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दसाईं परब : आदिवासी समाज की विलुप्त होती धरोहर और स्मृति का नृत्य

आज भी संताल समाज के गांवों में यह खोज यात्रा एक तरह की सामूहिक स्मृति यात्रा है, जिसमें सभी लोग भागीदार होते हैं। लोग समझते हैं कि ये पात्र केवल ऐतिहासिक कथाओं के नाम नहीं, बल्कि संताल समाज के संघर्ष, बलिदान और पहचान के प्रतीक हैं। पढ़ें, देवेंद्र कुमार नयन का यह आलेख

झारखंड की धरती, जंगल और परब-त्योहार केवल जीवन के साधन नहीं हैं, बल्कि आदिवासी अस्मिता की जड़ों से जुड़े प्रतीक हैं। एक उदाहरण है– दसाईं परब, जिसे आदिवासी समाज के लाेग दशहरा के समय बड़े जोश से मनाते हैं।

झारखंड समेत देश के विभिन्न भागों में बसे संथाल समुदाय के लोगों के लिए यह परब उतना ही अहम है, जितना कि सोहराय या जैसे प्रमुख त्योहार। लेकिन दसाईं केवल उल्लास का परब भर नहीं है, बल्कि यह दुख, स्मृति और सामूहिक खोज की परंपरा से जुड़ा परब भी है। इस परब के मौके पर होने वाला दसाईं नृत्य आज भी गांव-गांव में लोकप्रिय है। हालांकि समय के साथ इसमें कमी भी आई है।

दसाईं परब के नाम में प्रकृति के साथ इसके जुड़ाव का बोध है। संताल भाषा में ‘दाक्’ का अर्थ है पानी और ‘साय’ का अर्थ है समाप्त। यानी बरसात के समाप्त होने के समय का परब। जब खेतों में धान के पौधे लहलहा उठते हैं और बरसात की विदाई होती है, तब संताल समाज इस परब को मनाता है।
इस परब की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि भी रही है। दसाईं नृत्य के पीछे विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग कहानियां प्रचलित हैं। कुछ जगहों पर इसे महिषासुर की हत्या की कथा से जोड़ा जाता है, तो कहीं संताल समुदाय के कुलगुरु को खोजने के प्रयास से इसे जोड़ा जाता है। कुछ कथाओं में हुदुड़ दुर्गा का ज़िक्र मिलता है, जिसमें बताया जाता है कि आदिवासियों के कुल गुरु हुदुड़ को किसी स्त्री की मदद से गुप्त स्थान में छिपाया गया था। तब युवाओं ने नृत्य और स्त्रियों के पारंपरिक वेशभूषा का इस्तेमाल करते हुए दुश्मनों के इलाके में जाकर अपने गुरु को खोजने का साहसिक प्रयास किया था।

हालांकि विभिन्न कथाएं प्रचलित हैं। लेकिन सबसे व्यापक और लोकप्रिय कथा वह है जिसमें आयन, काजोल, दीवी और दुर्गा की खोज का विवरण मिलता है। यही कथा आज दसाईं परब और नृत्य के केंद्र में है। इसे हर साल गांव-गांव जाकर गीत और नृत्य के माध्यम से जीवित रखा जाता है।

आयन, काजोल, दिवी और दुर्गा की खोज की कहानी

इस परब का मूल इन चार नामों में निहित है, जिनका स्मरण हर नृत्य, हर गीत और हर घर-घर की खोज में होता है। लोककथाओं के अनुसार, बहुत पुराने समय में आदिवासी समाज अनेक संकटों और युद्धों से गुजर रहा था। तब संताल समुदाय चायगढ़ और चंपागढ़ के क्षेत्रों में रहते थे। उस समय आर्य ‘सिञ द्वार’ मार्ग से भारत में प्रवेश कर संतालों और अन्य आदिवासी समूहों पर आक्रमण करते रहे, पर हर बार आर्य पराजित होते रहे। अंततः उन्होंने संतालों की शक्ति और उनकी विजय का रहस्य समझने के साथ ही उसे कमजोर करने के लिए संताल स्त्रियों का छलपूर्वक अपहरण करने की योजना बनाई। उसी समय आर्यों द्वारा आयन और काजोल नामक दो सुंदर आदिवासी युवतियां का अपहरण कर लिया गया, जो आदिवासी समाज की गरिमा और स्त्री-शक्ति का प्रतीक थीं। इस घटना की खबर फैलते ही समाज के दो वीर युवक दीवी और दुर्गा, दोनों मिलकर आर्यों का पीछा करते हुए उनके पीछे आयन और काजोल की खोज में निकल पड़े। लेकिन खोज के दौरान दीवी और दुर्गा भी कहीं खो गए। लगातार बारिश में कठिन रास्ते और युद्ध जैसी परिस्थितियों के कारण पूरा समाज इस खोज अभियान में सीधे नहीं जुड़ पाया।

स्त्री वेशभूषा में नृत्य करते संथाल आदिवासी

यही कारण है कि हर साल गांव-गांव घूमकर गीत और नृत्य के माध्यम से इस कथा को दोहराया जाता है, जिसमें लोग चारों पात्रों– आयन, काजोल, दीवी और दुर्गा की तलाश का अभिनय करते हैं और उन्हें याद करते हैं।

दसाईं नृत्य की अनोखी शैली

इस नृत्य की सबसे बड़ी विशेषता है इस दौरान की वेशभूषा और वाद्य यंत्रों की सामूहिक ध्वनियां। युवा पुरुष साड़ी की धोती पहनते हैं, सिर पर साड़ी की पगड़ी बांधते हैं और उसमें मोर पंख सजाते हैं। कतार में जब ये युवक विभिन्न वाद्य-यंत्रों की ताल पर नृत्य करते हैं तो दृश्य मन को मोह लेता है।

इस नृत्य में भुवांग (लंबी लौकी से बना विशिष्ट वाद्य यंत्र) प्रमुख होता है। इसके अलावा नगाड़ा, मांदर, घंटा, करताल, बांसुरी और केंदरी जैसे पारंपरिक वाद्य यंत्र भी बजाए जाते हैं। इनकी सम्मिलित ध्वनि से न केवल उत्सव का वातावरण बनता है, बल्कि यह नृत्य अपने मूल शोक और खोज के भाव को भी जीवंत करता है।

भुवांग की खासियत यह है कि इसका आकार धनुष के तरकश जैसा होता है। यही वाद्य दसाईं नृत्य का मुख्य आधार है। लोककथाओं में कहा जाता है कि कभी इसी भुवांग में तीर छिपाकर युवक दुश्मनों के बीच नृत्य के बहाने खोज अभियान पर निकलते थे। यही कारण है कि आज भी आदिवासी युवा स्त्रियों का वेश धारण करते हैं और घर-घर जाकर आयन, काजोल, दिवी और दुर्गा की खोज का अभिनय कर दसाईं नृत्य करते हैं।

इसके दौरान आदिवासी युवक स्त्रियों के वेश में प्रत्यके घर में प्रवेश कर वे गृहस्वामिनी से प्रश्न करते हैं– “क्या इस घर में आयन और काजोल हैं? क्या दीवी और दुर्गा यहीं रह रहे हैं?” यह केवल अभिनय नहीं, बल्कि प्रतीकात्मक रूप से उस ऐतिहासिक खोज की पुनरावृत्ति है, जब पूरा समाज अपने खोए हुए साथियों की तलाश में निकला था।

इस खोज के पीछे न केवल साहस और निष्ठा का संदेश छिपा है, बल्कि एक गहरा दुख और असुरक्षा का अनुभव भी है। मानो समाज आज भी उस आघात को नहीं भूला, जिसने कभी उसकी नींव को हिला दिया था। इस दसाईं नृत्य के माध्यम से आज भी लोग उस साहस, बलिदान और आदर्शों की याद को जीवित रखते हैं तथा आयन, काजोल, दीवी और दुर्गा की खोज का प्रतीकात्मक संदेश गांव-गांव पहुंचाते हैं। नृत्य के दौरान गीतों में भी यही वेदना गूंजती है–

“हाय रे हाय रे दिवी रे, दुर्गा, दो किन ओडोक् एना रे,
दिवी रे चेला दो किन बाहेर एना रे,
हायरे हाय रे बेलबुटा रे किन ओडोक एना रे,
आँवरा तोड़ा रे किन बाहेर एना रे,
हायरे हाय रे देश दाड़ांन लागि दो किन ओड़ोक एना रे”

इस गीत में ‘हाय रे हायरे’ शब्द का प्रयोग उद्गार और चिंता व्यक्त करने के लिए किया गया है। गीत में बताया गया है कि दीवी और दुर्गा अपने चेलों के साथ गांव से बाहर निकल गए हैं। गीत में आगे है कि दिवी और दुर्गा गांव छोड़कर क्यों गए, और कैसे वे आयन और काजोल की खोज में निकले।

आज भी संताल समाज के गांवों में यह खोज यात्रा एक तरह की सामूहिक स्मृति यात्रा है, जिसमें सभी लोग भागीदार होते हैं। लोग समझते हैं कि ये पात्र केवल ऐतिहासिक कथाओं के नाम नहीं, बल्कि संताल समाज के संघर्ष, बलिदान और पहचान के प्रतीक हैं। आज भी जब दसाईं नर्तकों का दल गांव-गांव घूमता है, तो यह केवल नृत्य या मनोरंजन नहीं होता। यह एक सांस्कृतिक यात्रा होती है, जिसमें हर घर की स्त्रियां और बुजुर्ग इस खोज में सहभागी बनते हैं।

देशज ज्ञान व विरासत सौंपने का परब

दसाईं परब केवल नृत्य और संगीत तक सीमित नहीं है। इसमें देशज ज्ञान व विरासत को अगली पीढ़ी को सौंपने की परंपरा भी जुड़ी है। आश्विन महीने के छठे दिन से यह परब शुरू होता है और दशहरा तक चलता है। इस परब में गांव के आदिवासी युवक अपने गुरुओं से जंगल, पहाड़ों में मिलने वाली जड़ी-बूटियों की पहचान कर विभिन्न रोगों के उपचार करने का गुर सीखते हैं। 

आज दसाईं परब और नृत्य विलुप्ति की कगार पर है। थोपे जा रहे ब्राह्मणवादी विचार, तथाकथित आधुनिकता, पलायन और बदलती जीवन शैली ने इस परंपरा को कमजोर कर दिया है। अब गांवों में पहले जैसी उत्साही टीमें नहीं निकलतीं। कई युवा इसे सिर्फ मनोरंजन का साधन समझते हैं, जबकि इसके पीछे गहरी इतिहास और पहचान की स्मृति छिपी है।

आज जब आदिवासी समाज अपनी संस्कृति और पहचान को लेकर गर्व करता है, तब यह प्रश्न उठता है कि क्या हम ऐसी परंपराओं को बचा पाएंगे? दसाईं परब केवल संतालों का त्योहार नहीं, बल्कि पूरे आदिवासी समाज का सामूहिक परब है। इसमें इतिहास, संस्कृति, लोकगीत, वेशभूषा और जीवन–दर्शन सभी जुड़े हैं। यह परब हमें यह सिखाता है कि इतिहास केवल किताबों में नहीं होता, बल्कि गीतों और नृत्यों में भी जीवित रहता है। आयन, काजोल, दीवी और दुर्गा की खोज आज भी जारी है। यह खोज केवल चार पात्रों की नहीं, बल्कि आदिवासी समाज की जड़ों और पहचान की खोज भी है।

(संपादन : नवल/अनिल)

लेखक के बारे में

देवेंद्र कुमार नयन

देवघर (झारखंड) के निवासी देवेंद्र कुमार नयन पेशे से सिविल इंजीनियर व स्वतंत्र लेखक हैं।

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