जुलाई महीने में धान की रोपाई (खरीफ़ की सीज़न) से शुरू होने वाली उर्वरक की किल्लत अक्टूबर-नवंबर में रबी सीज़न के फ़सलों की बुआई के समय अपने चरम पर होती है। इन दो महीनों में आलू, गेहूं, सरसों, मटर, अलसी आदि फ़सलों में डीएपी, एनपीके और यूरिया खाद की ज़रूरत ज़्यादा होती है। उत्तर प्रदेश जैसे बड़े और मुख्य रूप से कृषि निर्भर राज्य में यह समस्या विकट रूप धर लेती है। आलम यह है कि कई-कई दिनों तक किसानों को लंबी-लंबी कतार में बिना खाये-पिये सुबह से लेकर शाम तक लगे रहना पड़ता है। इस दौरान उन्हें कई बार व्यवस्था और शांति बनाए रखने के नाम पर पुलिस की लाठियां खानी पड़ती हैं।
प्रयागराज जनपद के सहसों प्रखंड के गांव नरई के किसान रामपाल बताते हैं कि उनके पास दो बीघा खेत है। कुछ खेत बटाई पर ले रखी है। कुल मिलाकर उनका मुख्य पेशा खेती-किसानी है। इसी से उनका घर परिवार चलता है। गेहूं चावल के अलावा कुछ हिस्सों में वे सब्जियां उगाकर बेचते हैं। उर्वरक की समस्या पर रामपाल बताते हैं कि बाज़ारों में तो इफ़रात है, समस्या केवल काेआपरेटिव सोसाइटियों में है। फिर बाज़ार से ही क्यों नहीं ख़रीद लेते आप, क्या बाज़ारों में ज़्यादा महंगा मिलता है? इस सवाल के जवाब में वे कहते हैं कि “बेशक़ क़ीमत ज़्यादा तो होती ही है, लेकिन मुख्य कारण है असली और नकली उर्वरक का। वे बताते हैं कि एक साल जब सोसयाटी में नहीं मिला था तो उन्होंने बाज़ार से ख़रीदकर खेतों में डाल दिया था। लेकिन डालना न डालना एक बराबर रहा। फ़सल की पैदावार मारी गई। तब से कान पकड़ लिया कि सोसायटी में नहीं मिलेगी तो बिना खाद के बुआई (बिजाई) कर लूंगा पर बाज़ार से नहीं ख़रीदूंगा।”
क्या इतना ज़्यादा फर्क़ होता है? इस सवाल के जवाब में रामपाल बताते हैं कि “भैय्या आधे का भी फर्क़ हो तो आदमी एक बोरी के बजाय दो बोरी डाल दे। पर यह तो पूरी तरह बेअसर होती है। मिलावटखोरी एक चीज़ है लेकिन यहां तो पूरी बोरी ही नकली होती है।”
ग्रामसभा बिगहिया के किसान राम नारायण बताते हैं कि किसानों की दिक्कतें खत्म होने के बजाय लगातार बनी हुई हैं। सिंचाई के समय बिजली नहीं रहती। नहर में पानी नहीं आता और डीजल बहुत महंगा हो गया है। इसी तरह बुआई के समय खाद, बीज आदि नहीं मिल पाते हैं। पहले जब किसान बीजों के लिए सरकारी व्यवस्था पर पूरी तरह से निर्भर था तब बुआई अक्सर महीनों पिछड़ जाती थी, क्योंकि ब्लॉक में बीज समय पर नहीं आता था। फिर लोगों ने धीरे-धीरे बाज़ार से लेना शुरू कर दिया। गांव-जवार के तमाम बाज़ारों और चौक-चौराहों पर निजी बीज-गोदाम खुल गए हैं। अब उर्वरक को लेकर भी सरकार यही नीति अपना रही है, ताकि लोग-बाग़ बाज़ार की ओर रुख़ करें और सरकार इस ज़िम्मेदारी से भी मुक्त हो जाए।

सरैंया ग्रामसभा, ब्लॉक फूलपुर के किसान भारत लाल बताते हैं कि सोसायटी में भी किसानों से पहले पैसा जमा करवा लिया जाता है फिर किसानों को यूरिया की बोरी के साथ नैनो यूरिया या डीएपी की बोरी के साथ जिंक या कुछ और पैकेट पकड़ा दिया जाता है। या डीएपी की बोरी की जगह एनपीके की बोरी पकड़ा दी जाती है। हमारी ज़रूरत और हमारा बजट क्या है, बिना इसकी परवाह किये, सोसायटी भी अब कंपनियों के कम बिकने वाले रासायनिक उत्पादों को ज़बर्दस्ती किसानों को थमा दे रहे हैं।
मुख्य विपक्षी पार्टी समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव ने भी रासायनिक उर्वरक की समस्या को उठाते हुए कहा है कि धान के बाद अब गेहूं और अन्य फ़सलों की बुआई के लिए भी किसानों की डीएपी (डाई अमोनियम फॉस्फेट) और एनपीके (नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और पोटैशियम) जैसी उर्वरकें नहीं मिल पा रही हैं। उन्होंने कहा कि लखीमपुर खीरी, महोबा, फतेहपुर, बदायूं, अमेठी समेत कई जिलों में सहकारी समितियों के दफ्तर पर किसानों की लंबी-लंबी लाइनें लग रही हैं। किसान दिन भर इंतजार करते हैं, लेकिन उन्हें खाद नहीं मिलती। किसान निराश हैं, खाद की कालाबाज़ारी और मुनाफ़ाख़ोरी ज़ारी है। सरकार साजिश के तहत किसानों को खेती और उनकी ज़मीनों से दूर कर रही है। धान के समय किसानों पर कई जगह लाठीचार्ज हुआ था। अब वही स्थिति गेहूं के समय है।
बीते 27 अक्टूबर सोमवार को प्रयागराज (इलाहाबाद) के सिविल लाइंस में गंगापार और यमुनापार के हज़ारों किसान खाद की समस्या को लेकर भारतीय किसान यूनियन (अराजनैतिक) की महापंचायत में पहुंचे। इसके पहले 24 अक्टूबर को चित्रकूट में किसानों ने खाद की कमी के विरोध में सड़कों पर उतर कर अपना आक्रोश प्रकट किया। किसानों ने कहा कि घंटों लाइन में लगने के बावजूद उन्हें खाद नहीं मिल पा रही है। इससे पहले महीने की शुरुआत में महोबा जिले के किसानों ने भी डीएम कार्यालय का घेराव किया था।
क्या हैं सरकारी दलीलें?
सरकार और सरकारी संस्थाओं की दलीलें हर सीज़न जस की तस बनी रहती हैं। सरकार कहती है कि पर्याप्त स्टॉक है और लोग अपनी ज़रूरत भर की ख़रीदें, बेवजह ख़रीदकर न रखें। दूसरी दलील यह रहती है कि खाद पर्याप्त है, समस्या वितरण की है।
इससे पहले यूपी एग्रो इनपुट डीलर एसोसिएशन ने अगस्त महीने में किल्लत के पीछे बारिश के बाद मांग में बढ़ोत्तरी, सहकारी समतियों पर कम उपलब्धता, प्राइवेट दुकानों का कोटा घटना कारण बताया था। एसोसिएशन के अध्यक्ष अतुल त्रिपाठी ने मीडिया को दिये अपने बयान में कहा था कि थोक विक्रेताओं और खुदरा विक्रेताओं के लिए बहुत कम मुनाफ़ा है। वे इस क़ीमत पर दुकान नहीं चला सकते हैं। समस्या इसलिए बढ़ गई, क्योंकि सहकारी समितियों की दुकानें कम हैं। प्राइवेट दुकानों की संख्या ज़्यादा है। कृषि विभाग ने प्राइवेट दुकानों का कोटा 30 प्रतिशत घटा दिया है। यह कोटा सहकारी समितियों को दे दिया गया है। एसोसिएशन का दावा है कि खाद कंपनियां यूरिया के साथ नैनो यूरिया, नैनो डीएपी, कैल्शियम, जिंक और सल्फर जैसी चीज़ें ख़रीदने के लिए कह रही हैं, जिसके कारण स्थिति और खराब हो रही है।
सनद रहे कि फिलहाल यूरिया 270 रुपए प्रति बोरी और डीएपी 1360 रुपए प्रति बोरी है।
सरकार की कारगुजारी
सूबे की सरकार ने किसानों के लिए खाद की कमी दूर करने, चोरबाज़ारी रोकने और पारदर्शिता सुनिश्चित करने के मद्देनज़र नया नियम लागू किया है। अब साधन सहकारी समितियों से यूरिया, डीएपी या अन्य उर्वरक केवल उन किसानों को मिलेंगे जो समिति के सदस्य होंगे या जिनके पास किसान पहचान पत्र (किसान क्रेडिट कार्ड या कृषक कार्ड) होगा। बाहरी (ग़ैर-सदस्य) किसानों को इन समितियों से खाद नहीं दिया जाएगा। सरकार की दलील है कि इससे एक किसान द्वारा कई समितियों से खाद लेने की समस्या रुकेगी और चोरबाज़ारी कम होगी। डिजिटलीकरण को बढ़ावा मिलेगा, जिसमें आधार, खतौनी (भूमि दस्तावेज़) या अन्य दस्तावेज़ों की जगह सीधे किसान आईडी से ख़रीदारी आसान बनेगी। यह नीति 2024 के खरीफ़ सीजन से लागू हुई है। और सदस्यता अभियान 2025 के आख़िर तक ज़ारी है।
पिछले साल अगस्त में इस योजना को लागू करते हुए कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही ने कहा था कि राज्य में यूरिया, डीएपी या एनपीके की कोई कमी नहीं है, समस्या वितरण में है, जिसमें सुधार के लिए यह नीति उत्तर प्रदेश सहकारी समिति अधिनियम, 1965 के तहत लागू हो रही है। इसके तहत सदस्यता पर आधारित वितरण को बढ़ावा दिया जाएगा। स्थानीय साधन सहकारी समिति में नामांकन करवाकर सदस्य बनने पर कृषक कार्ड मिलेगा। जिनके पास यह कार्ड होगा वही लोग इसके लिए मान्य होंगे। नज़दीकी साधन सहकारी समिति या ब्लॉक कार्यालय में आधार कार्ड, खतौनी (भूमि स्वामित्व प्रमाण), बैंक पासबुक, फोटो के साथ 50 से 100 रुपए का न्यूनतम शुल्क अदा करके यह प्राप्त किया जा सकता है। इसमें एक से दो सप्ताह का समय लगता है।
ग्राम सभा मन्शी बुजुर्ग के किसान ओम प्रकाश पटेल का कहना है कि “यह सब चोंचलेबाज़ी केवल किसानों को अयोग्य साबित करके उन्हें सोसायटी की लाइन से हटाने का हथकंडा है। इस सरकार का काम करने का यही तरीक़ा रहा है। इन्होंने शिक्षामित्रों को अयोग्य साबित करके उनकी सरकारी नौकरी खा ली। क्या दलील है कि शिक्षामित्र बच्चों को पढ़ाने के लिए तो योग्य हैं लेकिन शिक्षक के बराबर वेतन पाने के लिए अयोग्य हैं। इसी तरह कोरोना समय में सरकार ने केवल आधारकार्ड से लिंक न होने का हवाला देकर 3 करोड़ राशन कार्डों को निरस्त करके 3 करोड़ परिवारों को राशन पाने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया था। आप देखिए कि बिहार में कुछ कागज़ों के नहीं होने पर लाखों लोगों को मतदान के लिए अयोग्य साबित कर दिया गया। तो ये सरकार कभी भी किसी को भी अयोग्य साबित कर सकती है। विश्वविद्यालयों में योग्य नही होने (नॉट फाऊंड सुटेबिल) का हवाला देकर एडमिशन से वंचित किया जा रहा है। आधार कार्ड न होने के चलते कितने मरीज़ों और गर्भवती महिलाओं को प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और जिला स्वास्थ्य केंद्रों से लौटा दिया जाता है। कल को ये सरकार जीने के योग्य नहीं कहकर गोली भी मरवा सकती है।”
ग्रामसभा पाली, बटाई पर खेती करने वाली गुलकहिया देवी कहती हैं कि “जिन लोगों के पास अपनी कोई खेती-बारी नहीं है उनके पास किसान बही, जोतबही खसरा खतौनी कहां से होगा। वे तो दूसरों के खेतों को बटाई पर या साझे (खेत तुम्हारा श्रम हमारा, फिर अन्य लागत और उत्पादन में आधा-आधा) पर खेती करते हैं। सरकार उनके लिए मुश्किलें खड़ी कर रही हैं क्योंकि उनके लिए कागज़ लाना या बनवाना संभव नहीं है।” गुलकहिया का इशारा साफ़ तौर पर उन दलित-बहुजन जातियों की तरफ़ है जिनके पास या तो खेत नहीं है या नाममात्र का है। ये लोग दूसरों के खेतों पर खेती करके जीवनयापन करते हैं।
(संपादन : नवल/अनिल)
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