। लेखक अमा.एच. बन्नीरेच्ची के द्वारा इसी स्टोरी में अफगानिस्तान में तालिबान द्वारा बामियान बुद्धा को नुकसान पहुंचाने की भर्त्सना की गई है। विदेशी सैलानियों के लिए श्रीलंका के स्मारक मुख्य आकर्षण का केंद्र रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी आतंकवादियों द्वारा बौद्ध स्मारकों पर हुए हमले के संबंध में श्रीलंका सरकार को सावधानी रखने की सलाह दी है। ऐसा इसलिए कि कहीं देश के कुछ भागों में सांप्रदायिक तनाव न हो जाए।

आधुनिक काल के परिदृश्य में देखें तो श्रीलंका का बौद्ध इतिहास गौरवशाली रूप में देखा जा सकता है। जब न सिर्फ श्रीलंका में धर्म के साथ सांस्कृतिक क्रांति हुई बल्कि श्रीलंका के बाहर भी जाकर शांति और सद्भाव के लिए यहां के साहित्यकारों और भंतों ने सामाजिक बदलाव के लिए आंदोलन किए। सर्वप्रथम वेनेरेबल वेलविता श्री सरनानवक्रा थेरो (1698-1778) के नेतृत्व में बौद्ध संघों के पुनर्गठन के प्रयास हुए। उन्होंने केथिडयन के राजा के सहयोग से थाइलैंड से भंतों को आमंत्रित किया। 19वीं शताब्दी के आरंभ में वे बर्मा गए और बर्मा के आर्थिक सहयोग से स्कूलों की शृंखला आरंभ की। बावजूद इसके कि श्रीलंका की जमीन पर नए-नए साम्राज्यों का विस्तार हो रहा था। कभी ब्रिटिश साम्राज्य तो कभी पुर्तगाली तो कभी डच। वर्ष 1948 में श्रीलंका को आजादी मिली।

इसी दौरान बौद्ध शिक्षा, साहित्य और संस्कृति के प्रचार-प्रसार हेतु प्रयास होने लगे थे। विशेष रूप से थेरवादी बौद्धिस्टों की बात करें तो वर्ष 1880 में कर्नल हेनरी स्टील आलकोट के द्वारा सिंघली बौद्धिस्टों के सहयोग से बौद्धिस्ट थियोसोफिकल सोसाइटी की स्थापना की थी। इस सोसाइटी के आलकोट संस्थापक अध्यक्ष थे। उन्होंने कोलंबों के आनंदा में और कैंडी के धर्मराजा स्थानों पर बौद्धिस्ट स्कूलों की शुरुआत की। वे पत्रकार थे और अमेरिका से श्रीलंका आए थे। इसी दौर में ब्रिटिश स्कॉलर और सिविल सर्वेंट टी.डब्ल्यू.आर. डेविड्स (1843-1922) द्वारा 1885 में हमें बुद्धिस्ट झंडे को पहली बार वैशाख पूर्णिमा के दिन फहराए जाने का उल्लेख भी मिलता है। उन्होंने 1881 में पालि टेक्स्ट सोसाइटी की स्थापना की।

अनागरिक धम्मपाल (1864-1933) की सेवाओं को कैसे भुलाया जा सकता है? उन्होंने भारत में 1891 में महाबोधि सोसाइटी की स्थापना की। आलकोट के साथ अनागरिक धम्मपाल ने पहले जापान के राजा मेजी और बाद में बर्मा के राजा का परिचय भी झंडे से कराया था। बाद में अंतराष्ट्रीय बौद्ध प्रतीक के रूप में अनेक अंतराष्ट्रीय बुद्धिस्ट नेताओं ने भी बौद्ध दर्शन के प्रतीक झंडे को स्वीकारा था।

अनागारिक धम्मपाल का जन्म श्रीलंका के सिलोन स्थित कोलंबो में 17 सितंबर, 1864 को हुआ। बौद्ध धर्म की दृष्टि से वह काल सिलोन के इतिहास में अत्यंत निराशाजनक था। ख़ीस्ती लोगों यानी ईसा मसीह में विश्वास रखनेवालों का वर्चस्व था। ऐसे वातावरण में अनागारिक की स्कूली शिक्षा और आगे महाविद्यालीय शिक्षा हुई थी।

अनागारिक धम्मपाल जी श्रीलंका में एक ईसाई परिवार में पैदा हुए और उनका नाम डेविड था। बचपन से ही मिशनरी स्कूल में पढ़ने के बावजूद, शुरुआत में ही उन्हें बुद्ध के तत्वचिंतन का आकर्षण लगता था। उनका मन बुद्धिज्म की ओर था। पुर्तगालियों एवं ब्रिटिशों की वजह से बौद्ध धर्म श्रीलंका में अंत के कगार पर खड़ा था। तब अनागारिक धम्मपाल ने एक मोटर बस को अपना घर बनाया और श्रीलंका के कोने-कोने में घूम-घूम कर विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और बुद्धिज्म का प्रसार व प्रचार किया था। वर्ष 1893 में शिकागो (अमेरिका) में आयोजित धर्म-संसद के विशेष बौद्ध प्रतिनिधि के रूप में उन्हें आमंत्रित किया गया, जहां उन्होंने ‘बुद्ध का मानवीय दर्शन’ विषय अपना शोध पत्र रखा।

श्रीलंका में राम और रावण का रहस्य

पाठको और शोधार्थियों को इस बारे में गंभीरता से जानना जरूरी है। यह तथ्य कुछ के लिए सुखद हो सकता है और कुछ के लिए दुखद भी। असल में राम और रावण का श्रीलंका में कोई इतिहास नहीं है। हां, राम और रावण के नाम पर मिथक जरूर बन गए हैं या कहना चाहिए कि मिथक बना दिए गए हैं। इस बारे में न कोई तथ्य मिले हैं और न ही कोई अवशेष। वैसे पर्यटन के दृष्टिकोण से एक पहाड़ी पर रावण का महल भी बता दिया गया है और लिख भी दिया गया है। वैसे ही अनुराधापुर में बोटैनिकल गार्डन के बीच अशोक वाटिका होने का भ्रम लोगों में पैदा कर दिया गया और वहां सीता को भी बैठा दिया गया। असल में वह सीता नहीं, बल्कि सम्राट अशोक की बेटी संघमित्रा ही है, जिसने बहुत पहले जाकर श्रीलंका में क्रांतिकारी परिवर्तन किए थे।

खैर, श्रीलंका प्रवास के दौरान भंते सुगथानंद जी एक दिन अपनी कार से लगभग 150 किलोमीटर दूर अपने गांव ले गए। श्रीलंका के शहर से दूर-दराज गांव देखने का मेरा यह पहला अनुभव था। जैसा भारत में होता है– आधा गांव और आधा शहर। जगह-जगह कूड़े के ढेर, गंदगी और दूषित होता पर्यावरण। साथ ही बेतरतीब से बने नए-पुराने घरों की भरमार। लेकिन वहां लगता था कि जैसे प्रकृति की गोद में गांव बसे हों। खेतों में लहलहाती खेती, नारियल, अमरुद, कटहल, आम, चेरी अैर बटु सुधा आदि के पेड़ों से अनुपम सौंदर्य। एक तरफ पहाड़ी तो दूसरी ओर नदी। भंते जी के गांव में सभी घर पक्के थे। कहीं-कहीं घरों में रंगीन पेंट भी था, जो अति सुंदर लग रहा था। दीवारों पर तथागत के चित्र भी थे। लगभग 10 एकड़ में बना बौद्ध विहार भी उनके गांव में था। स्वयं भंते जी का बड़ा घर था। उसके चारों तरफ बाग-बगीचे। भंते जी के घर में तथागत की मूर्ति, टीवी, फ्रिज, सोफा सेट सभी कुछ था। मुझे देखकर उनके माता-पिता ने हाथ जोड़कर नमन किया और फिर मेहमानी की। परिवार के एक बच्चे ने आकर मेरे पांव छुए। वहां सोफों पर सफेद कपड़ा बिछाया जाता है। ऐसा श्रीलंका के अधिकांश घरों में परंपरा है। सफेद कपड़ा पुरुष अपने कंधे पर भी डालते हैं और महिलाएं सफेद साड़ी पहनती हैं।

भंते जी के सानिध्य में कुछ दिन रहने के दौरान बहुत सारी बातें जानने को मिलीं। उदाहरण के लिए श्रीलंका में अधिकांश भंते अपने घर-परिवार में भी जाते हैं और वहां एक-दो दिन या तीन दिन भी अपने माता-पिता व भाई-बहनों के साथ रहते हैं। उनसे वह घर-गृहस्थी के बारे में भी चर्चा करते हैं। चर्चा ही नहीं, बल्कि परिवार की जिम्मेदारी भी उठाते हैं और कभी-कभी आर्थिक मदद भी करते हैं। यहां पाठकों को मैं बताना चाहता हूं कि श्रीलंका में अधिकांश भंते विवाहित होते हैं। बहुत ही कम भंते होंगे जो विवाह करने के बाद भिक्खू बने होंगे। ज्यादातर जन्म से ही बन जाते हैं और हमेशा के लिए बौद्ध धर्म अपना लेते हैं। मेरे कहने का आशय यह है कि बौद्ध धर्म स्वीकार करने के बाद अधिकांश भंते अपने घर-परिवार तथा साथियों से अलग नहीं हो जाते। वे बराबर उनका ध्यान रखते हैं। यह परंपरा भारत में नहीं है। भारत के अधिकांश भंते लोग यह मानते हैं कि एक बार किसी ने बौद्ध धर्म अपना लिया तो उसे फिर वापस अपने घर-परिवार में नहीं जाना चाहिए। उसे पूरी तरह से दुनियादारी से मुक्त हो जाना चाहिए। सही क्या है और गलत क्या है, यह पाठक और शोधार्थी जानें। जैसा मैंने श्रीलंका और भारत के भंते लोगों के बीच अंतर को देखा है, उसे ही रेखांकित किया है।

क्रमश: जारी

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

मोहनदास नैमिशराय

चर्चित दलित पत्रिका 'बयान’ के संपादक मोहनदास नैमिशराय की गिनती चोटी के दलित साहित्यकारों में होती है। उन्होंने कविता, कहानी और उपन्यास के अतिरिक्त अनेक आलोचना पुस्तकें भी लिखी।

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